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Written By ND

अलग रास्ते पर चलने वाला कवि

पुस्तक समीक्षा

Book review | अलग रास्ते पर चलने वाला कवि
मधुसूदन आनन्द
ND
'स्याही ताल' वीरेन डंगवाल का तीसरा कविता संग्रह है। इससे पहले 'इसी दुनिया में' (1991) और 'दुश्चक्र में स्रष्टा' (2002) उनके दो कविता संग्रह आए और पर्याप्त प्रशंसा पाई। उनका ताजा संग्रह सात साल बाद आया है जो बताता है कि डंगवाल का अपनी कविता के साथ संबंध बेहद धैर्य, संयम और परफेक्शन वाला होना चाहिए।

डंगवाल की कविता में आज का समय अपनी समस्त ध्वनियों, छवियों और मुद्राओं के साथ उपस्थित है और उनकी सफलता इस बात में है कि वे तमाम प्रतिकूलताओं और संकटों के बीच भी जीवन की लय ढूँढ लेते हैं। इस तरह इस बुरे समय में भी वे बुनियादी रूप से जीवन के कवि बन जाते हैं। उनकी कविता की कोई महत्वाकांक्षा नहीं है और जब वह संग्रह की पहली ही कविता 'कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा' में कहते हैं: ' दरअसल मैंने तो पकड़ा ही एक अलग रास्ता/ वह छोटा नहीं था न आसान/ फकत फितूर जैसा एक पक्का यकीन/ एक अलग रास्ता पकड़ा मैंने,' तो उसका मतलब जीवन को उसकी समस्त साधारणता में देखने, समझने और उसे बिना किसी नाटकीयता के पूरी ईमानदारी से व्यक्त करने से होता है।

वैसे भी कौन सा ऐसा महत्वपूर्ण रचनाकार है जो अलग रास्ता नहीं पकड़ता। महत्वपूर्ण यह होता है कि उस काव्य अनुभव से गुजरने के बाद वह अंततः खोज कर क्या लाता है और वह खोज मनुष्यता को किस तरह समृद्ध करती है। यह कविता उत्तर भारतीय समाज में तेजी से बेरोजगार होती जा रही उन बेसहारा स्त्रियों के दुःख, शोषण, मामूली से सपनों और सबसे बढ़कर जिजीविषा को हमारे सामने लाती है, जिन्हें सफेदपोश अपराधी पुरुषों ने अपने जैसा बना लिया है और वह सुरक्षा कवच दिया है कि बस्ती का कोई आदमी उनकी तरफ आँख उठाकर देखने की भी हिम्मत नहीं कर पाता।

एक कछार में जहाँ हरी साब्जियाँ पैदा हो रही हैं और जिनकी अपनी शोभा है, पिछड़ी जाति की एक विधवा कच्ची (शराब) खींचने को विवश है। उसका एक बेटा मार दिया गया है और दूसरा जेल में है। बची 14 बरस की रुकुमिनी जिस पर सबकी लोलुप नजर है। चौदह बरस की रुकुमिनी और उसकी बूढ़ी माँ जानती हैं कि 'सड़ते हुए जल में मलाई सा उतराने को उद्यत/ काई की हरी-सुनहरी परत सरीखा भविष्य भी/ क्या तमाशा है।'

उसकी माँ का दिल भी उपले की तरह सुलगता रहता है और वह हर पल शरीर और आत्मा को गला देने वाले अपने दुःख को अच्छी तरह जानती भी है लेकिन वह इस स्थिति को बदल भी नहीं सकती। कवि उसके दुःख को अनेक अदेखे सुदूर अनाम लोगों की अश्रु विगलित सहानुभूति से जोड़ देता है और उसे यहाँ आकर कहना पड़ता है कि 'मनुष्यता उन्हीं की प्रतीक्षा का खामोश गीत गाती है।' अनाम साधारण लोगों पर कवि का यह भरोसा कविता को असाधारण बना देता है।

फीके पड़ते आकाश के अकेलेपन में टिमटिमाते भोर के तारे के तले कछार में फैला नरम हरा कच्चा संसार अपनी संरचना और सौंदर्य से भी इस कविता को समृद्ध करता है। फिर इसमें स्त्री अपने दुःखों के साथ आती है मगर वह रोती नहीं सुलगती है और अंत में आती है प्रतीक्षा, जो इस कविता को यादगार बना देती है।

यह कविता बड़े अर्थों में एक शाश्वत संसार से कछार की दुनिया और कछार की दुनिया से एक असहाय स्त्री की दुनिया में जिस खूबी के साथ प्रवेश करती है वह उसकी सबसे बड़ी शक्ति है। और दिलचस्प यह है कि कवि को इसे संभव करने के लिए कोई अलग से प्रयत्न नहीं करना पड़ता। जैसे कवि एक दुनिया से दूसरी और दूसरी से तीसरी में अत्यंत सहजता से हमें ले जा रहा हो और फिर भी उसमें कोई दर्प क्या उसका बोध तक न हो।

डंगवाल की कविता में कहीं नन्हा पीला पहाड़ी फूल है, कहीं वसंत के विनम्र कांटे हैं, कहीं पुराना तोता है, कहीं बकरियाँ हैं, कहीं साइकिल है, कहीं रद्दी बेचने वाला लड़का है, पिता और उनका शव है तो गंगा भी है और इलहाबाद-कानपुर भी हैं और नैनीताल में दीवाली भी है। सबसे बढ़कर जो चीज है वह अपने संसार के प्रति गहन आत्मीयता है। प्रकृति इन कविताओं में कुछ अलग तरह से आती है। संग्रह की कुछ कविताएँ तो बार-बार पढ़े जाने को विवश करती हैं।

पुस्तक : स्याही ताल (कविता संग्रह)
कवि : वीरेन डंगवाल का कविता-संग्रह
प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद
मूल्य : 100 रुपए