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Written By BBC Hindi
Last Modified: बुधवार, 10 जुलाई 2024 (08:32 IST)

मणिपुर हिंसा: एक साल बाद भी तबाही और विस्थापन के जख्म भरे नहीं- ग्राउंड रिपोर्ट

मणिपुर हिंसा: एक साल बाद भी तबाही और विस्थापन के जख्म भरे नहीं- ग्राउंड रिपोर्ट - 1 year of manipur violence
मयूरेश कोण्णूर और दिलीप कुमार शर्मा, मणिपुर और मिजोरम से
मणिपुर में पिछले साल मई महीने में शुरू हुई जातीय हिंसा में 200 से ज़्यादा लोग मारे जा जुके हैं और एक साल बाद भी हालात सामान्य नहीं हो पाए हैं।
 
लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था, "एक साल से मणिपुर शांति की राह देख रहा है। उसके पहले 10 साल शांत रहा। अचानक जो कलह वहाँ पैदा हुई है या पैदा की गई है, उसकी आग में मणिपुर अभी तक जल रहा है। कौन उस पर ध्यान देगा?"
 
उनके इस बयान के बाद गृह मंत्री अमित शाह ने सेना प्रमुख और ख़ुफ़िया प्रमुख जैसे वरिष्ठ अधिकारियों की बैठक बुलाई।
 
हालात ये हैं कि अब भी हिंसा से प्रभावित मैतेई और कुकी समुदाय के लोग बड़ी संख्या में राहत शिविरों में रह रहे हैं। हिंसा से प्रभावित ऐसे भी लोग थे, जिन्हें भागकर पड़ोसी राज्य मिज़ोरम में शरण लेनी पड़ी है।
 
राज्य के मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग को इस हिंसा की मुख्य वजह माना जाता है। इसका विरोध मणिपुर के पहाड़ी इलाक़ों में रहने वाले जनजाति कुकी कर रहे हैं।
 
अब कैसे हैं हालात
52 साल की नेंगनेई चोंग मणिपुर के सुगनु लांगचिंग गांव में अपने बेटों के साथ रहती थीं। वो मणिपुर के उन विस्थापित 12 हज़ार लोगों में से हैं, जो पड़ोसी मिज़ोरम के राहत शिविरों में रह रहे हैं।
 
राजधानी आइज़ोल से क़रीब 15 किलोमीटर दूर शहरी ग़रीबों के लिए बनी एक हाउसिंग सोसायटी में रहने वाली नेंगनेई को घर वापसी की कोई आशा नहीं है। न उनके पास कोई काम है, न पूंजी। राहत शिविर में ही उनका जीवन है। यहां कुकी-ज़ोमी जनजाति के 20 और परिवारों ने शरण ले रखी है।
 
नेंगनेई चोंग के पति भारतीय सेना में सूबेदार थे, जिनकी आठ साल पहले मौत हो गई थी। वो कहती हैं, हमने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर अच्छा जीवन देने की बात सोची थी लेकिन हिंसा के बाद हमें गांव से भागना पड़ा। अब राशन ख़रीदने के लिए बेटे को दिहाड़ी मज़दूरी करनी पड़ रही है। बेहतर होता हम सब मर जाते।" इतना कहकर वह भावुक हो जाती हैं।
 
मणिपुर में हिंसा से क़रीब 50 हज़ार लोग विस्थापित हुए थे। गांव में हुई हिंसा को याद करते हुए वह कहती हैं, "हम सब लोग चर्च में प्रार्थना कर रहे थे। बाहर फायरिंग हो रही थी। फिर गांव में हमारे घरों में आग लगा दी गई। एक पल के लिए तो लगा कि वो हमारी आख़िरी रात थी।"
 
नेंगनेई कहती हैं, "मेरे पति ने सेना में रहते हुए देश की सेवा की लेकिन आज हमारा परिवार शरणार्थी बन गया है।"
 
