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Last Updated : गुरुवार, 17 अगस्त 2023 (19:24 IST)

शिवमहिम्न स्तोत्रम् अर्थ सहित | Shiva Mahimna Stotra

shiv mahima strot
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Shiv mahimna stotra: गन्धर्वराज पुष्पदन्त कृत द्वारा रचित बहुत ही प्रमाणिक शिवमहिम्न: स्तोत्रम् का पाठ करने से सभी प्रकार के संकट दूर होकर होती है सभी सुखों की प्राप्ति। 43 छंदों के इस स्तोत्र में शिव के दिव्य स्वरूप, सादगी एवं उनकी महिमा का वर्णन है। कहते हैं कि इस स्तुति को गाकर पुष्पदंत जी ने शिव जी को प्रसन्न करके अपनी खोई हुई दिव्य शक्तियों को पुन: प्राप्त किया था।
 
शिव महिम्न स्त्रोत हिन्दी अर्थ सहित: शिवमहिम्न:स्तोत्रम् | Shiv mahimna stotra hindi arth sahit:
 
महिम्न: पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी।
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिर:।।
अथावाच्य: सर्व: स्वमतिपरिणामावधि गृणन्।
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकर:।।1।।
 
(गन्धर्वराज पुष्पदंत भगवान शंकर की स्तुति के उपक्रम में कहते हैं-) 'हे पाप हरण करने वाले शंकरजी! आपकी महिमा के आर-पार के ज्ञान से रहित सामान्य (अल्प ज्ञानवान) व्यक्ति के द्वारा की गई आपकी स्तुति यदि आपके स्वरूप (माहात्म्य)- वर्णन के अनुरूप नहीं है तो (फिर) ब्रह्मादि देवों की वाणी भी आपकी स्तुति के अनुरूप नहीं है (क्योंकि वे भी आपके गुणों का सर्वथा वर्णन नहीं कर सकते)। किंतु जब सभी लोग अपनी-अपनी बुद्धि (-की शक्ति)- के अनुसार स्तुति करते हुए उपालम्भ के योग्य नहीं माने जाते हैं, तब मेरा भी स्तुति करने का (यह) प्रयास अपवादरहित ही होना चाहिए' (यह प्रयास खंडनीय नहीं है)।।1।।
 
अतीत: पन्थानं तव च महिमा वाङ्मनसयो-
रतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।
स कस्य स्तोतव्य: कतिविधगुण: कस्य विषय:
पदे त्वार्वाचीने पतति न मन: कस्य न वच:।।2।।
 
आपकी महिमा वाणी और मन की पहुंच से परे है। आपकी उस महिमा का वेद भी (आश्चर्य-) चकित (भयभीत) होकर (निषेधमुखेन) नेति-नेति कहते हुए आशय रूप में वर्णन करते हैं। फिर तो ऐसे अचिन्त्य महिमामय आप किसकी स्तुति के विषय (वर्ण्य) हो सकते हैं? अर्थात किसी की स्तुति तदर्थ समर्थ नहीं हो सकती; क्योंकि आपके गुण न जाने कितने प्रकार के हैं अर्थात अनन्त हैं। फिर भी हे प्रभो! नवीन परम रमणीय आपके (सगुण- ) रूप के विषय में वर्णन के लिए किसका मन आसक्त नहीं होता और किसकी वाणी उसमें प्रवृत्त नहीं होती? अर्थात- सबके मन-वचन सगुणरूप में संलग्न हो जाते हैं- सभी अपनी वाणी को प्रेरित कर के वर्णनमें लगा देते हैं।।2।।
 
मधुस्फीता वाच: परमममृतं निर्मितवत-
स्तव ब्रह्मन किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् ।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवत:
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता।।3।।
 
'हे भगवन्! मधु से सिक्त-सी अत्यंत मधुर एवं परम उत्तम अमृतरूप वेदवाणी की रचना करने वाले देवादिदेव ब्रह्मदेव की वाणी भी क्या आपके गुणों को प्रकाशित कर आपको चमत्कृत कर सकती है? (कदापि नहीं) फिर भी हे त्रिपुरारि! मेरी बुद्धि आपके गुणानुवादजनित पुण्य से अपनी इस (मलिन वासना से भरी अतएव अपवित्र) वाणी को पवित्र करने के लिए (ही) आपके गुण-कथन के द्वारा (की जाने वाली) स्तुति के विषय में उद्यत है' (न कि अपने स्तुति-कौशल से आपका अनुरंजन करूंगा- यह मेरा अभिप्राय है)।।3।। 
 
तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्
त्रयीवस्तुव्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासु तनुषु।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहै के जडधिय:।।4।।
 
'हे वर देने वाले शिवजी! आप विश्व का सृजन, पालन एवं संहार करते हैं- ऐसा ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद (वेदत्रयी) निष्कर्ष रूप से वर्णन करते हैं। इसी प्रकार तीनों गुणों से विभिन्न त्रिमूर्तियों (ब्रह्मा-विष्णु-महेश)- में बंटा हुआ, जो इस ब्रह्माण्ड में आपका वह प्रख्यात (रचनात्मक, पालानात्मक एवं संहारात्मक) ऐश्वर्य है, उसके विषय में खंडन करने के लिए कुछ जड़बुद्धि अकल्याणभागी (मन्दों) अभागों (नास्तिकों)- को मनोहर लगने वाला पर वास्तव में अशोभनीय या हानिकारक व्यर्थ का मिथ्या प्रलाप (बकवाद) उठाते हैं'।।4।।
 
किमीह: किं काय: स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च।
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसरदु:स्थो हतधिय:
कुतर्कोऽयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगत:।।5।।
 
'हे वरद भगवन्! वह विधाता त्रिभुवन का निर्माण करता है तो उस की कैसी चेष्टा होती है? उसका स्वरूप क्या है? फिर उसके साधन क्या हैं? आधार अर्थात जगत् का उपादान कारण क्या है?- इस प्रकार का कुतर्क, सब तर्कों से परे अचिन्त्य ऐश्वर्य वाले आपके विषय में निराधार एवं नगण्य (उपेक्षित) होता हुआ भी सांसारिक (साधारण) जनों को भ्रम में डालने के लिए कुछ मूर्खों को वाचाल बना देता है'।।5।।
 
अजन्मानो लोका: किमवयववन्तोऽपि जगता-
मधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति।
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने क: परिकरो
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे।।6।।
 
हे देव! श्रेष्ठ अवयव वाले (शारीरधारी) होते हुए भी ये लोक क्या बिना जन्म के ही हैं? (नहीं, कदापि नहीं;) क्या विश्व की सृष्टि-पालन-संहार आदि क्रियाएं बिना (अधिष्ठान) कर्ता के माने संभव हो सकती है? या ईश्वर के बिना कोई सामान्य जीव ही अधिष्ठान या कर्ता हो सकता है? (नहीं; क्योंकि) यदि असमर्थ जीव ही कर्ता है तो चौदह भुवनों की सृष्टि के लिए उसके पास क्या साधन हो सकता है? (इस प्रकार आपके अस्तित्व के प्रमाण सिद्ध होने पर भी) यत: वे (जड़बुद्धि) शंका करते हैं, अत: वे बड़े अभागी हैं'।।6।।
 
त्रयी सांख्यं योग: पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।7।।
 
'ऋक्, यजुः, साम- ये वेद, सांख्यशास्त्र, योगशास्त्र, पाशुपतमत, वैष्णवमत आदि विभिन्न मत-मतान्तर हैं। इनमें (सभी लोग हमारा) यह मत उत्तम है, हमारा मत लाभप्रद है (दूसरों का नहीं;)- इस प्रकार की रुचियों की विचित्रता से सीधे-टेढ़े नाना मार्गों से चलने वाले साधकों के लिए एकमात्र प्राप्तव्य (गंतव्य) आप ही हैं। जैसे सीधे-टेढ़े मार्गों से बहती हुई सभी नदियां अंत में समुद्र में ही पहुंचती हैं, उसी प्रकार सभी मतानुयायी आपके ही पास पहुंचते हैं'।।7।।
 
महोक्ष: खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिन:
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति च भवद्भ्रूप्रणिहितां
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रयमति।।8।।
 
हे वरदानी शंकर! बूढ़ा बैल, खटिये का पावा, फरसा, चर्म, भस्म, सर्प, कपाल- बस इतनी ही आपके कुटुम्ब-पालन की साम्रगी है। फिर भी इन्द्रादि देवताओं ने आपके कृपा कटाक्ष से ही उन अपनी विलक्षण (अतुलनीय) समृद्धियों (भोगों)- को प्राप्त किया है; किंतु आपके पास भोग की कोई वस्तु नहीं है; क्योंकि विषय-वासनारूपी मृगतृष्णा स्वरूपभूत चैतन्य आत्माराम में रमण करने वाले को भ्रमित नहीं कर पाती है'।।8।। 
 
ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं
परो ध्रौव्याध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये।
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव
स्तुवञ्जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता।।9।।
 
'हे त्रिपुरारि! कोई वादी इस संपूर्ण जगत को ध्रुव (नित्य) कहता है, कोई इस सबको अध्रुव (असत या अनित्य) बताता है और कोई तो विश्व के समस्त पदार्थों में कुछ नित्य और कुछ अनित्य है- ऐसा कहता है। उन सब वादों से आश्चर्यचकित-सा मैं उन्हीं वादों (स्तुति-प्रकारों)- से आपकी स्तुति करता हुआ लज्जित नहीं हो रहा हूं; क्योंकि मुखरता (वाचालता) धृष्ट होती ही है' (उसे लज्जा कहां?)।।9।।
 
तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिञ्चो हरिरध:
परिच्छेत्तुं यातावनलमनलस्कन्धवपुष:।
ततो भक्तिश्रद्धाभरगुरुगृणद्भ्यां गिरिश यत्
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति।।10।।
 
'हे गिरीश! (अग्नि-स्तंभ के समान) आपका जो लिंगाकार तैजस रूप (ऐश्वर्य) प्रकट हुआ, उसके ओर-छोर को जानने के लिए ऊपर की ओर ब्रह्मा तथा नीचे की ओर विष्णु बड़े प्रयत्न से गए; पर (वे दोनों ही) पार पाने में असमर्थ रहे। तब उन दोनों ने श्रद्धा और भक्ति से पूर्ण बुद्धि से नतमस्तक हो आपकी स्तुति की। (तब उनकी स्तुति से प्रसन्न हो) आप उन दोनों के समक्ष प्रकट हो गए। हे भगवन्! श्रद्धा-भक्तिपूर्वक की गई आपकी सेवा (स्तुति) क्या फलीभूत नहीं होती?' (अर्थात अवश्य फलीभूत होती है)।।10।।
 
अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं
दशास्यो यद् बाहूनभृत रणकण्डूपरवशान्।
शिर:पद्मश्रेणी रचितचरणाम्भोरुहबले:
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम्।।11।।
 
'हे त्रिपुरारि! दशमुख रावण ने तीनों भुवनों का निष्कण्टक राज्य बिना प्रयत्न (अनायास) प्राप्त कर जो अपनी भुजाओं की युद्ध करने की खुजलाहट न मिटा सका (प्रतिभट से युद्ध करने की इच्छा पूर्ण न कर सका; क्योंकि कोई प्रतिभट मिला ही नहीं), यह आपके चरण कमलों में अपने दस सिररूपी कमलों की बलि प्रदान करने में प्रवृत्त आप में अविचल भक्ति का ही प्रभाव है'।।11।।
 
अमुष्य त्वत् सेवासमधिगतसारं भुजवनं
बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयत:।
अलभ्या पातालेऽप्यलसचलिताङ्गुष्ठशिरसि
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खल:।।12।।
 
'हे त्रिपुरारि! आपकी सेवा से रावण की भुजाओं में शक्ति प्राप्त हुई थी। अभिमान में आकर वह अपना भुजबल आपके निवास-स्थान कैलास के उठाने में भी तौलने लगा, पर आपने जो पैर के अंगूठे की नोक से जरा-सा कैलास को दबा दिया तो उस रावण की प्रतिष्ठा (स्थिति) पाताल में भी दुर्लभ हो गई। (वह नीचे-ही-नीचे खिसकता चला गया।) प्राय: यह निश्चित है कि नीच व्यक्ति समृद्धि को पाकर मोह में फंस जाता है' (कृतघ्न हो जाता है)।।12।।
 
यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सती-
मधश्चक्रे बाण: परिजनविधेयस्त्रिभुवन:। 
न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोर्न
कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनति:।।13।।
 
'हे वरदानी शंकर! त्रिभुवन को वशवर्ती बनाने वाले बाणासुर ने इंद्र की अपार (परमोच्च) संपत्ति को भी जो अपने समक्ष नीचा कर दिया, वह आपके चरणों के शरणागत (सेवक) उस बाणासुर के विषय में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि आपके समक्ष सर झुकाना (नतमस्तक होना) किसकी (किस-किस विषय की) उन्नति के लिए नहीं होता? अर्थात आपके चरणों में सर झुकाने से सबकी सब प्रकार की उन्नति होती है'।।13।।
 
