बाल विवाह : आग में झुलसती बच्चियां
महिला दिवस : आंकड़ों की खामोश चीख
पिछले दिनों राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ने कहा था कि बाल विवाह रोकने के कानून का सख्ती से पालन कराए जाने की जरूरत है क्योंकि तभी इस तरह के विवाह पर पूर्णतः रोक लग सकती है। आजादी के छः दशक बीत चुके हैं। देश ने हर क्षेत्र में उन्नति की नई गाथाएं लिख दी हैं परंतु अभी भी बाल विवाह का अस्तित्व भारत के बच्चों का जीवन अंधकारमय कर रहा है। भारत में हर साल होने वाली 45 लाख शादियों में से 30 लाख दुल्हनों की उम्र 15 से 19 के बीच होती है। 'राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण' के अनुसार जन्म लेने वाले कुल बच्चों में 19 प्रतिशत की मांओं की आयु 15 से 19 के मध्य की होती है। इतनी कम आयु में मां बनने का परिणाम, महिला के स्वास्थ्य पर गहरा आघात। '
द लांसेट' पत्रिका में भारत और अमेरिका के सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने भारत की 20 से 24 आयु वर्ग की 22,807 महिलाओं की स्थिति पर अध्ययन किया गया और पाया कि 44.5 प्रतिशत की शादी 18 वर्ष की उम्र में ही हो गई थी। इनमें से 2 2.6 प्रतिशत महिलाओं का विवाह 16 वर्ष से पहले और 2.6 प्रतिशत का 13 वर्ष से पहले हो गया। यह तो चुनिंदा महिलाओं पर किया गया अध्ययन है, अगर संपूर्ण भारत की बात करें तो आंकड़े और भी डरावने हैं। मध्यप्रदेश में 75 प्रतिशत लड़कियां 18 वर्ष से पहले ब्याह दी जाती हैं जबकि आंध्र प्रदेश में यह आंकड़ा 71 प्रतिशत, राजस्थान में 68 प्रतिशत, बिहार में 67 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में 64 प्रतिशत है। यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि केरल जैसे उच्च साक्षरता वाले राज्य के दो जिलों में कुछ समुदाय बाल विवाह के घोर समर्थक हैं। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार 'बाल विवाह' स्वास्थ्य को अपंग बनाने वाला और सामाजिक बोझ है। एक बात तो तय है कि बाल-विवाह को त्वरित गति से रोकने की जरूरत है। इसके दो ही रास्ते हैं 'जन जागृति' और 'कानून का डर'। झारखंड राज्य में देवघर जिले के सोनारायठाढ़ी गांव के युवक 'सुन लो भईया सुन लो बहना। बाल विवाह कभी न करना....' जैसे गाने गाकर प्रजनन एवं यौन स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता फैलाने का काम कर रहे हैं।