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Written By WD

कृष्ण उपासिका मीरा

मीराबाई
- डॉ. चंद्रिका प्रसाद शर्मा

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जब मीरा बहुत छोटी थीं तो उनकी कोठी में एक साधु पधारे। साधु कृष्ण भक्त थे। उनके पास बालकृष्ण की एक अत्यंत सुंदर मूर्ति थी। वे ब्रह्ममुहूर्त में उठ जाते थे और नित्य कर्मों से निवृत्त होकर पूजा के लिए आसनी पर बैठ जाते थे। सामने बालकृष्ण की मूर्ति विराजमान रहती थी।

वे मूर्ति को शुद्ध जल से स्नान कराते थे। नित्य नवीन वस्त्र पहनाते थे। सुगंधित पुष्पों की माला पहनाते थे और मस्तक पर चंदन का लेप करते थे। तदुपरांत पूजन प्रारंभ करते थे। मीरानित्य दत्तचित्त होकर यह सब देखा करती थीं।

जब साधु प्रस्थान करने वाले थे, तो मीरा ने साधु से उनकी मूर्ति माँगी, किंतु साधु ने नकार दिया। मीरा रोती-रोती माँ के पास गई और साधु से मूर्ति दिलाने को कहा। माँ ने मीरा को समझाया कि बच्चे मूर्ति की पूजा नहीं कर पाते। इसलिए तुमको मूर्ति नहीं दिलाऊँगी। मीरा सिसक-सिसककर रोती रही।

साधु वहाँ से चले गए, किंतु उनको एक रात को स्वप्न हुआ कि इस मूर्ति को तुम मीरा को दे आओ। वही इसकी अधिकारी पात्र है। साधु चिंता में पड़ गया और मीरा के घर लौट गया। उसने मीरा को वह मूर्ति दे दी। उसी दिन से मीरा उस मूर्ति की पूजा करने लगी। उसकी इस भक्ति भावना पर सभी को आश्चर्य हुआ।

किशोरी मीरा जब विवाह के योग्य हो गई। उस रूपवती राजकुमार के अनुरूप वर खोजा गया। उनका विवाह चित्तौड़ राज्य के महाराजा राणा साँगा के ज्येष्ठ पुत्र कुमार भोजराज के साथ संपन्न हुआ। उन दिनों चित्तौड़ राज्य अपने वैभव और ऐश्वर्य में पूरे राजस्‍थान में विख्यात था। यहाँ की झीलों व तालाबों की शोभा अद्वितीय थी। यहाँ का चित्तौड़गढ़ समूचे देश में प्रसिद्ध था। यह जौहर की पावन भूमि के नाम से जाना जाता है।

इस पावन धरा पर हजारों माताओं ने तिल-तिल जलकर अपना जौहर दिखाया था। इस गढ़ के फाटक इतने ऊँचे हैं कि हाथी पर सवार होकर राजा-महाराजा इसके अंदर तक आसानी से चले जाते थे, अब भ चले जाते हैं। चितौड़गढ़ विश्व के मा‍नचित्र पर अपना विशेष स्थान बनाए है।

दुल्हन मीरा का स्वागत
उदयपुर आज खूब सजाया गया था। प्रधानमहल के सामने कहारों ने डोला रख दिया। शहनाइयाँ बजने लगीं, बाजे बजने लगे, नृत्य होने लगे। रानी मीरा की परछन एक-एक कर ग्यारह महारानियों ने यिका। सोने के सिक्के और अशर्फियाँ लुटाई जा रही थीं। उत्सव की शोभा अवर्णनीय थी।

रानी मीरा डोले से बाहर उतारी गईं। पाँच ब्राह्मण कन्याएँ उनको महल के अंदर ले गईं। उनके पीछे-पीछे स्त्रियाँ गीत गा रही थीं। महल के आँगन में सूप में घृत का दीपक जल रहा था। चारों ओर झालरें सजी हुई थीं। बीनबजाने वाले द्वार पर गीत गा रहे थे।

दुल्हन की मुँहदिखाई की रस्म पूरी हुई। महारानियों ने भेंट में हीरों के हार प्रदान किए। मीरा ने कुल की रीति के अनुसार पैलगी की और आशीर्वाद प्राप्त किया। चारों ओर नई मीरा रानी की शोभा की चर्चा हो रही थी। राणा परिवार की यह परंपरा रही है कि परिवार में जब कोई नई रानी ब्राह कर आती थी तो उसे कुल देवता की पूजा करने को कहा जाता था। उदयपुर की एक पहाड़ी पर एक भव्य मंदिर में कुल देवता की स्थापना है। मंदिर के ऊपर स्वर्ण कलश रखा है। राणाकुल की पताका उस पर फहराया करती है।


रानी मीरा एक सोने के सितारों से जड़े हुए डोले में बैठाई गईं। अन्य कुल की रानियाँ भी डोलियों में आसीन हो गईं। फौज की एक छोटी टुकड़ी पीछे-पीछे चल रही थी। सबसे आगे शहनाइयाँ बज रही थीं। अन्य विभिन्न प्रकार के बाजे बज रहे थे। मालियों का समूह पुष्पों की बौछार कर रहा था।

