उनके लिए कश्मीर के मायने नदी-नाले, पहाड़ और झीलें हैं
-सुरेश एस डुग्गर
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उन मासूम आंखों ने अभी तक कश्मीर को नहीं देखा। नतीजतन उनके लिए कश्मीर के मायने नदी-नाले पहाड़ और झीलें हैं, जहां कभी चिलचिलाती धूप में गर्मियों का सामना नहीं करना पड़ता। कश्मीर उनके लिए ख्बाबों का स्वर्ग है जिसको कभी देखा तो नहीं लेकिन उसका व्याख्यान उनके अधरों पर इस तरह से है, जैसे वे अभी वहां से निकलकर आए हों।
ये मासूम आंखें हैं उन कश्मीरी विस्थापित बच्चों की जिन्होंने या तो पलायन के बाद होश संभाला या फिर पलायन के उपरांत राज्य तथा देश के अन्य भागों में जन्म लिया। इन कश्मीरी विस्थापितों के बच्चों की बदनसीबी यह है कि ये हैं तो कश्मीर निवासी लेकिन कश्मीर से वाकफियत मात्र बंद कमरे में ही हुई है जिसके दौरान उन्हें बस इतनी ही जानकारी मिल पाती है कि कश्मीर के मायने खूबसूरत बर्फ से ढंके पहाड़, विश्वप्रसिद्ध डल झील, नदी-नाले और झरने हैं।
हालांकि उनके दिलोदिमाग में कश्मीर की यह छवि बनाने में उनके माता-पिता को बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है, क्योंकि इन मासूम बच्चों की निगाह में तो सभी पहाड़, झीलें और नदी-नाले व झरने एक समान होते हैं और उनके अभिभावकों के लिए कठिनाई यह थी कि वे कश्मीर की खूबसूरती तथा अन्य पहाड़ी रमणीक स्थलों की खूबसूरती में अंतर उन्हें कैसे बतलाएं?
‘अंकल, कश्मीर के पहाड़ बहुत ही खूबसूरत हैं और जो सामने पहाड़ी श्रृंखला दिख रही है न वह उनके मुकाबले में कुछ भी नहीं है,’ पुरखू के विस्थापित शिविर में पैदा हुआ समीर कौल मासूमियत के साथ उत्तर देता है, जब उससे कश्मीर के बारे में 'वेबदुनिया' ने पूछा था तब उसने सामने पत्नीटाप के पहाड़ों की ओर इशारा किया था।
आश्चर्य की बात यह है कि इन मासूम बच्चों को, जिनका जन्म पलायन की त्रासदी के बाद हुआ और जिन्होंने पलायन के उपरांत शरणार्थी शिविरों में होश संभाला, कश्मीर की भौगोलिक परिस्थितियों से अवगत करवाने का क्रम प्रतिदिन शाम मुहल्ले के एक कमरे में किसी बुजुर्ग के दिशा-निर्देशन में चलता है।
और रोचक तथ्य यह है कि चारदीवारी के भीतर उन्हें आंखें बंद कर उन सभी वस्तुओं की कल्पना करने के लिए कहा जाता है जिनके प्रति अभी-अभी उनके बुजुर्गों ने उन्हें जानकारी दी है। ‘हमें यह सब इसलिए याद रखना पड़ता है, क्योंकि हमें अपने घर वापस लौटना है और अगर पहले से ही जानकारी होगी तो हम अपनी मातृभूमि को पहचान सकेंगें,’ सुनीता रैना का मत था, जो मिश्रीवाला कैम्प में रहती है और वहीं पर बड़ी हुई।
शुरू-शुरू में उसे भी कश्मीर के मायने समझने में उसी तरह कठिनाई हुई थी जिस तरह से अन्य विस्थापित बच्चों को हुई थी। हालांकि वह इस दुविधा में है कि वह अपने आपको कश्मीरी क्यों कहे, क्योंकि उसने जब से होश संभाला है, कश्मीर को देखा तक नहीं है और न ही उन बच्चों ने जो अन्य स्थानों पर पैदा हुए हैं।
इसी प्रकार की परिस्थितियों से दो-चार कश्मीरी विस्थापितों के वे बुजुर्ग भी हो रहे हैं जिनके लिए इन बच्चों के दिलोदिमाग पर कश्मीर की तस्वीर छापना उतना ही कठिन है जितनी कठिनाई से ये बच्चे उस स्थान के प्रति जानकारी और तस्वीर को अपने दिमाग व गले में उतारने के प्रयास करते हैं जिसे कभी सपने में भी नहीं देखा है।
लेकिन सारे संदर्भ में आश्चर्य की बात यह है कि कश्मीर के प्रति जानकारी देने वाले कश्मीरी पंडित बुजुर्ग अपनी भावी पीढ़ियों को उन पड़ोसियों के बारे में कोई अधिक जानकारी नहीं देते हैं जिनके प्रति अब वे आरोप लगाने से नहीं चूकते कि उनके पलायन में इन पड़ोसियों ने भी ‘मदद’ की थी।
स्थिति यह है कि पलायन के बाद जम्मू तथा देश के अन्य भागों में जन्मे तथा बड़े हो रहे कश्मीरी विस्थापितों के बच्चे इस सच्चाई से अवगत नहीं हैं कि उनके पड़ोसी मुस्लिम थे और अगर कभी वे वापस लौटेंगे तो भी उनके पड़ोसी, जो सभी प्रकार के दुख-दर्द में हमदर्द होते हैं, मुस्लिम ही होंगे।
अपने बच्चों को इन मुस्लिम पड़ोसियों के प्रति जानकारी न देने के पीछे का क्या कारण है, कोई भी विस्थापित स्पष्ट रूप से कुछ बोलने को तैयार नहीं लेकिन इतना अवश्य है कि वे अपने बच्चों को मिल-जुलकर रहने वाले सांस्कृतिक माहौल की जानकारी नहीं दे रहे हैं, जो सिर्फ बच्चों के दिलोदिमाग पर ही कुप्रभाव नहीं डाल रही है बल्कि उनके दिलों में नफरत के बीज भी बो रही है।
इससे और आश्चर्य की बात क्या होगी कि 6 वर्षीय अभिषेक बट अपनी मासूमभरी आंखें इस संवाददाता की ओर कर पूछता है : ‘अंकल ये मुसलमान क्या होता है?' और इसका कोई उत्तर नहीं बन पड़ता है।