हर औरत होती है कविता
महिला दिवस विशेष
इबादत के लिए उठेभीगे हाथउसमें सूखे पत्तेअपमानधर्मकर्म और शर्म को भर लेने के बादजो जगह बची थीउसमें भर दीऔरत नेएक छोटी सी उम्मीदमहिला दिवस यहीं से शुरू होगायहीं खत्ममेरे समय की औरतेंलड़कियां फुटबाल की तरह उछल कर खेल लेतीं हैं इन दिनोंऔर अपने सीने में सीलन को दबाएमुस्कुरा भी लेती हैंलड़कियों के पास अब अपना एक आसमान हैअपनी पगडंडीअपनी कुटियाअपनी हंसीअपना दुपट्टासमय के साथ बदल गई हैं लड़कियांकालेज के बार भेलपूरी खाते हुएयहां-वहां झांकतीं नहीं वेखुश रहने लगी हैं लड़कियांअपमान पी गईं हैं लड़कियांहां, बदल गईं हैं लड़कियांबादलों के बीच हर औरत लिखती है कविताहर औरत के पास होती है एक कविताहर औरत होती है कविताकविता लिखते-लिखते एक दिन खो जाती है औरतऔर फिर सालों बाद बादलों के बीच सेझांकती है औरतसच उसकी मुट्ठी में होता हैतुड़े-मुड़े कागज-साखुल जाएतो कांप जाए सत्तापर औरत ऐसा नहीं चाहतीऔरत पढ़ नहीं पाती अपनी लिखी कवितापढ़ पाती तो जी लेती उसेइसलिए बादलों के बीच से झांकती है औरतबादलों में बादलों सी हो जाती है औरत... ।