  मीरा जब छोटी बालिका थी तो अपनी माता के साथ पड़ोस में एक विवाह देखने गई। विवाह में वर-वधु की भाँवरें हो रही थीं। तभी मीरा ने अपनी माता से पूछा - माँ, मेरा विवाह किसके साथ होगा? माँ ने कहा- कृष्ण जी के साथ।      
मंदिर के निकट पहुँचकर यह उत्सव-जुलूस रुक गया। पूजन-अर्चन की व्यवस्था वहाँ पहले से ही थी। आचार्यगण मंत्रों का पाठ कर रहे थे। विधि-विधान के साथ कुल-देव की पूजा हुई। रानी मीरा ने मंदिर के सात फेरे किए।

ब्राह्मण कन्याओं को नए वस्त्र, स्वर्णाभूषण तथा अशर्फियाँ प्रदान की गईं। उन्हें सात प्रकार के मिष्ठान्न तथा सात प्रकार के मेवे जिवाए गए। महिलाएँ गीत गा रही थीं। कुल देवता का जयकारा लग रहा था।

विवाह के तीन-चार वर्ष व्यतीत होने पर मीरा के पति कुमार भोजराज का आ‍कस्मिक निधन हो गया। सारा राज्य शोक में डूब गया। मीरा तो दुख सागर में ऐसी डूबी कि सुधि ही भूल गई और विक्षिप्त सी हो गई। न खाने की सुध, न पीने की। चिंता के समुद्र में डूबी हुई वह सब कुछ भूल गई।

मीरा घर के बाहर निकल जाती और मंदिरों में बैठकर भजन गाया करती। गिरधर गोपाल की मूर्ति के सामने घंटों नाजा करती, गीत गाया करती और उन्हें अपना पति मान बैठी।

बचपन की घटना
मीरा जब छोटी बालिका थी तो अपनी माता के साथ पड़ोस में एक विवाह देखने गई। विवाह में वर-वधु की भाँवरें हो रही थीं। तभी मीरा ने अपनी माता से पूछा - माँ, मेरा विवाह किसके साथ होगा? माँ ने कहा- कृष्जी के साथ।

बचपन की यह घटना मीरा के हृदय में बैठी थी। तभी से उसने गिरधर गोपाल को अपना पति मान लिया था और लौकिक पति की मृत्यु के बाद वह अलौकिक पति भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा के सामने नाचने-गाने लगी। साधु-संतों का साथ उसे बहुत अच्छा लगता था। उनके प्रवचन वह मन लगाकर सुनती थी।

ससुराल वालों की नाराजगी
मीरा के इस आचरण से उसके ससुराल वाले बहुत नाराज थे। एक राजवंश की कुल-वधु साधु-संतों के साथ घूमे और मंदिरों में भजन-कीर्तन करे तथा नृत्य करे यह बात उन्हें अच्छी न लगती थी। परिवार के जन मीरा से छुट्‍टी पाना चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि राणाकुल की वधु इस प्रकार आचरण करे। वे मीरा का जीवन समाप्त करना चाहते थे।

मीरा को समाप्त करने के लिए मीरा के देवर राणा विक्रमाजीत ने विष का भरा प्याला मीरा को पीने के लिए भेजा। मीरा से यह बताया गया कि इस प्याले में सुगंधित मधुर रस है।

मीरा ने प्याले को उठाया और एक साँस में सारा विष पी गई, उसके चेहरे पर विष का तनिक भी प्रभाव न दिखाई दिया। वह विष मीरा के लिए अमृत हो गया। यह सूचना जब राणा को दी गई तो उन्हें बड़ी निराशा हुई। कहाँ उन्होंने मीरा को मारने के लिए विष-प्याला भेजा था और कहाँ वह अमृत का हो गया।

देवर राणा विक्रमाजीत ने जहरीला नाग भेजा मीरा को काल के कराल गाल में डालने के लिए मीरा के देवर राणा विक्रमाजीत ने एक नया उपाय सोचा। उन्होंने सपेरे से एक काला जहरीला सर्प मँगवाया। उस जहरीले नाग को राणा विक्रमाजीत ने अपनी दीवान महाजन ‍वीजावर्गी द्वारा एक सजे हुए पिटारे में रखवाकर मीरा के पास भेजा।

दीवान वीजावर्गी पिटारा लेकर मीरा के पास पहुँचा। पिटारा को मीरा के समक्ष रखते हुए उसने कहा- यह पिटारा भेंटस्वरूप राणा ने आपके पास भेजा है।

मीरा सब कुछ समझ गई थीं। उन्होंने मुस्कुराते हुए उस पिटारे को खोला। उन्होंने क्या देखा कि पिटारे के भीतर एक सुगंधित तुलसी की माला रखी है। उन्होंने माला को उठाकर माथे से लगाया और चूमकर अपने गले में डाल लिया। राणा का यह दाँव भी खाली गया। माला पहनकर मीरा गिरधर गोपाल के मंदिर में गईं और कीर्तन करने लगीं।