अकाण्डब्रह्माण्डक्षयचकितदेवासुरकृपा-
विधेयस्यासीद्यस्त्रिनयनविषं संह्यतवत:।
स कल्माष: कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवनभयभङ्गव्यसनिन:।।14।।
 
'हे त्रिनेत्र शंकर! समुद्र मंथन से उत्पन्न विष की विषम ज्वाला से असमय में ही ब्रह्माण्ड के नाश के भय से चकित देवों और दानवों पर दयार्द्र होकर विषपान करने वाले आपके कंठ में जो कालापन (नीला धब्बा) है, वह क्या आपकी शोभा नहीं बढ़ा रहा है। (अर्थात महोपकार के कार्य से उत्पन्न होने के कारण और अधिक शोभा बढ़ा रहा है।) वस्तुत: संसार के भय को दूर करने के स्वभाव वाले महापुरुषों का विकार भी प्रशंसनीय होता है'।।14।।
 
असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखा:।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्
स्मर: स्मर्तव्यात्मा नहि वशिषु पथ्य: परिभव:।।15।।
 
'हे जगदीश! जिस कामदेव के बाण देव, असुर एवं नर समूह रूप विश्व में नित्य विजेता रहे, कहीं भी असफल होकर नहीं लौटते थे, वही कामदेव जब आपको अन्य देवताओं के समान (जेय) समझने लगा, तब आपके देखते ही वह स्मृतिमात्र शेष रह गया (भस्म हो गया) और (सच है कि) जितेन्द्रियों का अपमान (उन्हें विचलित करने का उपक्रम) कल्याणकारी नहीं (अपितु घातक) होता है'।।15।।
 
मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं
पदं विष्णोर्भ्राम्यद्भुजपरिघरुग्णग्रहगणम्।
मुहुर्द्यौर्दौ:स्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडिततटा
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता।।16।।
 
'हे ईश! जब आप ताण्डव (नर्तन) करते हैं तब आपके पैरों के आघात (चोट)- से पृथ्वी अचानक संशय (संकट)- को प्राप्त हो जाती है; आकाशमण्डल के ग्रह-नक्षत्र-तारे- आपके घूमते हुए भुजदण्ड (की चोट)- से पीड़ित हो जाते हैं (अत: आकाशमंडल भी संकटग्रस्त हो जाता है)। स्वर्ग आपकी खुली (बिखरी) हुईं जटाओं के किनारों की चोट से बारम्बार दु:खद स्थिति को प्राप्त हो जाता है। यद्यपि आप जगत की रक्षा के लिए ही ताण्डव करते हैं; फिर भी आपकी प्रभुता (तो) वाम (क्षोभद) हो ही जाती है' (सच है संपत्ति वाले का उचित कार्य भी विक्षोभ उत्पन्न कर देता है)।।16।।
 
वियद्व्यापी तारागणगुणितफेनोद्गमरुचि:
प्रवाहो वारां य: पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते।
जगद् द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमि-
त्यनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपु:।।17।।
 
'हे जगदीश! समस्त आकाश में फैले तारों के सदृश फेन की शोभा वाला जो गंगा जल का प्रवाह है, वह आपके सिर पर जलबिंदु के समान (छोटा) दिखाई पड़ा और (सिर से नीचे गिरने पर) उसी जल बिंदु ने समुद्ररूपी करधनी (वलय)- के भीतर संसार को द्वीप के समान बना दिया। बस इसी से आपका दिव्य शरीर सर्वोत्कृष्ट है- यह अनुमेय हो जाता है'।।17।।
 
रथ: क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो
रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथचरणपाणि: शर इति।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बरविधि-
र्विधेयै: क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्रा: प्रभुधिय:।।18।।
 
हे परमेश्वर! त्रिपुरासुररूपी तृण को दग्ध करने के इच्छुक आपने पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथि, सुमेरू पर्वत को धनुष, चन्द्र और सूर्य को रथ के दोनों चक्के और चक्रपाणि विष्णु को (जो) बाण बनाया, (तो) यह सब आडम्बर (समारंभ) करने का क्या प्रयोजन था? (सर्वसमर्थ आप उसे अपने इच्छा मात्र से जला सकते थे) निश्चय ही अपने वशवर्ती (हाथ में स्थित) खिलौनों से खेलती हुई ईश्वर की बुद्धि पराधीन नहीं होती' (अर्थात् वह स्वतंत्र रूप से अपने खिलौनों से खेलती रहती है)।।18।।
 