कोई उम्मीद नज़र नहीं आती
मणिपुर की हिंसा से हज़ारों ज़िंदगियां तबाह हुई हैं। प्रभावितों में कुकी और मैतेई दोनों ही शामिल हैं। मैतेई-बहुल इंफ़ाल के अलग-अलग हिस्से में भी सबके अपने ज़ख़्म हैं।
 
आकमपात इलाक़े में 'आइडियल गर्ल्स कॉलेज' में चल रहे राहत शिविर में हमें बताया गया कि वहाँ क़रीब एक हज़ार विस्थापित रह रहे हैं। कॉलेज के क्लास रूम अब घर बन गए हैं। एक ही रूम में दो से चार परिवार इकठ्ठा रहते हैं। कहीं खाना बन रहा है, कहीं बच्चों की पढ़ाई हो रही है।
 
मोरे शहर में जब हिंसा फ़ैली तो लेम्बी चिंगथाम, उनकी मां, दो बेटियों, एक बेटे और बूढ़ी दादी को वहाँ से भागना पड़ा। बचने के लिए वो इसी शिविर में आ गए।
 
12वीं क्लास में स्कूल में टॉप करने वाली लेंबी डॉक्टर बनने के लिए नीट परीक्षा की तैयारी कर रही थीं। उनकी मां शिविरों मे बनाए जाने वाले प्रोडक्ट्स बाहर बेचकर परिवार का खर्च चलाती हैं, लेकिन पढ़ाई आगे नहीं बढ़ सकी। अब वो यहां के बच्चों को पढ़ाती हैं।
 
लेंबी चिंगथाम कहती हैं, "मैं डिप्रेशन में हूँ। मगर डिप्रेशन में मैं सोचती रहती हूँ कि मेरा परिवार यहां कैसे रहेगा?"
 
हिंसा से बँटे परिवार
नेंगनेई चोंग मिज़ोरम में हैं तो उनकी रिश्तेदार और उन्हीं के गांव की रहने वाली बॉईनू हाओकीप मणिपुर के कुकी-बहुल चुराचांदपुर में रह गईं। हिंसा भड़कने के कुछ दिनों बाद ही हज़ारों विस्थापित कुकी यहीं आ गए थे।
 
माता-पिता के साथ किराये के घर मे रह रहीं बॉईनू के पीएचडी का विषय है- 'मणिपुर में हुई जातीय हिंसा और मानसिक तनाव।'
 
उन्होंने बताया, "हमने यहाँ छोटे बिज़नेस शुरू किए हैं। कोई सब्ज़ी बेचता है। कोई दिहाड़ी मज़दूरी करने के लिए जाता है। नौकरियां मिलनी मुश्किल है। मेरा परिवार दूसरों की ज़मीन पर खेती करता है। उससे हमें जो पैसा मिलता है, वही हमारी कमाई है।"
 
उनका नेंगनेई के परिवार से कोई संपर्क नहीं है, मगर उनके माता-पिता फोन पर कभी-कभी उनसे बात करते रहते हैं। राज्य की सीमा के दोनो पार बँट गए इन परिवारों के लिए वक़्त जैसे थम सा गया है।
 
इम्फाल में 'नाम्बोल ए सनोय' कॉलेज में राजनीति विज्ञान की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर और मणिपुर की महिलाओं पर रिसर्च करने वाली श्रीमा निगोम्बाम कहती हैं कि हालात के असर दोनों समुदायों की महिलाओं पर दिख रहे हैं और ये आसानी से नहीं जाने वाला।
 
श्रीमा कहती हैं, "कई औरतों की कमाई बंद हो गई है और ज़्यादातर महिलाएं असुरक्षित महसूस कर रही हैं। उनमें से कई मानसिक बीमारी, घरेलू हिंसा, यौन हिंसा का भी शिकार हुई हैं। राहत शिविरों में तो इन महिलाओ ने निजता पूरी तरह खो दी है। इसे ठीक होने में काफ़ी समय लगेगा। इसे एक दिन में नहीं बदला जा सकता।"
 
