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Written By WD

अँगरेजी की रँगरेजी

अँगरेजी की रँगरेजी -
सबको पता है कि दिल्ली देश का दिल है। दिल्लीवालों को पता है कि दिल्ली का दिल कनॉट प्लेस है। दिल्ली के इस दिल उर्फ कनॉट प्लेस में ही इस कथा के दो धड़कते, जवान और मंगेतर दिल आज मिलने वाले हैं। यह उन्हीं दोनों की एक कथा है।      



ज्योति ने इंटर पास तो खैर रैगुलर ही किया था, मगर सयानी हो जाने की सजा के तहत बी.ए. उसे प्राइवेट करना पड़ा था और फिर नौकरी का तो सवाल ही नहीं।

वह अब चौबीसवें में लग चुकी थी। उसे इस बात का बखूबी अहसास था कि फिल्मी हिसाब के मुताबिक तो सोलह की उम्र में ही दिल का जो होना-हुआन होता है, वह हो लेता है। इस प्रकार आठ साल तो वह ऑलरेडी पिछड़ चुकी थी। वह दीवार की आड़ में छिपकली की तरह चिपककर माँ-बाप की बातें लगातार सुना करती थी कि उसके बारे में क्या कुछ हो रहा है, मगर प्राय: निराशा ही उसे हाथ लगती थी।

पिछले पाँच सालों से घर में एक टी.वी. अलग से आ बैठा था जो दिन-रात ज्योति को समझाया करता था कि किसी लड़के या आदमी में प्यार करने की क्या-क्या योग्यताएँ होनी चाहिए, प्रेम किस-किस तरह के बलिदानों की माँग करता है और जब दो दिल मिल जाते हैं तो दुनिया कितनी खुशगवार हो उठती है। न केवल इतना बल्कि टी.वी. के पर्दे से ही ज्योति ने यह भी जाना कि कौन से साबुन से नहाने पर प्यार शुरू हो जाता है, त्वचा की सुरक्षा के लिए सबसे मजबूत प्रहरी क्रीम कौन-सी है और किस साड़ी को पहनकर, चलते राहगीर को रोका जा सकता है। मगर पिता के इस घर रूपी नर्क में तो कुछ भी संभव नहीं था। ज्योति सो‍चती कि उसका जीवन तो शादी के बाद ही सुधरेगा।

पिया-दर्शन का संदेसवा ज्योति को माँ से‍‍ मिला था। अरे लॉटरी! वह झूम उठी थी। माँ-बाप के साथ वह हनुमान मंदिर में तो एक-दो बार गई थी, मगर अपनी मनमर्जी से कनॉट प्लेस घूमना उसे नसीब नहीं हुआ था। बस से आते-जाते उसने कई बार रीगल देखा ही था, सो माँ को उसने आश्वस्त कर दिया कि वह ठीक-ठाक पहुँच जाएगी। होश संभालने से लेकर अब तक‍ जितने किस्म की साड़ियाँ भी उसके मन भाई थीं, उनकी भी लिस्ट उसने तय कर ली थी।

नेल-पॉलिश से लगाकर सेंट तक के सोलह श्रंगारों के बाद जब ज्योति चलने को तैयार हुई तो पाया कि 12 वर्षीय उसका छोटा भाई भी तैयार है और माँ उसे समझा रही है - 'दीदी का ख्याल रखना, हैं!.. दीदी को अकेला छोड़कर कहीं नहीं जाना, हैं!' ज्योति ने पहली बार महसूस किया कि 'खून का घूँट पीकर रह जाना' मुहावरे का जन्म ‍कैसे हुआ होगा!