हरिस्ते साहस्त्रं कमलबलिमाधाय पदयोर्यदे
कोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम्।
गतो भक्त्युद्रेक: परिणतिमसौ चक्रवपुषा
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम्।।19।।
 
'हे त्रिपुरारी! भगवान विष्णु ने आपके चरणों में एक हजार कमल चढ़ाने का संकल्प किया था। उनमें जो एक कमल कम पड़ गया तो उन्होंने अपना ही नेत्रकमल उखाड़कर चढ़ा दिया। बस, उनकी यही भक्ति की पराकाष्ठा सुदर्शन चक्र का स्वरूप धारण कर त्रिभुवन की रक्षा के लिए सदा जागरूक है' (भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर श्रीविष्णु को चक्र प्रदान कर दिया था, जो विश्व का संरक्षण अनुग्रह-निग्रह द्वारा करता है)।।19।।
 
क्रतौ सुप्ते जाग्रत्त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदानप्रतिभुवं
श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा दृढपरिकर: कर्मसु जन:।।20।।
 
'हे त्रिपुरारी! (बिना फल दिए ही) यज्ञादि के समाप्त हो जाने पर यज्ञकर्ताओं का यज्ञफल से संबंध करने के लिए (फल दिलाने के लिए) आप तत्पर रहते हैं। कर्म तो करने के बाद नष्ट हो जाता है (वह जड़ है)। अत: चेतन परमेश्वर की आराधना के बिना वह नष्ट कर्म फल देने में समर्थ नहीं होता है। इसलिए आपको यज्ञों के फल देने में समर्थ दाता देखकर पुण्यात्मा लोग वेदवाक्यों में श्रद्धा-विश्वास रखकर (यज्ञ-) कर्म में तत्पर रहते हैं'।।20।।
 
क्रियादक्षो दक्ष: क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां-
मृषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्या: सुरगणा:।
क्रतुभ्रेषस्त्वत्त: क्रतुफलविधानव्यसनिनो
ध्रुवं कर्तु: श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखा:।।21।।
 
'हे शरणदाता शंकर! कार्य में कुशल प्रजाजनों का स्वामी प्रजापति दक्ष यज्ञ का यजमान (क्रतुपति) बना था। त्रिकालदर्शी ऋषिगण याज्ञिक (यज्ञ कराने वाले होता आदि) थे। देवगण यज्ञ के सामान्य सदस्य थे। फिर भी यज्ञफल के वितरण के व्यसनी आप से ही यज्ञ का विध्वंस हो गया। अत: यह निश्चित है कि अश्रद्धा से किए गए यज्ञ (कर्म) कर्ता के विनाश के लिए ही सिद्ध होते हैं' (दक्ष ने श्रद्धावर्जित यज्ञ किया था)।।21।।
 
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं
गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभस:।।22।।
 
'हे स्वामिन्! (एक बार) कामुक ब्रह्मा ने अपनी दुहिता से हठपूर्वक रमन करने की इच्छा की। वह लज्जा से मृगी बनकर भागी; तब ब्रह्मा भी मृग बनकर उसके पीछे दौड़े। आपने उन्हें दंड देने के लिए मृग के शिकारी के वेग के समान हाथ में धनुष लेकर बाण चला दिया। स्वर्ग में जाने पर भी ब्रह्मा आपके बाण से भयभीत हो रहे हैं। उन्हें बाण ने आज भी नहीं छोड़ा है; अर्थात ब्रह्मा 'मृगशिरा' नक्षत्र बनकर भागे तो बाण 'आर्द्रा' नक्षत्र बनकर आज भी पीछा करता है' (ये दोनों आकाशमंडल में आगे-पीछे देखे जा सकते हैं)।।22।।
 
[यह पौराणिक कथा है कि एक बार ब्रह्मा अपनी दुहिता संध्या को अत्यंत रूप-लावण्यवती देखकर मोहित हो गए। उन्होंने उपगमन करना चाहा। संध्या लज्जा के मारे मृगी बनकर भाग चली। ब्रह्मा ने मृग रूप बना लिया और पीछा किया। इस अनर्थ को देखकर भगवान् भूतभावन ने प्रजानाथ को दंडित करने के लिए पिनाक चढ़ाकर बाण छोड़ दिया। उससे पीड़ित तथा लज्जित होकर ब्रह्मा मृगशिरा नक्षत्र हो गए। फिर रुद्र का बाण भी आर्द्रा नक्षत्र होकर उनके पीछे-भाग में लग गया। वह आज भी उनके पीछे लगा हुआ दिखता है।]
 
