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Written By ND

खामोश क्रांति की वाहक...

खामोश क्रांति की वाहक... -
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बहुत कुछ किया जाना बाकी है
- सुषमा स्वरा
हर विशेष दिवस की तरह महिला दिवस भी हमें अवसर प्रदान कर रहा है कि आजादी के बाद हमारे देश में महिलाओं की स्थिति में क्या सुधार आया? निष्पक्ष रूप से कहूँ तो पिछले साठ वर्षों में शिक्षा के स्तर पर, स्वावलंबन की दृष्टि से, सामाजिक समानता की दृष्टि से और राजनीति में भागीदारी की दृष्टि से महिलाएँ आगे बढ़ी हैं। उन क्षेत्रों में भी जो महिलाओं की दृष्टि से वर्जना के क्षेत्र माने जाते थे। कहा जाता था कि महिलाएँ इन क्षेत्रों में काम नहीं कर सकतीं या उनके योग्य नहीं हैं।

यह क्षेत्र सेना, नौसेना, वायुसेना, पुलिस, अंतरिक्ष आदि थे, लेकिन आज इन क्षेत्रों में भी महिलाएँ अपनी योग्यता साबित कर आगे बढ़ रही हैं। इस क्षेत्र में भी वे पुरुषों से किसी मामले में कम नहीं हैं, लेकिन इतने भर से मैं नहीं कह सकती कि महिला सशक्तीकरण का काम पूरा हो गया है। असल में तो अभी बहुत कुछ करना बाकी है।

हमारे सामने आज भी कई चुनौतियाँ हैं। महिला साक्षरता, महिलाओं का स्वास्थ्य, महिला स्वावलंबन, प्रशासनिक और राजनीतिक क्षेत्रों में भागीदारी। कई राज्यों में महिला साक्षरता दर अभी भी शत-प्रतिशत नहीं है। महिला स्वास्थ्य आज भी चिंता का विषय है। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है।

मैं मानती हूँ कि जब कोई महिला शिक्षित होती है तो पूरा परिवार शिक्षित होता है क्योंकि हम मानते हैं कि बच्चे की पहली शिक्षिका उसकी माँ ही होती है। महिला स्वस्थ होती है तो पूरा परिवार स्वस्थ होता है। जहाँ तक स्वावलंबन का सवाल है तो इस कार्य में शिक्षा और जागरूकता दोनों महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

ND
सिर्फ कानून बनाने से बात नहीं बनेगी
- नजमा हेपतुल्ला

इस में कोई दो राय नहीं कि पिछले दो दशकों में महिलाओं ने हर क्षेत्र में उन्नति की है। राजनीतिक, सामाजिक और आर्र्थिक क्षेत्र में महिलाओं ने नए मुकाम हासिल किए हैं। लेकिन उन्नति की इस दास्तान के बावजूद यह कहने में भी मुझे संकोच नहीं है कि आज भी महिलाओं से कई स्तरों से भेदभाव हो रहा है।

वह अभी भी कुरीतियों की बेड़ियों में जकड़ी हुई है। महिलाओं की उन्नति का एक पहलू यह है कि देश की राष्ट्रपति महिला है। सत्ताधारी दल की अध्यक्षा महिला है और लोकसभा में विपक्ष की नेता महिला है। लोकसभा अध्यक्ष भी महिला है लेकिन इसके बावजूद संसद और राज्यसभा में महिलाओं से संबंधित 33 प्रतिशत आरक्षण की माँग पूरी नहीं हो पाई है।

राज्यसभा से पारित बिल लोकसभा में पारित नहीं हो पाया है। मैं मानती हूँ कि केवल महिला राष्ट्रपति बना देने से या कोई दूसरे महत्वपूर्ण पद महिलाओं को दे देने मात्र से महिला सशक्तिकरण नहीं होने वाला है। राजनीतिक मंचों से जो बातें और वायदे महिलाओं के संबंध में किए जाते हैं वह सरकार में आने पर पूरे नहीं होते या फिर आधे अधूरे रह जाते हैं।

