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  4. Can the Bamiyan Buddhas be recreated in the age of AI?

क्‍या AI के इस दौर में बामियान बुद्ध फिर से बनाए जा सकते हैं?

akhilesh verma
यह अत्‍याधुनिक तकनीक और आर्टिफिशयल इंटेलिजेंसी (AI) का दौर है, जाहिर है इसकी वजह से कहीं न कहीं मनुष्‍य की इंद्रियों, मानव मस्‍तिष्‍क और हूमन सेंस पर असर हुआ है। यह भी संशय जाहिर किया जा रहा है कि संभवत: कला का क्षेत्र भी इस असर से अछूता नहीं रहा होगा। क्‍योंकि इस दौर में कल्‍पना और मानव मस्‍तिष्‍क की जगह कम्‍प्‍यूटर या उसके किसी बेहद स्‍मार्ट सॉफ्टवेअर ने ले ली है।

बावजूद इन बदलाव के कलाकार को अब भी अपनी दृष्‍टि पर आस्‍था रखना होगी। अगर किसी पेंटर या लेखक की दृष्‍टि ही गुम हो जाएगी, तो उसके पास क्‍या बचेगा। जब सबकुछ मशीनें और तकनीक ही तय करेगी तो फिर मनुष्‍य की अपनी आईडेंटिटी पर सवाल उठेंगे। हालांकि तकनीक को भी मनुष्‍य ने ही ईजाद किया है। बहरहाल, यह एक बेहद लंबी बहस का विषय हो सकता है।

आधुनिक कला में भारतीय चित्रकारों के योगदान और कला पर तकनीकी प्रभाव से लेकर देश में जर्जर हालत में पहुंच रहे कला केंद्रों के बारे में वेबदुनिया ने स्‍वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्‍य पर ख्‍यात और वरिष्‍ठ चित्रकार अखिलेश से विशेष चर्चा की। पढ़ते हैं यह विशेष साक्षात्‍कार।

सवाल : एमएफ हुसैन और सैयद हैदर रजा साहब का तो योगदान रहा ही हैलेकिन इनके अलावा भारतीय संदर्भ में आधुनिक कला में आपकी दृष्‍टि से किसका योगदान महत्‍वपूर्ण रहा है। भारतीय कला को आधुनिक समय में किसने पहचान दिलाई।

जवाब : पहचान दिलाने का प्रश्न उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना यह कि वे कौन लोग थे, जिन्होंने भारतीय कला को अंतराष्ट्रीय मुक़ाम तक पहुंचाया। ज़ाहिर है हुसैन अकेले खड़े दिखाई देते हैं जिनके भागीरथी प्रयास से समकालीन कला का प्रचलित जगमगाता स्वरूप हमें देखने को मिलता है। हुसैन के पास वह दृष्टि थी जो भविष्य में देख रही थी। दूसरे चित्रकार इन बनाई हुई भूमि पर रच रहे थे। स्वामीनाथन का योगदान इस अर्थ में अधिक गहरा है कि उन्होंने पश्चिम की दादागिरी के ख़िलाफ़ एक स्वतन्त्र चित्रकार की ज़िम्मेदारी को समझा और उसे रेखांकित किया। उनका विश्वास कला के विकास पर नहीं था। वे कहते थे कि एक अनन्त समय में विकास अवधारणा झूठी है समकालीन कला में मनुष्य की अभिव्यक्ति का महत्व है न कि पूर्व पश्चिम जैसी कोटियों में। उन्होंने समकालीन कला में आदिवासियों की कला को प्रमुखता से केन्द्र में लाकर अपनी इस बात को सिद्ध भी किया।

भारतीय सन्दर्भ में ये दो कलाकार ऐसे हैं, जिन्होंने कला के आने वाले समय को महसूस किया और उसके अनुरूप काम किए। कला का स्वभाव ही भविष्योन्मुखी है। यह समझने का दम हर कलाकार में नहीं होता। वो सर झुकाये नहीं, घमण्ड से सर उठाये रचने की निष्फल कोशिश करता है। शौक़िया चित्रकारों की भीड़ में अक्सर दर्शक भ्रमित होकर कला का अर्थ अनर्थ समझ बैठता है। भारत में अनेक चित्रकार हुए हैं, जो जीवन भर अपने काम में व्यस्त रहे और बहुत ही सार्थक रचा। योगदान एक बड़ा शब्द है, इसका इस्तेमाल सम्‍भल कर करना चाहिए। योगदान उनका होता है, जिससे आने वाली पीढ़ी प्रेरणा ले। उनका मार्ग प्रशस्त हो। वे निर्भीक उस पर चल सके।

