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Written By WD

दृढ़ीकरण संस्कार

दृढ़ीकरण संस्कार
जिस तरह स्नान संस्कार में हम जल और पवित्रात्मा से पुनः जन्म लेते हैं, उसी तरह दृढ़ीकरण संस्कार में पवित्रात्मा हमें आत्मिक बाल्यावस्था से आत्मिक युवावस्था की ओर कृपा के जीवन में बढ़ने की शक्ति देता है। अपने विश्वास की स्वतंत्र घोषणा और निडरता से इसे मानने का साहस देता है।

सन्‌ 1906 में इंग्लैंड के दक्षिण सफोर्ड के एक सार्वजनिक कार्यालय के चुनाव के लिए हिलारे बेलॉक नामक एक नौजवान पत्रकार भी उम्मीदवार था।

एक टोरी उम्मीदवार भी खड़ा था जो पिछले चुनाव में 1,227 बहुमत से विजयी हुआ था। अपने दिए गए भाषण में बेलॉक ने स्पष्ट शब्दों में स्थानीय लिबरल पार्टी से कहा था कि, 'मेरा काथलिक धर्म, राजनीति से भी कहीं अधिक मेरे लिए महत्वपूर्ण है।' और यह कि यदि वह चुना गया तो अपने धर्म को प्रथम स्थान देगा। उन्होंने सर्वसम्मति से उसे अपना उम्मीदवार चुन लिया था, परन्तु वे यह कहते रहे कि वह काथलिक है और जन्म से फ्रांस का नागरिक है। टोरी का नारा था, 'एक फ्रांसीसी और काथलिक को वोट मत दो।'

पुरोहित वर्ग ने भी बेलॉक को चेतावनी दी कि वह धर्म को चुनाव के बीच न लाए, क्योंकि यह उसके मार्ग में बाधक होगा। 'बेहतर होगा कि उस विषय में कुछ भी न कहो।' उसने गर्व से उनकी सलाह को इनकार कर दिया। खड़े होकर उसने उस अपार जनसमूह को संबोधित करते हुए कहा, 'महानुभावों, मैं एक काथलिक हूँ, जहाँ तक संभव होता है, मैं मिस्सा बलिदान में प्रतिदिन शामिल होता हूँ। (अपने पॉकेट से रोजरी निकालते हुए) यह माला विनती यथासंभव मैं प्रतिदिन बोलता हूँ।

यदि आप मुझे केवल मेरे धर्म के कारण अपना नेता चुनने से इनकार करते हैं तो मैं ईश्वर का बहुत आभारी हूँ कि उसने मुझे आप लोगों का प्रतिनिधि बनाकर अपमानित नहीं होने दिया।' वहाँ आश्चर्यजनक सन्नाटा छा गया। तुरंत बाद हजारों ने करतल ध्वनि की। जब चुनाव का परिणाम आया तो बेलॉक ने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी को 852 के बहुमत से पराजित किया।

एक अच्छा स्वस्थ राष्ट्र, जनवादी व्यक्तित्व वाले मनुष्यों में नैतिक साहस उत्पन्न करता है। निम्नलिखित कहानी भी एक सच्ची घटना है और उपरोक्त घटना से बिल्कुल विरोधात्मक है।

बीसवीं कांग्रेस परिषद में ख्रुश्चेव ने, पहले नेता स्तालिन का बड़ा ही कटुतापूर्वक परित्याग किया। कहानी यह है कि उसके भाषण के बाद, उसके पास श्रोतागणों में से किसी के द्वारा 'टिप्पणी' भेजी गई। ख्रुश्चेव ने जोर से वह संदेश पत्र पढ़ा- 'यहाँ कुछ कॉमरेड प्रतिनिधि जानना चाहते हैं कि 'मैं क्या कर रहा था, जब स्तालिन राज्य के विरुद्ध अपराध किए जा रहा था।?'

खामोशी छाई रही। 'क्या प्रश्नकर्ता कृपया खड़ा होगा?' ख्रुश्चेव ने कहा। कोई नहीं उठा। ख्रुश्चेव ने दोबारा प्रश्नकर्ता को उठने का आग्रह किया। फिर भी कोई नहीं उठा। ख्रुश्चेव ने कहा- 'उस सज्जन पुरुष ने वही बात दोहराई है, जो मैं किया करता था, जब स्तालिन शक्ति में था।'

अकसर धर्माध्यक्ष ही दृढ़ीकरण संस्कार देते हैं। (किसी विशेष परिस्थिति में पुरोहित को भी इस संस्कार को देने की आज्ञा दी जाती है।)... जब धर्माध्यक्ष (या पुरोहित) इस संस्कार को देते हैं, वे अपना हाथ इस संस्कार को ग्रहण करने वालों पर फैलाते हैं, प्रार्थना करते हैं कि वे पवित्रात्मा को ग्रहण करें और अपना हाथ प्रत्येक व्यक्ति के सिर पर रखते हुए पवित्र तेल से कपाल पर क्रूस का चिह्न बनाते-मलते हुए कहते हैं, 'मैं तुम्हें क्रूस के निशान से चिह्नित करता हूँ और तुम्हें मुक्ति के तेल से अभ्यंजित करता हूँ पिता, पुत्र और पवित्रात्मा के नाम पर।'