हमने पिछले कुछ अर्से में महिलाओं के अधिकारों से संबंधित कई विधेयक पारित कर कानून बनाए, उनके अच्छे परिणाम भी सामने आए। लेकिन क्या इन कानूनों का लाभ आम महिला को मिल पाया है?आज भी शिक्षा के मामले में लड़कों की तुलना में स्कूल छोड़ने वालों में लड़कियों का प्रतिशत अधिक है।

कन्या भ्रूण हत्या अभी हम पूरी तरह नहीं रोक पाए हैं तो दहेज उत्पीड़न के मामले समाज के सामने चुनौती बनकर खड़े हैं। शहरों में स्थिति कुछ बेहतर हुई है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी महिलाओं को अपने हक के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। मेरा अपना खुद का अनुभव रहा है कि उपसभापति होने के कारण मुझे जितना सम्मान मिला उतना महिला के कारण नहीं मिला।

कहने का मतलब है कि यदि महिला किसी ऊँचे पद पर है तब तो थोड़ा बहुत उसे सम्मान मिलता लेकिन यह सम्मान महिला होने के कारण नहीं है। ऊँचे पद पर पहुँचने से पहले उसे कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है। मैं मानती हूँ कि शिक्षा एक ऐसा जरिया है जिसके बल पर कोई महिला अपनी तकदीक बदल सकती है। जब वह पढ़ेगी तो कानून को भी समझेगी और अपने अधिकार को भी। इसलिए शिक्षा और सामाजिक स्तर पर एक बड़े परिवर्तन की जरूरत है।

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महिलाएँ नया अध्याय लिख रही हैं
- वृंदा करा

संसद के भीतर राज्यसभा और लोकसभा के सदनों के बीच पाँच मिनट की दूरी है। इस दूरी को एक साल से भी अधिक समय में महिला आरक्षण विधेयक नहीं नाप पाया। ये हमारी राजनेताओं-राजनीतिक पार्टियों की महिला सशक्तिकरण के प्रति सोच को दर्शाने के लिए पर्याप्त है।

राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में ये विधेयक इतने सालों से अधर में लटका रहा और कांग्रेस की यूपीए सरकार ने इसे जानबूझकर इस स्थिति में अटकाया हुआ है। ये सिर्फ महिलाओं के साथ अन्याय नहीं है बल्कि लोकतंत्र के प्रति अन्याय है। महिला आरक्षण के मुद्दे पर जो ड्रामा सरकार और सरकार का समर्थन कर रही पार्टियाँ कर रही हैं वह शर्मनाक है।

उन्हें किसी भी मुद्दे पर इस तरह का समर्थन नहीं चाहिए होता है, जो वे चाहती हैं वह कर लेती हैं। सिर्फ इस तरह का मेलोड्राम महिला आरक्षण विधेयक पर ही होता है बाकी सारे मामलों में वह इन पार्टियों की कमजोर नस पर हाथ रखती है, काम हो जाता है।

ये सब ऐसे समय हो रहा है जब देश में बहुत से राज्यों में महिलाएँ पंचायत चुनावों या निकायों में चुनकर बेहद जुझारू काम कर रही हैं। देश के कई राज्यों ने अपने यहाँ महिलाओं को स्थानीय निकायों में 50 फीसद आरक्षण दिया है और वहाँ तमाम अवरोधों को चीरते हुए ये औरतें जो नया अध्याय लिख रही हैं वह बेमिसाल है।

इन इलाकों में महिलाओं ने अपने संघर्ष और दावेदारी से जो नई लकीर खींची है वह ये साबित कर रही है कि उनमें राजनीतिक सत्ता को बेहतर ढंग से चलाने की कितनी क्षमता है। उनके इस नए रूप से पहले ही मुख्यधारा की बुर्जुआ पार्टियाँ आक्रांत हैं।

पुरुषवादी पार्टियों को अपनी कुर्सी खतरे में दिखाई दे रही है। ऐसे में महिलाओं की ये बढ़ी हुई शक्ति इस बात का संकेत दे रही है कि उच्च स्तर पर भी उनकी पहल को ज्यादा दिन तक रोकना संभव नहीं होगा। ये महिला आंदोलन की जीत है। महिला आरक्षण विधेयक जो राज्यसभा की चारदिवारी को पार कर पाया उसके पीछे लंबे समय से महिला संगठनों-कार्यकर्ताओं का संघर्ष था। ये ही संघर्ष आगे भी नई तकदीर बनाएगा क्योंकि एक बात साफ है महिलाओं के बढ़े हुए कदमों को अब पीछे नहीं खींचा जा सकता।
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पहले से ज्यादा सक्रिय हैं महिलाए
- माधुरी दीक्षि