सवाल: यह तकनीकी और आर्टिफिशयल इंटेलिजेंसी का दौर हैकहीं न कहीं मनुष्‍य की इंद्रियांमानव मस्‍तिष्‍क और हूमन सेंस प्रभावित हुए हैंऐसे बदलते दौर में क्‍या कला भी प्रभावित हुई हैकिस तरह के बदलाव आए हैं।
जवाब: इस नए दौर में कलाओं ने अपना स्वभाव नहीं बदला। वह वहीं खड़ी मनुष्य की कल्पना को सम्बोधित है। हम देखते हैं इन तमाम भौतिक वैज्ञानिक परिवर्तनों की समस्या यह है कि इन तकनीकी AI आर्टिफिशयल इंटेलिजेंसी परिवर्तनों का कोई केन्द्र नहीं है। वे इतनी तेज़ी से बदलते हैं कि एक पर भरोसा करे इसके पहले दूसरा परिवर्तन आ जाता है। इतनी तकनीकी तरक्की के बाद भी क्या सम्भव है कि बामियान बुद्ध वापस बनाये जा सकते हैं या ताजमहल, पिरामिड का निर्माण किया जा सकता है?

आधुनिकता का हौवा ज़्यादा है। उसका आतंक फैला है। हर मनुष्य आधुनिक होना चाहता है बिना यह जाने कि वह है क्या। यह कुछ इस तरह है कि आप एक रेल में सवार होना चाहते हो बिना यह जाने कि वह जा किधर रही है। इसलिए नहीं कि आपको कहीं जाना है, बल्कि उस रेल का आतंक इतना है कि यात्रा करनी है। यह भटकाव चित्रकला का स्वभाव नहीं है। चित्रकार भटकता है अपना स्वभाव पाने। चित्रकला में जिस अचम्भे को दर्शक महसूस करता है, वह वर्णन से परे है। आधुनिकता में जिन चीजों से हम प्रभावित होते हैं वह भी वही नयापन है जो कलाओं की शक्ति है। किन्तु यह स्थाई है, जबकि विज्ञान में वह तभी तक सत्य है जब तक दूसरी धारणा उसे सरका न दे। वहां अचम्भा नहीं है, उसे जाना जा सकता है। वह दो और दो चार के फ़ार्मूले पर टिकी है, जबकि कला में दो और दो बीस भी हो सकते हैं। इस आधुनिकता का दबाव कला पर भी है किन्तु उसके उपयोग में उसी कल्पना का तड़का लगा हुआ होता है जो उसकी भटकती, बहकती प्रवृति को केन्द्र में ले आती है। अनीश कपूर, जेफ़ कूंस, डेमियन हर्स्ट आदि अनेक कलाकार हैं जो इन आधुनिक प्रवृतियों का सार्थक उपयोग करते दिखते हैं। ऐसा नहीं है कि कलाकार प्रभावित नहीं होते हैं इन सब परिवर्तनों से किन्तु कोई भी कलाकार तकनीक का ग़ुलाम होकर काम नहीं कर सकता, वह तकनीक को जीत कर ही अपने स्वभाव तक पहुंच सकता है।

सवाल: मध्‍यप्रदेश (इसमें इंदौर भी शामिल है) का कलाओं में क्‍या योगदान क्‍या रहा है। पेंटिंग और लेखन में कौनसे नाम उल्‍लेखनीय हैं।
जवाब: मध्यप्रदेश का योगदान भारतीय चित्रकला के सन्दर्भ में अनूठा है। भारत में कला आलोचक नहीं हुए अन्यथा यह बात कला के इतिहास में दर्ज होती कि मध्यप्रदेश के चार कलाकारों ने भारतीय कला का स्वरूप तय किया। जिसे मौजूदा कला व्यवहार में लक्षित किया जा सकता है। नारायण श्रीधर बेंद्रे, मक़बूल फ़िदा हुसेन, सैयद हैदर रज़ा और वासुदेव सत्तू गायतोंडे मध्यप्रदेश में जन्मे कलाकार हैं और इन्हीं के द्वारा प्रस्तावित कला धाराएं आज भी जाने अनजाने सभी व्यवहार में लाते हैं। बेंद्रे ने चित्रकला में कथात्मक चित्रों की आधुनिक शैली विकसित की। हुसैन जीवन भर विशिष्ट शैली में काम करते रहे। रज़ा और गायतोंडे अमूर्तन के प्रस्तावक रहे। अभी पश्चिम की भौंडी नक़ल के चलते अनेक कलाकार conceptual art और installation कर रहे हैं, किन्तु वे अनेक वर्ष पीछे चल रहे हैं। बाक़ी सभी कलाकार इन तीन प्रवृतियों में काम करते दिखते हैं। संयोग से इनमें से दो कलाकार इंदौर में जन्मे हैं। हुसैन और बेंद्रे। रज़ा का जन्म बाबरिया, नरसिंहगढ़ जिले के छोटे से गांव में हुआ और गायतोंडे नागपुर में जन्मे। इस तरह हम देखते हैं भारतीय कला संसार इन चार चित्रकारों के इर्द-गिर्द फलता फूलता दिखाई देता है।