स्वालावण्याशंसाधृतधनुषमह्नाय तृणवत्
पुर: प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरतदेहार्धघटना-
दवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतय:।।23।।
 
'हे त्रिपुरारी! हे यम-नियमपरायण! हे वरद शंकर! अपने सौंदर्य से शिव पर विजय प्राप्त कर लूंगा'- इस सम्भावना से हाथ में धनुष उठाए हुए कामदेव को सामने ही तुरंत आपके द्वारा तिनके की भांति भस्म होता हुआ देखकर भी यदि देवी (पार्वतीजी) अर्धनारीश्वर (आधे शरीर में पार्वती को स्थान देने)- के कारण आपको स्त्रीभक्त जानती हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि स्त्रियां (स्वभावत:) अज्ञानी होती हैं'।।23।।
 
P.S.(पुष्पदंताचार्य रचित महानतम इस शिवमहिम्न: के इस श्लोक के अर्थ अनुवाद में किस सन्दर्भ में स्त्रियों को अज्ञानी कहता है, यह मेरी समझ के परे है- अत: हम इस वाक्य के लिए क्षमाप्रार्थी हैं)!
 
श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचा: सहचरा-
श्चिताभस्मालेप: स्त्रगपि नृकरोटीपरिकर:।
अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
तथापि स्मर्तृणां वरद परमं मङ्गलमसि।।24।।
 
हे कामरिपु! हे वरद शंकरजी! आप श्मशानों में क्रीड़ा करते हैं, प्रेत-पिशाचगण आपके साथी हैं, चिता की भस्म आपका अंगराग है, आपकी माला भी मनुष्य की खोपड़ियों की है। इस प्रकार यह सब आपका अमंगल स्वभाव (स्वांग) देखने में भले ही अशुभ हो, फिर भी स्मरण करने वाले भक्तों के लिए तो आप परम मंगलमय ही हैं।।24।।
 
मन: प्रत्यक्चित्ते सविधमवधायात्तमरुत:
प्रह्यष्यद्रोमाण: प्रमदसलिलोत्सङ्गितदृश:।
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान्।।25।।
 
'हे प्रभो! (शम-दम आदि साधनों से संपन्न) यमीलोग शास्त्रोपदिष्ट विधि से- वायु रोककर (प्राणायाम कर) हृदयकमल में मन को बहिर्मुखी (संकल्प-विकल्पात्मक) सभी वृत्तियों से शून्य करके अपने भीतर जिस किसी विलक्षण (आनंद रूप परब्रह्म चिन्मात्र) तत्त्व का दर्शन कर रोमांचित हो जाते हैं और उनकी आंखें आनंद के आंसुओं से भर जाती हैं। उस समय मानो वे अमृत के समुद्र में अवगाहन कर दिव्य आनंद का अनुभव करते हैं; वह निर्गुण आनंदस्वरूप ब्रह्म निश्चय रूप से आप ही हैं'।।25।।
 
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह-
स्त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रतु गिरं
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत्त्वं न भवसि।।26।।
 
हे भगवन्! परिपक्व बुद्धि वाले प्रौढ़ विद्वान्- आप सूर्य हैं, आप चन्द्र हैं, आप पवन हैं, आप अग्नि हैं, आप जल हैं, आप आकाश हैं, आप पृथ्वी हैं, आप आत्मा हैं- इस प्रकार की सीमित अर्थयुक्त वाणी आपके विषय में कहते रहे हैं; पर हम तो विश्व में ऐसा कोई तत्त्व (वस्तु) नहीं देखते (जानते), जो स्वयं साक्षात् आप न हों।।26।।
 
त्रयीं तिस्त्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरा-
नकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभि:
समस्तं व्यस्तं त्वं शरणद गृणात्योमिति पदम्।।27।।
 