माधुरी दीक्षित इस समय मुंबई में सोनी टीवी के रियलिटी शो झलक दिखला जा में जज के रूप में नजर आ रही हैं। झलक के आखिरी एपिसोड की शूटिंग में व्यस्त होने के बावजूद माधुरी ने नईदुनिया के लिए अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के उपलक्ष्य में अपनी प्रतिक्रिया दी।

बॉलीवुड में महिलाओं की संख्या पहले के मुकाबले अब कई गुना ज्यादा ब़ढ़ गई हैं। पहले तो महिलाएँ सिर्फ नायिका के किरदार में ही नजर आती थीं, लेकिन अब फिल्म निर्माण से लेकर निर्देशन, एडिटिंग, स्क्रिप्ट राइटिंग, कोरियोग्राफी, ड्रेस डिजाइनिंग, हेअर ड्रेसिंग, स्टंट आदि हर क्षेत्र में महिलाएँ नजर आ रही हैं। सिर्फ नजर ही नहीं आ रही हैं बल्कि बेहद ही अच्छा काम भी कर रही हैं।

कुछ निर्देशिकाओं की फिल्में ऑस्कर तक भी पहुँचने की कोशिश में थी। अच्छी और प़ढ़ी-लिखी महिलाओं के आने से पुरुषों की इंडस्ट्री कहे जाने वाले बॉलीवुड में महिलाओं का दबदबा बढ़ रहा है। सिर्फ फिल्में ही नहीं बल्कि छोटे परदे पर भी महिलाएँ बेहतरीन काम कर रही हैं। बॉलीवुड में महिलाओं का बढ़ता दबदबा देखकर मुझे बेहद खुशी हो रही है। उम्मीद है कि आगे भी यही सिलसिला जारी रहेगा।

अखबारों में इतनी शक्ति है कि वह तख्तो ताज पलट सकते हैं। आम जनता को उनके हक की जानकारी अखबार देते हैं। पिछले कुछ समय में अखबारों ने कई घोटालों का पर्दाफाश किया है। अखबार जनता की संपत्ति होते हैं और मुझे लगता है कि सनसनीखेज खबरों के बजाय बेहतरीन और सकारात्मक खबरें प्रकाशित की जानी चाहिए।
खामोश क्रांति करती हैं महिलाएँ
- महाश्वेता देवी

अक्सर जब भी महिलाओं की बात होती है, हम सफलता के तय मानदंडों के आधार पर आकलन करते हैं। हमें मशहूर और सफल रहीं शख्सियतों की याद आती है। सरोजिनी नायडू, इंदिरा गाँधी जैसी महिलाओं ने नए मुकाम गढ़े हैं। ऐसी महिलाएँ मजबूती और दृढ़ निश्चय की प्रतीक हैं। समाज के लिए महान प्रतीक। मुझे लगता है कि महिलाएँ खामोश क्रांति करती हैं। वे "साइलेंट क्रूसेडर" होती हैं। महिलाएँ स्वयंसिद्धा हैं। वे दृढ़ निश्चयी और बलिदानी होती हैं! वे समाज-समूह के कल्याण का काम आसानी से कर जाती हैं। चुपके से अपने मिशन में जुटी रहती हैं। मैं अखबारों में समाज को बदलने वाली आम लोगों के बीच से आने वाली कुछ खास महिलाओं के बारे में लिखने की कोशिश करती हूँ। वे गुपचुप बदलाव ला रही हैं। वे जो कर रही हैं, उसके एवज में कुछ पाने की आकांक्षा नहीं है। मैं कर्मी सोरेन की बात बताऊँ। मेदिनीपुर के एक गाँव में अकेली रहती है।

