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Written By स्मृति आदित्य

नई छवि से खतरा नहीं : पुरुष उवाच

भारतीय नारी का नया रूप चौंकाने वाला है

नई छवि से खतरा नहीं : पुरुष उवाच -
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स्त्री, महिला, खवातीन, औरत, वामा, नारी और वुमन। यह है देश की आधी आबादी को नवाजे जाने वाले संबोधन। संबोधनों की इस भीड़ में एक और शब्द है आज की नारी। आज नारी का एक नया तेजस्वी और चमकदार रूप उभरा है। आज वह ना सिर्फ मानसिक और वैचारिक रूप से स्वतंत्र हुई है बल्कि उसने दक्षतापूर्वक अपनी पहचान स्थापित की है। किन्तु क्या महिलाओं की यह नई छवि समाज के लिए खतरे का संकेत है?

खासकर पुरुषों को क्या यह डर, आशंका या चिंता है कि अब भारतीय नारी पहले जैसी नहीं रहेगी? अपनी पारंपरिक और घरेलू छवि को नकारते हुए वह पुरुषों से आगे निकल जाएगी? क्या नारी स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक अपने घर की नारियों के नए रूप को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं?

महिलाओं की नई छवि से उभरी आशंका पर हमने समाज के अलग-अलग वर्ग के पुरुषों से बात क‍ी। सुखद आश्चर्य कि पुरुषों ने बड़े ही सकारात्मक अंदाज में इस छवि का स्वागत किया है।

लेखक-पत्रकार शशांक दुबे(45) मुंबई :

हम एक विवेकशील समय में रह रहें हैं। यह एक बेहतर समय है कि जब हम इस विषय पर स्वतंत्र सोच का निर्माण करें। आज की स्त्री हर छोटी-बड़ी बात के लिए पुरुषों पर निर्भर नहीं है। अगर हमें देश की प्रगतिशीलता पर ध्यान केन्द्रित करना है तो आधी आबादी के तनाव और कष्टों को भी समझना होगा। अगर नई छवि को आप नकारात्मकता से जोड़ कर देखते हैं तो मैं इसे नहीं मानता। नकारात्मक स्वभाव स्त्री-पुरुष दोनों में हो सकता है। वह व्यक्ति सापेक्ष होता है। उसका संबंध प्रगतिशीलता से नहीं है। जहाँ तक मूल्यों का प्रश्न है। मूल्य अगर सुविधा के लिए बनाए जाते हैं तो उनका खत्म होना निश्चित है और अगर मूल्य बेहतरी के लिए है तो वे बचे रहेंगे। मर्यादा और स्वतंत्रता महिलाओं को खुद तय करने दीजिए। उनके विवेक और समझ पर विश्वास करने से ही समाज में उजास आएगा। मैं महिलाओं की प्रखर और स्वतंत्र छवि का स्वागत करता हूँ।

साहित्यकार प्रभाकर श्रोत्रिय(65) नई दिल्ली :

नई छवि को हम दो रूपों में देखते हैं। एक आप उस फैशनेबल अभिजात्य वर्ग की महिला को मान सकते हैं जो हर समय हर युग में मौजूद थी। लेकिन जो दूसरी छवि मैं देख पा रहा हूँ उनमें बौ‍द्धिक और वैचारिक समझ बढ़ रही है। अगर हमें पूरे जीवन की सत्यता को समझना है तो नारी के इस रूप को स्वीकारना होगा। हमें जिम्मेदारियों के साथ उसके अधिकारों और शक्तियों को भी सहजता से लेना होगा। मैं यह मानता हूँ कि आज की महिलाओं का दृष्टिकोण सकारात्मक है। हमें उनसे आतंकित होने की जरूरत नहीं है। क्योंकि स्त्री हो या पुरुष परंपरा, परिवेश संस्कार और देश के बीज हर व्यक्ति में विद्यमान रहते हैं।वे बीज बराबर काम करते रहते हैं। यह तथ्य हाल ही में डीएनए संबंधी शोध से सामने आया है। मुझे नहीं लगता कि भारतीय महिलाओं में एकदम से उच्छ्रंखलता आ जाएगी। अपवाद संभव है लेकिन अपवाद कभी नियम का रूप नहीं ले सकते। महिलाओं के नए रूप से सामाजिक चरित्र में बदलाव आएगा। पुरुषों के स्वभाव में बदलाव आएगा। पुरुष स्त्रियों के प्रति एक नई सोच के साथ संवेदनशील होगा।