करोड़पति से मज़दूर बने लालासोंगेट
60 साल के लालासोंगेट भी पत्नी, तीन बेटों, दो बहू और तीन पोते-पोतियों के साथ मिज़ोरम के राहत शिविर में रह रहे हैं।
 
एक वक़्त था, जब वो मणिपुर में करोड़ों के मकान में रहते थे। आज उनके दोनो बेटे, रॉबर्ट और हैलरी मिज़ोरम में दिहाड़ी मज़दूरी करने पर मजबूर हैं।
 
वो कहते हैं, "हमने इस हिंसा में सब-कुछ गंवा दिया। बेटों के लिए मैंने एयरपोर्ट के पास 80 लाख खर्च कर कपड़ों का शोरूम खोला था। हमारी 40 लाख की गाड़ियां थीं। अब हमारे पास अब कुछ नहीं बचा।"
 
लालासोंगेट कहते हैं, "हम मिज़ोरम में सुरक्षित हैं। यहां की सरकार ने बहुत मदद की है। यंग मिजो एसोसिएशन (वाईएमए) ने हमें कपड़े और खाने-पीने का सामान दिया है। स्थानीय लोग हमारा ध्यान रखते हैं।"
 
मणिपुर के चुराचांदपुर में लालासोंगेट के साले रामथांग 28 साल देश को सैन्य सेवा दे चुके हैं। परिवार से दूर हो चुके रामथांग ने हमें अतीत अच्छे दिनों की तस्वीरें दिखाईं।
 
वो कहते हैं, "मन बहुत दुखी होता है। कभी-कभी मै लालासोंगेट को बोलता हूं कि तुम यहां आ जाओ। जैसा भी है, हम यहां इकठ्ठा रहेंगे। मगर वह कहता है, वो अभी वहीं रहेगा।"
 
पाकिस्तान के ख़िलाफ़ 1971 की जंग लड़ चुके रामथांग को दुख है कि हिंसा के दौरान उनके सारे मेडल खो गए। बदले हालात में वो भी मज़दूरी करने को मजबूर हैं।
 
अब भी दिलों में दूरियां
राज्य और केंद्र की सरकारें दावे करती रहीं कि वो हालात को सामान्य करने की सभी कोशिशें कर रही हैं लेकिन आज भी मणिपुर पटरी पर नहीं है। कई बिखरे परिवार पड़ोसी मिज़ोरम के राहत शिविरों में रहने को मजबूर हैं।
 
इस समय मिज़ोरम में मणिपुर के क़रीब 12 हज़ार शरणार्थियों के अलावा म्यांमार से भागकर आए लगभग 35 हज़ार लोगों ने भी शरण ली हुई है।
 
इन शरणार्थियों का मिजो जनजाति से जातीय रिश्ता होने के कारण स्थानीय लोग इनकी मदद कर रहे हैं। मदद करने वालों में मिज़ोरम के सबसे प्रभावी ईसाई संगठन यंग मिज़ो एसोसिएशन शामिल है।
 
संस्था के वरिष्ठ नेता डॉ. सावमा वै कहते हैं, "हमें पता है कि राहत शिविर के कुछ लोग मज़दूरी करने को मजबूर है क्योंकि एक परिवार की कई तरह की ज़रूरतें होती है। हमने भी लोगों से कहा है कि वो काम कर सकते है। लेकिन मिज़ोरम एक छोटा राज्य है। यहां संसाधन सीमित हैं।"
 
बीबीसी की टीम आइजोल के कई राहत शिविरों में गई, जहां अधिकतर शरणार्थियों ने सरकार की तरफ़ से राशन नहीं मिलने का आरोप लगाया। जैसे रे कॉम्प्लेक्स राहत शिविर में हिंसा पीड़ित कुकी-ज़ोमी जनजाति के कुल 62 परिवार रह रहे है, जिनमें बच्चे और बूढ़े शामिल हैं।
 
