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Written By WD

ग़ालिब के अशआर

ग़ालिब के अशआर -
Aziz AnsariWD

ग़ालिब, नदीम ए दोस्त से आती है बू ए दोस्त
मशगूल ए हक़ हूँ बन्दगी ए बूतराब में

छोड़ा ना रश्क ने कि तेरे घर का नाम लूँ
हर इक से पूछ्ता हूँ कि जाऊँ किधर को मैं

करते किस मुँह से हो ग़ुरबत की शिकायत ग़ालिब
तुमको बेमेहरी ए यारान ए वतन याद नहीं

दोनों जहान दे के वो समझे ये खुश रहा
याँ आ पड़ी ये शर्म कि तकरार क्या करें

थक-थक के हर मुक़ाम पे दो चार रह गए
तेरा पता ना पाएँ तो लाचार क्या करें

वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत है
कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते है

कभी जो याद भी आता हूँ मैं तो कहते हैं
कि आज बज़्म में कुछ फ़ितना ओ फसाद नहीं

यारब ज़माना मुझको मिटाता है किसलिए
लोह ए जहाँ पे हर्फ ए मुकर्रर नहीं हूँ मैं

सब कहाँ कुछ लाला ओ गुल में नुमायाँ हो गईं
खाक में क्या सूरतें होंगी के पिन्हाँ हो गईं

हो चुकीं ग़ालिब बलाएँ सब तमाम
एक मर्ग ए नागहानी और है

क़ैद में याकूब ने ली गो न युसुफ़ की खबर
लेकिन आँखें रोज़न ए दीवार ए ज़िन्दाँ हो गईं

नीन्द उसकी है, दिमाग उसका है, रातें उसकी हैं
जिसके बाज़ू पर तेरी ज़ुल्फें परेशाँ हो गईं

क़ैद ए हयात ओ बन्द ए ग़म, अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाए क्यूँ

ना लुटता दिन को तो कब रात को यूँ बेखबर सोता
रहा खटका ना चोरी का दुआ देता हूँ रेहज़न को

जब मैकदा छुटा तो फिर अब क्या जगह की क़ैद
मस्जिद हो, मदरसा हो, कोई खानक़ाह हो

सुनते हैं जो बहिश्त की तारीफ सब दुरुस्त
लेकिन खुदा करें वो तेरी जलवा गाह हो

मै से ग़रज़ निशात है किस रूस्याह् को
इक गूना बेखुदी मुझे दिन-रात चाहिए

ज़िन्दगी अपनी जब इस तरहा से गुज़री ग़ालिब
हम भी क्या याद करेंगे के खुदा रखते थे

अपनी गली में दफ़्न न कर मुझको बाद ए क़त्ल
मेरे पते से खल्क़ को क्यूँ तेरा घर मिले

देके खत मुँह देखता है नामाबर
कुछ तो पैग़ाम ए ज़ुबानी और है

हो चुकीं ग़ालिब बलाएँ सब तमाम
एक मर्ग ए नागहानी और है

ग़ालिब की ग़ज़लें

कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती

आगे आती थी हाल ए दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती

है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वरना क्या बात कर नहीं आती

जानता हूँ सवाब ए ताअतोज़ोह्द
पर तबीयत इधर नहीं आती

हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती

ज़ाहिर है के घबरा के न भागेंगे नकीरैन
हाँ, मुँह से मगर बादा ए दोशीना की बू आए

पिन्हाँ था दाम ए सख्त क़रीब आशयान के
उड़ने न पाए थे कि गिरफ़्तार हम हुए

छोड़ी असद न हमने गदाई में दिल्लगी
साइल हुए तो आशिक़ ए एहलेकरम हुए

साए की तरह साथ फिरे सर्व व सनोबर
तू इस क़द ए दिलकश से जो गुलज़ार में आए

देखिए पाते हैं उश्शाक़ बुतों से क्या फ़ैज़
इक बिरहमन ने कहा है के ये साल अच्छा है

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है

मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी यारब कई दिए होते

पिलादे ओक से साक़ी जो मुँह से नफरत है
प्याला गर नहीं देता न दे शराब तो दे

बाज़ीचा ए इतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब ओ रोज़ तमाशा मेरे आगे

इक खेल है औरंग ए सुलेमाँ मेरे नज़दीक
इक बात है एजाज़े मसीहा मेरे आगे

सफीना जब के किनारे पे आ लगा ग़ालिब
ख़ुदा से क्या सितम व जोर ए नाख़ुदा कहिए

ना सुनो गर बुरा कहे कोई
ना कहो गर बुरा करे कोई

बात पर वाँ ज़ुबान कटती है
वो कहें और सुना करे कोई

रोक दो गर ग़लत चले कोई
ढाँक लो, गर ख़ता करे कोई

क्या किया ख़िज़्र ने सिकन्दर से
अब किसे रेहनुमा करे कोई

जब तवक़्क़ो ही उठ गई ग़ालिब
क्यूँ किसी का गिला करे कोई

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी िक हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले

भरम खुल जाए ज़ालिम तेरी क़ामत की दराज़ी का
अगर इस तुर्रा ए पुर्पेचोख़म का पेचोख़म निकले

मोहब्ब्त में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख के जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा ग़ालिब और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले

वाइज़ न तुम पियो न किसी को पिला सको
क्या बात है तुम्हारी शराब ए तहूर की

क्या फ़र्ज़ है के सबको मिले एक सा जवाब
आओ न हम भी सैर करें कोहेतूर की

गरमी सही कलाम में लेकिन न इस क़दर
की जिससे बात उसने शिकायत ज़रूर की

ग़ालिब गर इस सफ़र में मुझे साथ ले चलें
हज का सवाब नज़्र करूँगा हुज़ूर की।