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Written By WD

यहां दुनिया ने औरत के दिल के छाले नहीं देखे

यहां दुनिया ने औरत के दिल के छाले नहीं देखे - Women's Day
शकुंतला सरूपरिया
 
इस जालिम दुनिया में कंगाल है ये लड़की,
जिस सिम्त नजर डालो बदहाल है ये लड़की।
अफवाहें सारी हैं कि खुशहाल है ये लड़की,
कोई देखे हकीकत में किस हाल है ये लड़की? 
 
न जाने क्यों इस मुल्क में सालों से बेटियां हर जुल्म के निशाने पर हैं। रूढ़ियों, परंपराओं और कई वर्जनाओं में इज्जत और मर्यादा के नाम पर त्यौहार, व्रत और रोजों का फरमान निभाती असंख्य बेटियां इस बर्बरता की बढ़ते समाज की हकीकत के खि‍लाफ कुछ नहीं बोलतीं।


 


आज जिंदा दुनिया नहीं, अजन्मी दुनिया में कदम रखते कन्या भ्रूणों की बढ़ती संख्या को देख कर उनके टुकड़ों को, उनके खून के कतरे-कतरे को, उनकी अस्मिता के खतरे को देखते हुए लगता है, कि इस समाज में कोई है जो बेटियों को पसंद नहीं करता है। कोर्ई है जो किसी तनाव या दबाव के कारण उसकी पैदाईश से डरता है । कोई है जो बेटी को कमतर और बदतर मान कर उसे अच्छी निगाहों से नहीं देखता। कोई है तो उसे कोख में मारने का हर चंद उपाय और तरीके ढूंढ रहा है। इस मुल्क में आम परिवारों की निगाहें सिर्फ बेटों का स्वागत में पलक पांवड़े बिछाना जानती हैं। 
                               
पंछी दो जन्में घर आंगन में। 
एक पिंजरे में रहे, एक गगन में॥
 
बिना स्वागत के नन्हें कदमों से आंगन नापती बेटियों की दुनिया का विस्तार परिजनों की नजरों की सीमा से ज्यादा नहीं होता। वे खामोशी से घर का कोई न कोई काम करती रहतीं हैं, पर अच्छा खाने को तरसती हैं। पढ़ाई से तो जब चाहे हटा ली जाती हैं, फिर भी परिवार की खुशहाली की कामना में जुटी बेटियां हमेशा अच्छे इलाज, तंदुरूस्ती के अभाव में बचपन से ही स्नेह, आत्मीयता को तरसती, बेमौसम मुरझाई-सी पलती हैं।

10-12 साल की उम्र से ही बदल जाती है यहां बेटियों की दुनिया, बदल जाते हैं सारे स्पर्श, अचानक कुछ तीखी नजरें, कुछ मटमैली नजरें चीरती रहती हैं, गाहे-बगाहे उनका दिल। सहम कर अक्सर किसी कछुए की तरह जीना होता है बेटियों को। जब बढ़ने लगती हैं बेटियां ऊबड़-खाबड़-सी घास की तरह घरों में, तो जरा-सा सिर उठाने के काबिल होते ही काटने वाली मशीनें उन्हें मखमल बनाने का सौदा किए हमवार करती रहती हैं। घर में ही आस-पास तैयार अदृश्य बाड़े में कितनी ही बेटियों के दफन होने लगते हैं सपने, मातमी सुर देती हैं उनकी उम्मीदें वहां, और बेसुर होने लगते हैं उनके जीवन गीत भी।

सच कहूं तो - आज भी सोच नहीं बदली, जमाना बदला है। बेटियों ने खौफ के साथ मुकद्दर में बस आंसू पाए। रेत की मानिंद होती हैं बेटियां, जो गीली होने पर ढल जाती हैं किसी भी सूरत में। पर बहुत कम होती हैं तो हवा के साथ माथे बैठ पाती हैं किसी के, जो कभी आंखों में गिर कर हैरान कर देती हैं किसी को। 
 
कहते हैं कि हिंदुस्तान में जो बेटियां बर्फ नहीं बनतीं, या तो वे खुद ही जल जाती हैं या जला दी जाती हैं। जबकि एक अकेली होकर भी कारवां खड़ा करती हैं बेटियां। वे सबके अरमानों को पंख और परवाज दोनों देती हैं, सबके सपनों में रंग भर देती हैं, लहरों के विपरीत बह सकती हैं। इस धरा की खास उपलब्धि हैं बेटियां, सबके दिलों पर लगा सकती हैं मोहर अपनी पूर्णता की। क्योंकि बेटियां हर रूप में इस सृष्टि का आधार हैं, विश्वास हैं और आस्था भी।
 
इस दौर में हर वक्त किसी न किसी चुनौती से जूझती बेटियां, उम्र के हर पड़ाव पर बिना घर और हिफाजत के कई बार मर्दों के जुल्मों और प्रताड़ना की शि‍कार हो रहीं हैं, जिसके आंकड़े इस सभ्य समाज को चौंकाते भी नहीं। तो आईए इस विश्व परिवार में संतुलन और सौहार्द के लिए हम अपने विचारों के कैनवास पर नए रंग भरें, जहां एक बालिका, बेटी, नारी, औरत, महिला, स्त्री जो हर रिश्ते की धुरी है, उसकी शि‍कायतों के मटमैले रंग न दिखाई दें। मन तो रोता है क्योंकि.....
 
यहां दुनिया ने औरत के दिल के छाले नहीं देखे,
औरत ने यहां अक्सर अपने रखवाले नहीं देखे।
सदियां गुजर गई बेजार, गुलामी में यूंही,
औरत ने अंधेरे देखे बस उजाल नहीं देखे।