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नज़्म : 'ज़ख़्म और मरहम'
शायर - मेहबूब राही तुम आखिर मेरी क्या हो = सच हो या एक सपना हो जानी अन्जानी सी हो = या एक कहानी सी हो मैं भूल चुका हूँ सबकुछ = वह बीती पुरानी बातें वह प्यारी सुहानी बातें = जानी अनजानी बातें ज़ुल्फ़ों में जीने के दिन = आँखों से पीने के दिन घड़ियाँ वो मसर्रत वाली = प्यार और मोहब्बत वाली ऎसे में अचानक फिर तुम = हालात के मोड़ पे मुझसेक्यों आकर टकराई हो = ज़ख़्म पुराने मेरे फिर से ताज़ा करती हो = क्यों मुझको तुम्हारी आँखें रह रह कर बहकाती हैं = क्यों फिर से तुम्हारी ज़ुल्फ़ें साँसों को महकाती हैं क्यों फूल सा बदन तुम्हारा = ख़ुशबू सी बिखराता है क्यों देख के तुम को फिर से = बीता वक़्त याद आता है क्यों याद दिलाती हो तुम = मेरे वह दिन और रातें वह सपनों की बारातें = वह ख़ुशियों की सोग़ातें मैं सब कुछ भूल चुका हूँ = जब आ ही चुकी हो तो फिर वह ज़ख़्म पुराने मेरे = जो फिर से सुलग उठ्ठे हैं मैं फिर से तड़प रहा हूँ = उन ज़ख़्मों पर तुम अपनी चाहत का मरहम रख दो = वह सुख मुझको लौटा दो बरसों से जिसके लिए मैं = दिन रात तरस रहा हूँ चाहत को मेरी जो तुमने = पहले की तरह ठुकराया हरगिज़ न मैं सह पाऊँगा = बे मौत ही मर जाऊँगापेशकश : अज़ीज़ अंसारी