युवा कवि एवं चित्रकार कृष्णकांत(41) जयपुर :

पहले हम यह तय करें कि किस वर्ग के महिलाओं और पुरुषों की बात की जा रही है। क्योंकि वर्ग के अनुसार ही दायरे और सोच निर्मित होती है। फिर भी मेरा मानना है कि पुरुष चाहे समाज के किसी भी वर्ग का हो। भारतीय परिवेश में आज भी उसे स्वतंत्र स्त्री के साथ पेश आने की, उसके साथ रहने की तमीज नहीं आई है। भारतीय समाज में आज भी पाखंड व्याप्त है। पुरुष स्त्री के प्रति जो सोच रखता है उसे ईमानदारी से अभिव्यक्त करने का साहस उसमें नहीं है। उन पुरुषों में मैं खुद को भी शामिल करता हूँ। आज की नारी ने अपने लिए जो जगह बनाई है उसके पीछे एक लंबी संघर्ष गाथा है। यह जगह उसने अपनी प्रतिभा के दम पर हासिल की है। यहाँ तक आने के लिए उसने जो कीमत चुकाई है उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। मैं जो खतरा महसूस कर रहा हूँ वह अपने लिए या पुरुषों के लिए नहीं बल्कि स्वयं स्त्री के प्रति है। बाजार और पूंजीवाद ने मिल कर जो नई छवि निर्मित की है जो स्वतंत्रता की परिभाषा रची है उससे स्त्री को ही सावधान रहने की आवश्यकता है। आजादी के कुत्सित अर्थ उसके दिमाग में इस कुशलता से रोपित किए गए हैं कि वह शोषण के नवीनतम रास्तों को ही आजादी मान बैठी है। यह स्थिति पारंपरिक भारतीय मूल्यों के खंडन का कारण बनी है। आज की नारी खुले और खिले रूप में स्वीकार्य है मगर आज का समाज भी अपनी मर्यादा निर्धारित करें वरना आदिम युग और सभ्य युग में अंतर क्या रह जाएगा।

आईटी छात्र अपूर्व जोशी(19) बेंगलूरु :

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मैं मानता हूँ कि भारतीय महिला की यह नई छवि रोमांचित कर देने वाली हैं। मगर किसी तरह का खतरा या आशंका नहीं है। हम लड़कों में यह चेतना या कह लीजिए एक समझ आई है कि प्रतिभा हर दौर में आगे रहती है चाहे वह पुरुष हो या महिला। मैं आगे बढ़ने वाली सहकर्मियों से अपसेट नहीं होता क्योंकि मैं यह जानता हूँ कि मुझे कितना आगे जाना है।मुझे अपनी योग्यता पर विश्वास है। सहकर्मी लड़की से पहले साथी समझी जाती है फिर कुंठा या असुरक्षा कैसी? अगर मेरी जीवनसाथी स्वतंत्र सोच वाली है तो यह मेरे करियर के विकास में सहायक होगा। किन्तु पारिवारिक मूल्यों में मेरा विश्वास है तो उसका भी होना चाहिए। मेरी उससे यह अपेक्षा इसलिए नहीं है कि वह महिला है। जीवनसाथी होने के नाते मैं उससे इस समझदारी की उम्मीद करता हूँ । इसमें गलत क्या है?

सॉफ्टवेयर इंजीनियर रोहित जैन (26) नोएडा :

मै महिलाओं की उन्नति को अपने लिए खतरा नहीं मानता। आज के प्रोफ़ेशनल माहौल में ज़िंदगी की ज़रूरतें, ज़िंदगी जीने का तरीका, लोगों की सोच ये सब बदल गए हैं। ऑफिस में महिलाओं के साथ काम करते हैं, स्कूल-कॉलेज में लड़कियों के साथ पढ़ते हैं, आजकल के अधिकतर पुरुष वर्ग को शुरू से ऐसा माहौल मिलता है कि ये दकियानूसी और अहंपूर्ण बातें उनके प्रेक्टिकल दिमाग में आती ही नहीं हैं। ऐसा शायद फिल्मों और टीवी पर ही होता है, असल ज़िंदगी में व्यक्ति के ज़हन में पहले से ही इतनी चीजें चल रही होतीं हैं कि इस तरह के फ़ालतू के कम्पैरिज़न उसके दिमाग में आते ही नहीं हैं। ज़िंदगी के प्रति नज़रिये में बदलाव के कारण कामकाजी महिलाएँ और उनके साथी भी अपनी पर्सनल और पारिवारिक ज़िंदगी व ज़िम्मेदारियों में सामन्जस्य बिठाना सीख गए हैं। इसलिए मुझे तो कम्-अज़-कम महिलाओं की वर्तमान छवि से किसी प्रकार का खतरा या परेशानी महसूस नहीं होती।

