शनिवार, 28 दिसंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. बीबीसी हिंदी
  3. बीबीसी समाचार
  4. afghan society
Written By
Last Updated : शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2018 (16:39 IST)

आपने इस अफ़ग़ानिस्तान को देखा है!

आपने इस अफ़ग़ानिस्तान को देखा है! | afghan society
- मोनिका विट लॉक
 
क्या अफ़ग़ानिस्तान आज जैसा है, वैसा ही उसका अतीत भी था? हाल ही में एक पुरानी अफ़ग़ान मैगज़ीन का डिजिटल वर्जन जारी किया गया तो ऐसा लगा जैसे कोई पुराना मौसम अचानक लौट आया हो।
 
 
रंग बिरंगे, ख़ूबसूरत और जानकारी से भरे हुए 'ज़वानदुन' (ज़िंदगी) मैगज़ीन के नए डिजिटल किए गए पन्ने सामाजिक और राजनीतिक बदलाव के दौर में अफग़ानिस्तान के अमीर तबके के लोगों की तमन्नाओं का दस्तावेज़ हैं।
 
ये मैगज़ीन बीसवीं सदी के दूसरे हिस्से में लंबे समय तक पब्लिश होती रही थी। इस मैगज़ीन में वैश्विक मामलों, सामाजिक मुद्दे और इतिहास से जुड़े लेखों के अलावा फ़ैशन और फ़िल्मी सितारों पर भी कॉलम होते थे।।
 
 
'टाइम' मैगज़ीन जैसी ही थी 'जवानदुन', बस इसमें कहानियों और कविताओं के लिए भी जगह थी। राजनीतिक उतार-चढ़ावों से भरे पांच दशकों में 'जवानदुन' के पन्ने पर उस दौर की उथलपुथल दिखाई देती थी।
 
इसके अलावा इन पन्नों पर एक नाज़ुक पक्ष भी होता था- वो था पाठकों के सपने और उम्मीदें। जिस देश की बहुसंख्यक आबादी निरक्षर हो उसके एक ख़ास हिस्से के लिए ही 'जवानदुन' प्रकाशित होती थी। उसके लेखक और पाठक ज़्यादातर काबुल में ही रहते थे।
वो प्रगतिवादी लोग थे जिनके पास सिनेमा देखने का समय और सामर्थ्य था और जो पहनावे में बदलाव के बारे में भी सोच सकते थे। अफ़ग़ानिस्तान में 1920 के दशक के बाद से जो पत्रिकाएं प्रकाशित हो रहीं थीं, 'ज़वानदुन' उनके चंचल पक्ष को दिखाती थी।
 
वहीं काबुल पत्रिका अफ़ग़ानिस्तान के सबसे चर्चित लेखकों और विचारकों का ज़रिया थी। अदब काबुल यूनिवर्सिटी की सम-सामयिकी पत्रिका थी जबकि चिंल्ड्रेंस कंपेनियन (कामकायानो अनीस) में पहेलियां और बाल कहानियां भरी होती थीं।
 
जवानदुन पत्रिका का प्रकाशन 1949 में शुरू हुआ था। ये वो दौर था जब यूरोपीय साम्रााज्य की ताक़तें दूसरे विश्व युद्ध के बाद अपना असर खो रहीं थीं। अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसी देश भारत, पाकिस्तान और ईरान में औपनिवेशिक युग ख़त्म होने के बाद की सोच पनप रही थी।

उस वक्त अफ़ग़ानिस्तान एक नए राष्ट्र की स्थापना की ओर जा रहा था और उसके पास पैसा भी था। देश के उस समय के बादशाह शाह ज़ाहिर ने अपने मंसूबों को विकसित करने के लिए विदेशी सलाहकार बुलाए थे। और वो अमेरिका और सोवियत संघ दोनों से सहयोग मांग रहे थे।
 
 
उस दौर में स्थापित होने वाली एरियाना एयरलाइंस ने आधी दुनिया से अफ़ग़ानिस्तान का संपर्क स्थापित कर दिया था। उसका सबसे चर्चित रूट काबुल से फ्रैंकफर्ट था। ये उड़ानें ईरान, दमिश्क़, बेरुत और अंकारा होकर जाती थीं। इसे तेरहवीं शताब्दी के इतालवी यात्री मार्को पोलो के नाम पर मार्को पोलो रूट कहा जा था।
 