लड़का कुछ पहले ही पहुँच गया था और इंतजार शीर्षक से संबंधित त‍माम फिल्मी गाने उसकी जुबान पर अँगड़ाई ले रहे थे। ज्योति के साथ टँके उसके भाई को देखकर लड़के का मूड बिगड़ा मगर क्या किया जा सकता था? उन्होंने 'हैलो...!' का आदान-प्रदान किया और बच्चे ने 'जीजाजी, नमस्ते! का कटु स्वर परोसा। ज्योति शरमाकर इधर-उधर देखने लगी और अंतत: उसने अपनी नजर 'पैंतीस-पैंतीस!!' के शोर के तहत फुटपाथ पर बिकती कमीजों पर टिका दी। फिर उन्होंने सड़क पार की और वे कनॉट प्लेस के इनर सर्किल में आ गए।
अगले ढाई घंटे उन्होंने काफी मजे में काटे। भाई को उन्होंने कभी आईसक्रीम के बहाने, कभी बड़े गुब्बारे के बहाने, कभी वीडियो गेम्स खेल आने के बहाने और कभी अपने लिए पान वगैरह मँगाने के बहाने काफी देर तक अपने बीच से अनुपस्थित रखा। आरंभिक झिझक को उन्होंने धता बता दी थी और जल्दी ही एक-दूसरे की वे प्रशंसा करने लगे थे।

पिता के आदेशानुसार लड़के को कम से कम 6 साड़ियाँ खरीदनी थीं, मगर ज्योति की पसंद की तीन सा‍ड़ियों में ही उसे अपनी जेब से भी कुछ पैसे मिलाने पड़ गए। अब उसके पास बहुत थोड़े-से पैसे बचे थे, जिनके होते वह किसी अच्छे रेस्तराँ में भी नहीं बैठ सकता था।

'आओ, एक-एक आइसक्रीम लेते हैं।' कहते हुए लड़का एक दुकान में घुसा और बोर्ड पर टँगी कीमत को देखकर चकरा गया। इक्कीस रुपए में मात्र 3 आइसक्रीम लेकर वह ज्योति के पास आया और अपनी आइसक्रीम का लहू पीने लगा।

वे घूमते रहे। ज्योति और-और खुलती गई। शो-केस में सजी और मूर्तियों द्वारा पहनी साड़ियों पर भी उसका मन था। अपने सपन-घर को भी उसने पति को सविस्तार समझाया, उसने शो-पीस पसंद किए, ड्राइंगरूम के फर्नीचर और खास तौर से ड्रेसिंग टेबल और डबल बेड पर उसने ध्यान दिया, जेवरात की दुकान के सामने से हटने का तो ज्योति ने नाम ही नहीं लिया। सैंडिल, पर्स तौलिया, चादर.. उसे मानो पूरे कनॉट प्लेस को खरीदने की इच्छा व्यक्त करनी ही थी।

ज्योति के इन तमाम प्रस्तावों को झूठ-मूठ मान लेने के लिए लड़के ने मन में काफी जोर लगाया भी मगर 'हाँ' उसके मुँह से नहीं फूटी। वह झेंपा। फिर कुछ देर तक वह मन ही मन खुंदक खाता रहा। और आखिरकार वह खुद भी इन सपनों में मजा लेने लगा।

फिर वे तीनों हनुमान मंदिर आ गए और सिंदूरी तिलक के साथ वापस लौटे। बेहद फिल्मी अंदाज में लड़के ने ज्योति से पूछा - 'सच-सच बताना, तुमने ऊपरवाले से क्या माँगा?'
'सच बताऊँ? सच-सच?'
कहकर ज्योति ने आँखें नचाईं। 'मैंने प्रार्थना की है कि हे ईश्वर! मैंने आज जो-जो भी सामान चाहा है, वह सारा मुझे दे देना!''
ज्योति ने एक बार फिर से आँखें मूँदकर हाथ जोड़े।
'और... मैंने भी पता है, यही माँगा है कि जो तुम्हें चाहिए, वह सब-कुछ हमें मिल जाए।'
किसी पके हुए गृहस्थ जोड़े की तरह वे सामान की चिंता में घिरे थे।
'अच्छा!''उन दोनों ने फीकी मुस्कुराहट से विदा ली और अपनी बस पकड़ने के लिए विपरीत दिशा में चल पड़े।
इस प्रकार देश के दिल दिल्ली और दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस में मंगेतर मिले और उनका दिल बाजार के सामान से ऐसा ठूँस-ठूँसकर भरा गया कि प्रेम जैसी फालतू चीज के लिए वहाँ कोई जगह ही नहीं बची।

साभार : समकालीन साहित्य समाचार