यहीं जॉन लाल ज़ू ने बताया कि परिवार का पेट पालने के लिए उन्हें दिहाड़ी मज़दूरी करनी पड़ती है।
 
राशन नहीं मिलने की शिकायत पर मिज़ोरम के मुख्यमंत्री के वित्त एवं योजना सलाहकार तथा स्थानीय विधायक लालवेंचुंगा ने कहा कि उनकी "सरकार नई है और राज्य में सीमित संसाधन है और नई सरकार वित्तीय तौर पर काफ़ी संघर्ष कर रही है। केंद्र में बनी एनडीए की नई सरकार हमारी बात सुने तो इन लोगों की ज़्यादा मदद हो सकती है।"
 
मिज़ोरम प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष वनलाल हमुअका ने कहा, "राज्य में नई सरकार को बने छह महीने हो गए हैं लेकिन अब तक वो केंद्र सरकार को मणिपुर से आए पीड़ितों की सही जानकारी नहीं दे पाई है। भारत सरकार से मदद लेने के लिए हिंसा पीड़ितों की सही शिनाख्त कर उनके नाम और सूची भेजनी होगी।"
 
इस राजनीतिक बहस का 33 साल के जोसेफ लुलुन की ज़िंदगी पर शायद ही असर पड़े।
 
आइजोल में हो रही बारिश के कारण पिछले दो दिनों से मज़दूरी करने नहीं जा पाए। अपनी गर्भवती पत्नी के साथ वो पिछले साल चुराचांदपुर के एक गांव से भागकर मिज़ोरम आए। वो करीब एक साल से राहत शिविर में रह रहे हैं।
 
जोसेफ कहते हैं, "मुझे हर रोज़ कई किलोमीटर पैदल चलकर काम की तलाश में जाना पड़ता है।"
 
मैतेई राहत शिविरों में बिखरे परिवारों की कहानियां
राजधानी इंफ़ाल में कई जगहों पर हमें विस्थापित डिटर्जेंट पाउडर और अगरबत्ती जैसे सामान बेचते नज़र आए। वह राहत शिविरों में सामान बनाते हैं और उनमें से कुछ बाहर जाकर उसे बेचते हैं। उसी से फ़िलहाल उनका गुज़ारा होता है।
 
इनमें कुकी-बहुल चुराचांदपुर से विस्थापित थोनाऊजाम रमेश बाबू भी थे। वह हमें गांव की कुछ महिलाओं के साथ साबुन,अगरबत्तियां और मोमबत्तियां बेचते मिले।
 
उन्होंने बताया, "हमारी मां, बहन, रिश्तेदार शिविर में दिन-रात ये सामान बनाते हैं। फिर हममें से कुछ शहर में जाकर उसे बेचते हैं। इसके अलावा क्या चारा है?"
 
मिज़ोरम में रह रहीं नेंगनेई हों या चुराचांदपूर की बॉईनू, या अपनी शिक्षा के लिए प्रयास कर रहीं लेंबी, मणिपुर की हिंसा और विस्थापन, दोनो समुदायों की महिलाओ पर गंभीर मानसिक और आर्थिक असर डाल रहे हैं।
 
हालात में सुधार नहीं
मणिपुर भाजपा के प्रवक्ता मायंगलाबाम सुरेश ने कहा, "सरकार भी जानती है कि शिविरों में खाना देने से या फिर थोड़े पैसे देने से कोई खुश नहीं होगा। हम ज़िला प्रशासन से हर विस्थापित को ज़्यादा मदद पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं, मगर ऐसे हालात मे अपना घर छोड़ शिविर मे कोई नहीं रहना चाहेगा।"
 
एक साल पहले हिंसा से उजड़े गांव, तोड़े गए घर और बिखरे परिवार। सरकारी प्रयासों, दावों, बेहतर भविष्य की उम्मीदों के बीच फ़िलहाल यही मणिपुर की वास्तविकता है।
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