'हे शरण देने वाले! ओम्- यह शब्द अपने व्यस्त (पृथक्-पृथक् अक्षर वाले) अकार, उकार, मकार रूप से तीनों वेद (ऋक्, यजुः, साम), तीनों अवस्था (जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्ति), तीनों लोक (स्वर्ग-भूमि-पाताल), तीनों देवता (ब्रह्मा-विष्णु-महेश), तीनों शरीर (स्थूल-सूक्ष्म-कारण), तीनों रूप (विश्व-तैजस-प्राज्ञ) आदि के रूप में आपका ही प्रतिपादन करता है तथा अपने अवयवों के समष्टि (संयुक्त-समस्त)- रूप (ओम्)- से निर्विकार निष्कल तीन अवस्था एवं त्रिपुटियों से रहित आपके तुरीय स्वरूप की सूक्ष्म ध्वनियों से ग्रहण कर प्रतिपादन करता है' (ॐ आपके स्वरूप का सर्वत: निर्वचन करता है )।।27।।
 
भव: शर्वो रुद्र: पशुपतिरथोग्र: सहमहां-
स्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्।
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि
प्रियायास्मै धाम्ने प्रविहितनमस्योऽस्मि भवते।।28।।
 
हे महादेव! आपके जो आठ अभिधान (नाम)- भव, शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम और ईशान हैं, उनमें प्रत्येक में वेद मंत्र भी पर्याप्त मात्रा में विचरण करते हैं और वेदानुगामी पुराण भी इन नामों में विचरते हैं; अर्थात् वेद-पुराण सभी उन आठों नामों का अतिशय प्रतिपादन करते हैं। अत: परम प्रिय एवं प्रत्यक्ष समस्त जगत् के आश्रय आपको मैं साष्टांगप्रणाम करता हूं।।28।।
 
नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो
नम: क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नम:।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमो
नम: सर्वस्मै ते तदिदमिति शर्वाय च नम:।।29।।
 
'हे अति निकटवर्ती और एकांत (निर्जन) वन-विहार के प्रेमी! आपको प्रणाम है; अति दूरवर्ती आपको प्रणाम है। हे कामारि! अति लघु (सूक्ष्मरूपधारी) आपको प्रणाम है। हे अति महान! आपको प्रणाम है। हे त्रिनेत्र! वृद्धतम! आपको नमस्कार है; अत्यंत युवक! आपको प्रणाम है। सर्वस्वरूप! आपको नमस्कार है; परोक्ष, प्रत्यक्ष पद से परे अनिर्वचनीय सबके अधिष्ठानस्वरूप! आपको नमस् कार है'।।29।।
 
बहुलरज से विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नम:
प्रबलतम से तत्संहारे हराय नमो नम:।
जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नम:
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नम:।।30।।
 
'विश्व की सृष्टि के लिए रजोगुण की अधिकता धारण करने वाले ब्रह्मारूपधारी! आपको बारंबार नमस्कार है। विश्व के संहार के लिए तमोगुण की अधिकता धारण करने वाले हर (रुद्र)- रूपधारी! आपको बारंबार नमस्कार है। समस्त जीवों के सुख (पालन)- के लिए सत्त्व गुण की अधिकता धारण करने वाले विष्णुरूपधारी (आप) मृडको बारंबार नमस्कार है। स्वयं प्रकाश मोक्ष के लिए त्रिगुणातीत, समस्त द्वैत से रहित मंगलमय अद्वैत (आप) शिव को बारंबार नमस्कार है'।।30।।
 
कृशपरिणति चेत: क्लेशवश्यं क्व चेदं
क्व च तव गुणसीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्
वरद चरणयोस्ते वाक्यपुष्पोपहारम्।।31।।
 
'हे वरद शिव! (अविद्या आदि) कष्टों के वशीभूत (अल्प शक्तियुक्त) कहां तो यह मेरा चित्त और कहां संपूर्ण गुणों की सीमा के बाहर पहुंची सदा (त्रिकाल) स्थायिनी आपकी ऋद्धि (विभूति)। (दोनों में बहुत असमानता है।) इसी भय से ग्रस्त आपके चरणों की भक्ति ने मुझे उत्साहित कर आपके चरणों में मुझ से वाक्यरूपी पुष्पोपहार, वाक्य कुसुमांजलि, वाक्यचय की स्तुतिरूपी अञ्जलि समर्पित कराई है'।।31।।
 
असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे
सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति।।32।।
 
'हे ईश! यदि काले पर्वत के समान स्याही हो, समुद्र की दवात हो, कल्पवृक्ष की शाखाओं की कलम बने, पृथ्वी कागज बने और इन साधनों से यदि सरस्वती (स्वयं) सर्वदा (जीवनपर्यन्त) आपके गुणों को लिखें तब भी वे आपके गुणों का पार नहीं पा सकेंगी'।।32।।
 
असुरसुरमुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दुमौले-
र्ग्रथितगुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य।
सकलगणवरिष्ठः पुष्पदंताभिधानो
रुचिरमलघुवृत्तै: स्तोत्रमेतच्च कार।।33।।
 
'इस प्रकार शिव के सभी गणों में श्रेष्ठ पुष्पदंत नामक गंधर्व ने दैत्येन्द्रों, सुरेन्द्रों एवं मुनीन्द्रों से पूजित, समस्त गुणों से परिपूर्ण होते हुए भी जगदीश्वर चन्द्रशेखर भगवान् शिवजी के इस सुन्दर स्तोत्र को बड़े छंदों में (स्तुति-हेतु) बनाया'।।33।।
 
अहरहरनवद्यं धूर्जटे: स्तोत्रमेतत्
पठति परमभक्तया शुद्धचित्त: पुमान् य:।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथात्र
प्रचुरतरधनायु: पुत्रवान् कीर्तिमांश्च।।34।।
 
जो व्यक्ति पवित्र अंत:करण (हृदय)- से परम भक्ति के साथ भगवान् शंकर के इस प्रशंसनीय स्तोत्र का नित्य पाठ करता है, वह इस लोक में पर्याप्त धन एवं आयु को पाता है, पुत्रवान् और यशस्वी होता है तथा (मृत्यु के बाद) शिवलोक को प्राप्त कर शिव के समान (आनंदमग्न) रहता है'।।34।।
 
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुति:।
अघोरान्नापरो मंत्रो नास्ति तत्त्वं गुरो परम्।।35।।
 
'महेश से बढ़कर (उत्तम) कोई देवता नहीं है, (इस) शिवमहिम्न: स्तोत्र से बढ़कर कोई स्तोत्र नहीं है। अघोर मंत्र से बढ़कर कोई मंत्र नहीं है, गुरु से बढ़कर कोई तत्त्व नहीं है'।।35।।
 
दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिका: क्रिया:।
महिम्न: स्तवपाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।।36।।
 
'मंत्र आदि की दीक्षा, दान, तप, तीर्थाटन, ज्ञान तथा यज्ञादि- ये सब शिवमहिम्न: स्तोत्र की सोलहवीं कला (अंश)- को भी नहीं पा सकते'।।36।।
 
कुसुमदशननामा सर्वगन्धराज:
शिशुशशिधरमौलेर्देवदेवस्य दास:।
स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्यदिव्यं महिम्न:।।37।।
 
बालचन्द्र को सिर पर धारण करने वाले देवादिधेव महादेव का पुष्पदंत नामक एक दास, जो सभी गंधर्वों का राजा था, इन शिवजी के कोप से अपने ऐश्वर्य से च्युत हो गया था। (उसके बाद) उसने इस परम दिव्य शिवमहिम्न: स्तोत्र की रचना की' (जिससे पुन: उसने उनकी कृपा प्राप्त की)।।37।।
 
सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमोक्षैकहेतुं
पठति यदि मनुष्य: प्राञ्जलिर्नान्यचेता:। 
व्रजति शिवसमीपं किन्नरैः स्तूयमान: 
स्तवनमिदममोघं पुष्पदंतप्रणीतम्।।38।।
 
'यदि मनुष्य हाथ जोड़कर एकाग्र चित्त से देवताओं, मुनियों के पूज्य, स्वर्ग एवं मोक्ष को देने वाले, पुष्पदंत रचित इस अमोघ (अवश्य फल देने वाले) स्तोत्र का पाठ करता है तो वह किन्नरों से स्तुति (प्रशंसा) प्राप्त करता हुआ भगवान् शिव के समीप (शिवलोक में) पहुंच जाता है'।।38।।
 
आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गंधर्वभाषितम्।
अनौपम्यं मनोहारि शिवमीश्वरवर्णनम्।।39।।
 
'पुष्पदंतरचित यह संपूर्ण स्तोत्र (आदि से अंत तक) पवित्र है, अनुपम है, मनोहर है, शिव (मंगलमय) है। इस में ईश्वर (शिव)- का वर्णन है'।।39।।
 
इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्करपादयो:।
अर्पिता तेन देवेश: प्रीयतां मे सदाशिवा:।।40।।
 
'उस पुष्पदंत ने यह शिवमयी पूजा श्रीमान् शंकर