उसके पास छोटी-सी एक जमीन थी, जिस पर वह धान उगाती थी। उसकी रोजी का वही एक साधन था। कर्मी सोरेन ने अपने गाँव में जूनियर हाईस्कूल बनाने के लिए अपनी वही जमीन दान कर दी। कहा जाए तो उसने अपनी पूरी संपत्ति दान कर दी। यह उसका बलिदान ही तो है। कर्मी सोरेन जैसों की बात कोई नहीं करता। उस जैसी महिलाओं के बारे में कोई जानता ही नहीं। कल्याणी में लक्ष्मी ओरांव रहती है। ट्राइबल लड़की है। बड़ा अच्छा काम कर रही है। अकेले दम पर उसने 22 गाँवों में लोगों को साक्षर कर दिया है। वह सरकार में नौकरी नहीं करती। उसका जज्बा उसे उसके अभियान से जोड़े हुए है।

बहुत पहले मेरे साथ पुरुलिया में चुन्नी कोटाल नाम की आदिवासी लड़की काम करती थी। शबर जनजाति की वह लड़की। उसने जब मैट्रिक किया, तब उसके समाज का कोई दूसरी-तीसरी से आगे का दर्जा नहीं देख पाया था। उसने पीएचडी की। 92 में वह रिसर्च कर रही थी। लेकिन उसका समाज उसे परंपरा तोड़ने का अपराधी मानने लगा। उसके खिलाफ हो गया। असमय एक प्रतिभा का हनन हो गया। समाज के दबाव के चलते उसने आत्महत्या कर ली। लेकिन अब उसका वही समाज शिक्षा की अहमियत समझने लगा है। उसके समाज में काफी बदलाव है। चुन्नी कोटाल ने खुद की प्रेरणा से आसमान छू लिया था। उसके उदाहरण से हमें सीखना चाहिए-समाज महिलाओं के दृष्टिकोण को समझे तो सही। यह समाज को देखना चाहिए कि चुन्नी कोटाल जैसी प्रतिभाओं का असमय हनन न हो।

कुछ महान महिलाओं का उदाहरण सामने रखने से ही हमारे कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती। हम जो लोग समाज के लिए सोचते हैं, उन्हें बड़ा काम कर रही आम महिलाओं का योगदान भी याद रखना होगा। मेरे विचार में ऐसी महिलाएँ "साइलेंट क्रूसेडर" हैं। हमें चाहिए कि उन्हें खोजें और उनके योगदान के बारे में समाज को बताएँ। यह सिर्फ कहने की बात नहीं है कि बच्चे को पहली शिक्षा उसके माँ और नानी-दादी की गोद में मिलती है।

घर में माँ और दादी बच्चे में संस्कार भरती हैं। दादी-नानी की कहानियों, उनके पुचकार में शिक्षा होती है। बच्चे को जीवनशैली का ज्ञान महिलाएँ ही कराती हैं। आम महिलाओं की कामयाबी बहुत बड़ी है। महिला दिवस पर ऐसी ही कामयाबियों को देखने का दृष्टिकोण विकसित करनी चाहिए। मैंने देखा है कि जो महिलाएँ घरों में बर्तन माँजने का काम करती हैं, वे भी दो पैसा बचाकर अपने बच्चों को पढ़ा रही हैं। पढ़ाई से खुद वंचित रह जाने का उन्हें मलाल है। वे चाहती हैं कि उनके बच्चों को यह मलाल न रहे। शिक्षा से समाज को बदला जा सकता है। महिलाएँ शिक्षा से जुड़ती हैं तो आपकी पीढ़ियों को लाभ होता है।

मैं कई प्रदेशों में गई हूँ। 14-14 माइल पैदल चली हूँ। समाज को समझने की कोशिश की है। खासकर आदिवासियों के समाज को। मैंने देखा है कि अक्सर महिलाओं ने ही सामाजिक बुराई खत्म करने की दिशा में पहल की है। मैंने पुरुलिया के आदिवासी शबर समुदाय के बीच 30 साल तक काम किया है। पहले उस समुदाय में डायन बताकर जुल्म ज्यादा होते थे। डायन के नाम पर बुजुर्ग महिलाओं पर अत्याचार ज्यादा होते थे। इसके पीछे लोगों का निजी स्वार्थ भी हुआ करता था। अंधविश्वास के चलते डायन का डर भी हावी रहता था। लेकिन जब से इस समुदाय की औरतों के बीच शिक्षा का प्रसार हुआ, लोगों में से कुरीतियों का डर निकलने लगा।
ये आँधी रुकने वाली नहीं है...
- अंबिका सोन