डॉ. सुबीर जैन(41) सर्जन, इंदौर :

महिलाओं के नए अवतार से मैं काफी प्रभावित हूँ। इस नई छवि में मैं शामिल करता हूँ उन साहसी महिलाओं को जो नौकरीपेशा है। हर मोर्चे पर संघर्ष करती है। मैं यह कतई नहीं मानता कि जो महिलाएँ निडर होकर घरों से बाहर काम कर रही है उनमें पारिवारिक मूल्य नहीं रह जाएँगे । मैं अपने शहर में निर्भिक महिलाओं को देखकर खुश होता हूँ। अपने प्रोफेशन में भी आगे बढ़ने वाली महिलाओं की दिल खोलकर तारीफ करता हूँ। मेरे विचार से स्त्री की वर्जनाओं, कुंठाओं और डर से मुक्ति होने पर समाज का अधिक बेहतर विकास होगा। अभी महिलाओं की इस छबि में और निखार आना है और वह जल्द आएगा।

सुधीर निगम (34) पत्रकार, भोपाल :

मैं स्त्रियों की इस नई छबि को अच्छा मानता हूँ। खुद के लिए भी और समाज के लिए भी। उनमें अधिकारों के प्रति जो जागरुकता आई है उससे फिज़ा बदल गई है लेकिन स्वतंत्रता की इस जिद में बच्चों पर असर न पड़े इसका ध्यान रखना जरूरी है और यह बात स्त्री-पुरुष दोनों पर लागू होती है।

डॉ. शाहिद असगरी (23), अहमदाबाद :

मुझे लगता है कि महिलाओं की नई छबि से परिवार बिखरे हैं। हमारे भारतीय मूल्य जोड़ने की बात करते हैं और ऐसा महिलाओं की गंभीरता के कारण ही संभव है। महिलाओं के आगे बढ़ने से मुझे आपत्ति नहीं है लेकिन हाँ यह सच है कि एक आशंका अब शादी से पहले मुझे है कि मेरी पत्नी स्वतंत्रता की क्या परिभाषा मानती है। वह परिवार को उपेक्षित कर आगे बढ़ने को सही मानती है या परिवार की जिम्मे‍दारियों को निभाकर अपनी जगह बनाना पसंद करती है। परिवार अगर उसके लिए बंधन है, बच्चे अगर उसके लिए बोझ हैं और रिश्ते अगर उसके लिए मजबूरी हैं तो ऐसी नई छवि का मैं स्वागत नहीं कर सकता। मैं कमिटमेंट्‍स में विश्वास रखता हूँ तो उसे भी रखना होगा।

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संजय द्विवेदी (35) जी टीवी प्रमुख, छत्तीसगढ़ :

देखिए जब भी कोई परिवर्तन होता है तो समाज उसे तुरंत स्वीकार नहीं करता। थोड़ा कोलाहल तो मचता ही है लेकिन जिसे बदलना है वह तो बदलेगा। उसे रोका नहीं जा सकता। जो लोग इस बदलाव से रुष्ट हैं उन्हें भी कल सहमति की मुद्रा में आना होगा। मेरे विचार से स्त्री की आक्रामक भूमिका से घबराने की जरूरत नहीं है। मुझे महिलाओं की प्रतिभा और क्षमता पर कतई संदेह नहीं है। परिधान, पद और भूमिका से संस्कृति को तो नहीं पर हाँ पुरुष सत्ता को अवश्य चोट पहुँची है क्योंकि यह सच है कि महिलाएँ जगह घेर रही हैं और जिन्हें अपनी जगह छोड़नी पड़ती है उन्हें तकलीफ तो होती है लेकिन समाज की उन्नति के लिए स्त्रियों की इस नई रचनात्मक छबि को सकारात्मक दृष्टि से देखा जाना चाहिए।