सवाल: भारत में कला संस्‍थान चाहे वे आर्ट के होंसंगीत के या साहित्‍य के केंद्र रहे होंइनकी हालत खराब है। इन्‍हें फिर से जीवंत करने के लिए क्‍या प्रयास हो सकते हैंआपकी क्‍या सलाह है।
जवाब: यह दुर्भाग्य है कि कला संस्थान की दुर्गति देखना पड़ रही है। किन्तु इस दुर्गति के लिए ज़िम्मेदार भी हम ही हैं। मुझे ये भी लगता है कि भारतीय मानस इस बात के महत्व को नहीं समझता। हम आने वाली पीढ़ी के प्रति घनघोर गैरज़िम्मेदाराना रुख़ अपनाये रहते हैं। हमें लगता है कि दुनिया हमारे साथ ही ख़त्म हो जाने वाली है। जिस सरकार को हम चुनते हैं, वह भी हमारी तरह ही सोचते हैं और कुछ नहीं करते। इन्हें जीवन्त करने के लिए जो किया जाना है वो इस माहौल में असम्भव है। हमारी सरकार की स्तिथि उस वृहन्नला की तरह है जो ढोंग बहुत करेगा किन्तु कर कुछ नहीं सकता।

सवाल: आप चित्रकार के साथ ही लेखक भी हैंआपने कई किताबें लिखी हैं। चित्रकारी और लेखन में क्‍या कोई संबंध हैया दोनों कैसे एक दूसरे अलग हैं।
जवाब: हमारी परम्परा में चित्र लिखे जाते हैं। अभी भी झाबुआ गांव में पिठोरा चित्रकार को लिखंदरा ही कहते हैं। मुझे नहीं लगता कि इसमें भेद किया जा सकता है।

सवाल: कला का भविष्‍य कैसा हैऔर भविष्‍य की कला कैसी होगीआप इसे कैसे देखते हैं।
जवाब: इसका जवाब कला ही देगी। चूंकि वह भविष्योन्मुखी है अत: उसका प्रकटन अपने में अचम्भा है। और अचम्भे को परिभाषित करना या उसका पुर्वानुमान लगाना सम्भव ही नहीं है। किसने सोचा था कि अनीश कपूर अंधेरे का चित्रण कर सकेंगे। उन्होंने बहुत पहले कहा था ‘I want to paint darkness.’ अब यह बात ही चित्रकला के ख़िलाफ़ थी। चित्र का संसार ही रोशनी के चित्रण पर टिका है। हम सब जानते हैं ‘colour is a function of light’ अब इसको अनीश कपूर ने ख़ारिज कर दिया। वे अंधेरे को चित्रित ही नहीं करते उसे शिल्पों में भी ले आए।

सवाल : न्‍यूड पेंटिंग भी एक जॉनर रहा है चित्रकला मेंआप इसे कितना जरूरी मानते हैंआजकल एक्‍टर रणवीर सिंह अपनी न्‍यूड तस्‍वीरों को लेकर चर्चा में हैं।
जवाब : चित्रकला के शिक्षण में nude पेंटिंग एक महत्वपूर्ण विषय होता है। इसे करने से विध्यार्थी को शारारिक अनुपात, रंग संयोजन, light-n- shade, और Anatomy की संरचना समझने में मदद मिलती है। वैसे यह पश्चिमी पद्धति के पाठ्यक्रम का हिस्सा है और हमारे देश के शुरुआती कला महाविद्यालय की स्थापना अंग्रेजों द्वारा की गई है अत: पाठ्यक्रम भी उन्हीं के द्वारा तय किया गया है। देश के सभी महाविद्यालय में आख़िरी वर्ष में पढ़ाया जाता है। मेरे साथ एक दिलचस्प क़िस्सा हुआ। हमारे कॉलेज में पिछले बीस वर्षों से nude study बन्द थी। हमें अन्दाज़ा भी नहीं था कि nude study होती है। हमारे प्राचार्य चन्द्रेश सक्सेना सभी विद्यार्थी पर कड़ी निगाह रखते थे। आख़िरी साल का अन्तिम महीना था। सक्सेना सर ने देखा कि हमारी कक्षा कुछ ज़्यादा ही गम्भीरता से अपनी पढ़ाई करती है। हम लोग कॉलेज के बाद भी काम किया करते थे और इसकी अनुमति भी सर से ले रखी थी। एक दिन सर ने हमें बुलाया और कहा आप लोग यदि एक वादा करें तो मैं कुछ प्रबन्ध कर सकता हूं। हम सभी ने कहा सर आप जो कहें वो हम करेंगे। सर ने कहा यदि आप लोग अपनी कक्षा में दूसरी कक्षा के विद्यार्थी को न आने दें तो मैं एक महीने के लिए nude-study की व्यवस्था कर सकता हूं। हम लोग हतप्रभ हुए और सर ने हमारे लिए nude बिठाया। ये हम सब के लिए आश्चर्य और एक ख़ुशी की बात थी। एक महीने हम सबने पूरी तन्मयता से पढ़ाई की। ये अब कम होता जा रहा है। हमारे बाद भी कभी nude मॉडल नहीं बिठाया गया। दूसरे महाविद्यालयों में भी कम होता जा रहा है। छात्र गूगल की शरण में हैं। किन्तु उससे सही दिशा नहीं मिल सकती।
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