यह तर्क सिद्ध करता है कि हम विश्वास को सही तरीके से नहीं समझ सकते, जब तक कि हम उसे अच्छी तरह से नहीं समझें। और न ही हम अपने आप में जीवित रह सकते हैं, जब तक कि हमारे विश्वास का ज्ञान हमारी बुद्धि और शरीर जैसा नहीं बढ़ता।

हम जिनका अध्ययन स्कूल या गिरजा में करते हैं, वह हमारा विश्वास बनाने के लिए अच्छी नींव है, फिर भी हमारे संपूर्ण जीवन में हमें अपने विश्वास के ज्ञान को जो हममें मौजूद है, अध्ययन करना एवं दृढ़ करना चाहिए।

दृढ़ीकरण संस्कार में पवित्रात्मा हमें कई वरदान देता है, जो हमें मदद एवं शक्ति देते हैं और हमारे लिए जैसा ईश्वर हमसे चाहते हैं वैसा प्यार करना संभव बनाता है।

पवित्रात्मा के 12 फल हैं-
1. सद्भावना- संतों के उदाहरण जो शब्दों और कार्यों में निहित हैं।

2. आनंद- अच्छे अंतःकरण की खुशी और तृप्ति जो कि सदाचरण से आती है।

3. शांति- ईश्वर, दूसरों एवं स्वयं के संग आत्मा के विश्राम की स्थिति।

4. धैर्य- दूसरों की असफलता को सहन करने की शक्ति।

5. सौम्यता- वचनों एवं कार्यों को दयालुता एवं अनुकम्पा के साथ कहना या करना।

6. भलाई- दूसरों की सहायता (सेवा) करने को तत्पर रहना और दूसरों के हृदय की भावना को चोट न पहुँचाना।

7. सहनशीलता- कष्टों एवं दुःखों को धीरता से सहन करने की स्थिति, अच्छे कार्य में लगे रहना और अकृतज्ञता एवं असफलता में उदासीन रहना।

8. कोमलता- दूसरों के साथ संबंध (व्यवहार) बनाए रखने में हमारी भद्रता।

9. विश्वास- प्रतिज्ञाओं में सत्यता, वफादारी और विश्वास।

10. शलीनता- बाहरी वचनों, पहरावे एवं आचरण में सादगी।

11. संयम- गुस्से में फूट पड़ना, अधैर्यता और विषय-वासनाओं से बचे रहना।

12. पवित्रता- उन साधनों का उपयोग करना (ख्रीस्तयाग, संस्कार एवं प्रार्थनाएँ), जिन्हें ईश्वर ने दिए हैं कि हम सादगी और पवित्रता से जीवन बिताएँ।

पवित्रात्मा के सात वरदान
1. विवेक- ईश्वरीय वस्तुओं की इच्छा। यह हमारा संपूर्ण जीवन ईश्वर की ओर इंगित करता है।

2. समझदारी- हमारे विश्वास को और भी सुस्पष्ट तरह से जानने में सहायता करता है।

3. परामर्थ- किसी भी चीज (कार्य) को अच्छी तरह से करने की तत्परता।

4. ज्ञान- सब चीजों को देखने एवं करने के योग्य बनाता है, जो हमारी मुक्ति में सहायक है।

5. धैर्यता- ख्रीस्तीय जीवन में दृढ़ता लाता है। विश्वास की घोषणा में हिम्मत, दुःख, कष्टों एवं प्रलोभनों में धैर्यता एवं दृढ़ता देता है।

6. धार्मिकता- ईश्वर की सेवा, प्यार, भक्ति-आराधना करने की स्थिति। यह हमें धर्म पर विश्वास के साथ चलने की सहायता देती है। ईश्वर के पितातुल्य प्यार के विषय में सिखाता है और मरिया के मातृत्व के विषय में। धार्मिकता हमें ख्रीस्त की कलीसिया के समस्त सदस्यों से पवित्र भाईचारे एवं हमारे संबंधियों और देशवासियों के प्रति हमारे कर्त्तव्यों को सिखाती है।

7. प्रभु का भय- ईश्वर के प्यार के प्रति सदैव आदर की भावना एवं उसमें संयुक्त होना चाहिए।

पवित्रात्मा के ये समस्त पुण्यफल और वरदान एक ख्रीस्तीय को कलीसिया के साथ अच्छी तरह पूर्णता से बाँधते और उसे विशेष आध्यात्मिक शक्ति से परिपूर्ण करते हैं कि वह इस संसार में ख्रीस्त का एक योग्य शिष्य (गवाह) बनकर रहे।

'दृढ़ीकरण' शब्द का अर्थ है शक्ति देना। जिस व्यक्ति को दृढ़ीकरण संस्कार दिया जाता है, उसे साक्ष्य देने की शक्ति दी जाती है, कलीसिया का वह उत्तरदायी सदस्य होता है- दूसरों को इस जीवन में भागी बनाने में तत्पर रहता है, जबकि साथ ही साथ ख्रीस्त के प्रति अपनी प्रतिज्ञाओं को, वचनों एवं कार्यों से दर्शाता है।