वहीं अंदरूनी तौर पर अफ़ग़ानिस्तान के जो शहर पहाड़ों और रेगिस्तान की वजह से एक दूसरे से कटे हुए थे उनके बीच भी सीधा संपर्क स्थापित हो गया था। 1960 के उस दशक में जवानदुन के पन्ने विज्ञापनों से भरे होते थे। कारों, फ्रिज, बेबी मिल्क जैसे उत्पाद जहां बड़ी आबादी की पहुंच से बाहर थे।
लेकिन वहीं एक छोटी आबादी, ख़ासकर महिलाओं के लिए ये जीवनशैली में आई क्रांति का प्रतिनिधित्व करते थे। पर 1973 आते-आते चीज़ें बदल गईं, शाह ज़ाहिर के भाई मोहम्मद दाऊद ने उन्हें सत्ता से हटा दिया। सदियों से चली आ रही परंपरा को किनारे कर उन्होंने अपने आपको बादशाह के बजाए नए गणतंत्र का राष्ट्रपति घोषित कर दिया।
 
 
दाऊद ख़ान ने अफ़ग़ानी फ़ैक्ट्रियों और सेवाओं को बढ़ावा दिया और इस दौरान भी ज़वानदुन में विज्ञापनों की तादाद बढ़ती गई। लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में भी नए राजनीतिक विचारों ने जन्म ले लिया और दाऊद ख़ान को 1978 में वामपंथी सैन्य अधिकारियों ने पद से हटा दिया।
 
इस विद्रोह ने अफ़ग़ानिस्तान में जिस युद्ध को शुरू किया वो आज तक चल रहा है। साल 1979 में अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत यूनियन के हमले के बाद पत्रिकाओं से वाणिजयिक विज्ञापन गायब हो गए। लेकिन इस दौरान भी जवानदुन अलग तरह के सपनों का प्रतिबिंब बनी रही।
हॉलीवुड के फ़िल्मी सितारों की जगह सोवियत सिने सितारों ने ले ली। टेप रिकॉर्डरों और फ्रिजों की जगह अब खेती के उपकरणों के विज्ञापन छपने लगे। हमें सोवियत संघ के क़ब्ज़े से पहले के दौर के आदर्शलोक के प्रतिबिंब भी दिखते हैं।
 
 
लेकिन जो चीज़ इन विज्ञापनों को देखते हुए महसूस की जा सकती है वो ये है कि ये अमरीका और रूस में तरक्की को लेकर विचार कितने मिलते जुलते थे। 1990 के दशक में सोवियत संघ की हार के बाद जवानदुन, काबुल और अन्य पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद हो गया।
 
वो एक उथल-पुथल का दौर था जब बहुत से लेखक, पेंटर और पाठक देश छोड़ कर चले गए। तालिबान के उदय का एक असर ये भी हुआ कि इनमें से बहुत से लोग कभी देश नहीं लौट सके और ये अहम सामाजिक रिकॉर्ड गायब ही हो गया।
 
 
लेकिन अफ़ग़ानिस्तान की पत्रिकाएं ऐसी नहीं थीं की पाठक पढ़ कर फेंक दें। संग्रहकर्ताओं और लाइब्रेरियों ने इन्हें सहेज कर रखा। अमेरिकी लाइब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस ने अफ़ग़ान सीमा के दूसरी ओर पाकिस्तान में इन पत्रिकाओं को पूरी तरह संरक्षित रखा है।
 
कार्नेगी कॉरपोरेशन के सहयोग से अब इनमें से सैकड़ों पत्रिकाओं को डिजीटल रूप में सहेज कर वर्ल्ड डिजिटल लाइब्रेरी का हिस्सा बना लिया गया है। आप इन पत्रिकाओं को यहां पढ़ सकते हैं। अफ़ग़ान प्रोजेक्ट के बारे में अधिक जानकारी यहां ले सकते हैं। हालांकि अब इनकी पेपर कॉपियों को खोजना बहुत मुश्किल है, लेकिन फिर भी कभी-कभी ये बाज़ार में दिख ही जाती हैं।
 
(सभी तस्वीरें लाइब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस और वर्ल्ड डिजीटल लाइब्रेरी से हैं।)
ये भी पढ़ें
कर्नाटक में कांग्रेस को बचाने के लिए लिंगायतों को कैसे थामेंगे राहुल