किसी भी देश और समाज की आधी आबादी (महिलाओं) को विकास की धारा में पूरी तरह शामिल किए बिना तरक्की की बात करना बेमानी है। इसीलिए कांग्रेस के लिए महिला सशक्तीकरण हमेशा प्राथमिकता का मुद्दा रहा है। आजादी की लड़ाई में महिलाओं की बराबर की भागीदारी कांग्रेस के एजेंडे में था। गाँधीजी, नेहरूजी और बाद में इंदिराजी, राजीवजी सभी ने महिला सशक्तीकरण को अपनी पहली वरीयता माना। राजीव गाँधी ने अपनी सरकार के दौरान पंचायतों और स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए ३३ प्रश आरक्षण का प्रावधान किया। तब लोगों ने कई सवाल उठाए थे, लेकिन आज नतीजे सामने हैं कि शहरों से लेकर गावों तक महिलाएँ समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था, उद्योग, पर्यटन, संस्कृति, शिक्षा, विज्ञान, तकनीक हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं।

महिला सशक्तीकरण के इस एजेंडे तो तब और बल मिला जब सोनिया गाँधी ने कांग्रेस का नेतृत्व संभाला। उन्होंने अपने कुशल नेतृत्व, समर्पण और प्रतिबद्धता से न केवल कांग्रेस पार्टी को मजबूत किया, बल्कि 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में केंद्र में सरकार भी गठित हो गई। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने स्थानीय निकायों और पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 फीसद तक का आरक्षण किया है।

कई बाधाएँ भी हैं... : लेकिन महिला सशक्तीकरण की दिशा में कई बाधाएँ भी हैं। आज भी एक मानसिकता ऐसी है जो मानती है कि महिलाएँ पुरुषों से कमतर हैं, या कुछ पुरुषवादी सोच के लोग महिलाओं सशक्तीकरण को पुरुषों के वर्चस्व के लिए खतरा मानते हैं। इसलिए बहानेबाजी की आड़ में कई तरह के तर्क दिए जाते हैं।

राजनीति में महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फीसद आरक्षण देने वाले विधेयक को लंबे समय तक अटकाए रखा गया। पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जातियों और जनजातियों की महिलाओं के नाम पर इसमें अड़ंगा डाला गया लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री की इच्छाशक्ति की वजह से यह विधेयक राज्यसभा में पारित हो गया है।

अभी लोकसभा से इसे पारित होना है। लेकिन राजनीतिक अड़ंगेबाजी और बहानेबाजी की आड़ में इसे रोकने की कोशिश जारी है, जबकि महिलाएँ चाहे किसी भी जाति या संप्रदाय की हों, वे अपने आप में एक वर्ग हैं। सभी महिलाओं की समस्याएँ और भावनाएँ समान हैं। जिस तरह संविधान में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए संसद और विधानसभाओं में आरक्षण है, अगर महिलाओं के लिए भी आरक्षण होगा तो भी इन वर्गों की सीटें उसमें भी रहेंगी।

फिर यह राजनीतिक दलों के नेतृत्व पर निर्भर है कि वह किन महिलाओं को ज्यादा टिकट देते हैं। महिलाओं के लिए 33 फीसद स्थान आरक्षित होने के बाद राजनीतिक दल अपने हिसाब से टिकटों का बँटवारा करते हुए पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक वर्ग की महिलाओं को प्रतिनिधित्व दे सकते हैं। इसलिए राजनीति में महिला सशक्तीकरण में अड़ंगा डालने की बहानेबाजी अब नहीं चलेगी।

भागीदारी बढ़ रही है : इसके अलावा नागरिक उड्डयन, पर्यटन, साज-सज्जा, होटल उद्योग, बैंकिंग, शिक्षा, फैशन, मनोरंजन, प्रबंधन,मीडिया हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है। गाँव-गाँव तक महिलाएँ, लड़कियाँ अपने अधिकारों के लिए आगे आ रही हैं। महिला सशक्तीकरण की यह आँधी अब रुकने वाली नहीं है।