प्रिय आयशा,
मैं तुम्हें हर रोज खत लिखना चाहती हूं, जिस दिन से गई हो, हर पल तुम मेरे दिल-दिमाग में हो....
नदी, स्त्री और प्रेम.... इन तीनों के बिना कल्पना नहीं की जा सकती जीवन की.... और आयशा जिसके नाम का मतलब ही जीवन, समृद्धि और प्यार था.. तुम स्त्री थीं, प्रेम में डूबी थीं और नदी में समा गई... तुम्हारे जाने से सिर्फ एक स्त्री नहीं खत्म हुई, उसके साथ प्रेम समाप्त हुआ, उसके साथ भरोसा समाप्त हुआ, उसके साथ जिंदगी की वह आश्वस्ति समाप्त हुई कि जब अकेले होंगे हम तो कोई थाम लेगा हमारा हाथ...
रूठकर, यही सोचकर हम चलते हैं कि कोई रोक लेगा, मना लेगा कोई और जब कोई नहीं रोकता तब जर्रा-जर्रा बिखर जाती हैं हम. .. या तो खामोश होकर लौट आती हैं, दिल के बजाय दिमाग से जीने लगती हैं.... और हर शिकवे-शिकायत पी लेती हैं.... जीवनसाथी को लगता है समझदार हो गई है स्त्री, पर नहीं...
वह दूर हो रही है, अगर वह लड़ नहीं रही है।
वह अलग हो रही है भीतर से, अगर वह सवाल नहीं कर रही है....!
दिमाग से जीवन कुछ ही स्त्रियां जी पाती हैं...जो सच्ची होती हैं, जो प्यार करती हैं, जो 'आयशा' होती हैं वे सीधे तर्क कर सीधे रास्ते ही अपनाती हैं, धारा से उलट नही चल पाती और बह जाती हैं.... नदी के साथ तुम्हारी तरह.. किनारों पर छोड़ कर असंख्य सवाल... वे बह जाती हैं... हमेशा के लिए...तुमने वीडियो बना लिया, पर नदी में समाहित हर मजबूर देह ऐसा कहां कर पाती हैं...?
प्रिय आयशा, 8 मार्च से पहले तुम हर स्त्री को स्तब्ध कर गई... मुझे लगा जैसे तुम हर स्त्री को उसके भीतर की स्त्री से मिला गई, हर स्त्री थोड़ा डरी, थोड़ा सचेत हुई और सोचने को मजबूर हुई कि आखिर क्या है एक स्त्री की जिंदगी.... जीवन भर समझौते करती, सहारे पर जीती...सुख और शांति के कोने तलाशती है लेकिन हाथ में क्या आता है, नदी की धारा, आग की लपटें, फांसी की रस्सी, जहर की पुड़िया....तरीके भिन्न हो सकते हैं लेकिन मरती तो किसी न किसी घर की 'आयशा' ही है....
नहीं आयशा, इस तरह जाकर तुम कितने सारे लोगों के दिल के टुकड़े कर गई हो.. कितनी मां के कलेजे को छलनी कर गई हो.. कितने पिताओं को भीतर ही भीतर जार जार रूला गई हो....
क्या तुम्हें याद भी होगा कि जब तुम्हारा गुलाबी अवतरण हुआ होगा.... तब अब्बू और अम्मी ने कैसे भींच लिया होगा, तुम्हें क्या पता कितनी बार तुम रूठी होगी कितनी बार तुम्हें मनाया होगा...कितनी मिन्नतों के बाद तुम कुछ खाती होगी... कैसे तुम बड़ी हुई .... यह सब तुम्हें नहीं पता है यह वे जानते हैं जो तुम्हारे जन्मदाता हैं....तुम भूल गई होगी वरना मां को ऐसी पीड़ा के बीच छोड़कर जाने की तुम हिम्मत नहीं करती....
एक आरिफ के लिए, एक लालची के लिए, एक लोभी के लिए तुम कितने लोगों को कभी न मिटने वाला दंश दे गई... तुम्हें लगता है धोखा तुमने खाया पर तुमने क्या किया? तुमने भी तो अपने अपनों को धोखा ही दिया है...
एक स्त्री की ताकत का अंदाजा तक नहीं लगा सकी तुम, अपनी अपार-असीम संभावनाओं को खुद अपने साथ ही बहा ले गई....
प्रिय आयशा, तुम ही बताओ, 8 मार्च को महिला दिवस कैसे मनाऊं? जब तक चंद रुपयों की खातिर मासूम जिंदगियां बहती रहेंगी, जलती रहेंगी, तबाह होती रहेंगी.... हम किसी सवाल का जवाब देने के काबिल नहीं बचेंगे....आयशा, तुम कहां हो, सुन रही हो....?