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Written By अनिरुद्ध जोशी
Last Updated : सोमवार, 13 जुलाई 2020 (11:14 IST)

Shri Krishna 12 July Episode 71 : जब पता चलता है धृतराष्ट्र और जरासंध को कि श्रीकृष्ण जीवित हैं...

Shri Krishna 12 July Episode 71 : जब पता चलता है धृतराष्ट्र और जरासंध को कि श्रीकृष्ण जीवित हैं... - Shri Krishna on DD National Episode 71
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 12 जुलाई के 71वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 71 ) में श्रीकृष्ण का द्वारिका नगरी में भव्य स्वागत होता है। बलराम और श्रीकृष्‍ण दोनों अपने महल के पास जैसे ही पहुंचते हैं तो आकाश में स्थित इंद्र सहित सभी देवता द्वारकाधीश की जय के नारे लगाते हैं और फूलों की वर्षा करते हैं और उनकी आरती उतारकर उनका भव्य स्वागत करते हैं।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
 
द्वारिका पहुंचने के दौरान रास्ते में भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसी लीला की कि जरासंध और उसके साथी यही सोचते रहे कि कृष्‍ण और बलराम दोनों गोमांतक पर्वत की आग में जलकर भस्म हो गए हैं और फिर बाद में जरासंध स्वयं को मथुरा का सम्राट घोषित करके बहुत खुश हुआ। वह मथुरा के सिंहासन पर बैठकर कहता है कि आज हम बहुत खुश है आज हमारे मुकुट में मथुरा नाम का नया हीरा जड़ दिया गया है। समस्त राजाओं और विशेषकर हस्तिनापुर को सूचना भिजवा दो कि मथुरा पर अब यादवों का नहीं, जरासंध का राज है। हमने सुना है कि उन्होंने कृष्ण के चमत्कारों से डरकर हस्तिनापुर के युवराज का पद अपने पुत्र को नहीं दिया, बल्कि भीष्म और द्रोण आदि के जोर देने पर पांडुपुत्र युधिष्ठिर को युवराज घोषित करना चाहते हैं। जाओ उन्हें सूचना दे दो कि कृष्ण आग में जलकर मर गया है। अब कृष्‍ण से डरने की आवश्यकता नहीं है।
 
उधर, हस्तिपानुर में यह समाचार सबसे पहले शकुनि के हाथ में लगता है। यह सुनकर वह खुशी के मारे राजदूत को इनाम देता है और फिर वह कहता है कि यह समाचार भीष्म और विदुर के पास पहुंचा दो। यह समाचार सुनकर भीष्म चौंक जाते हैं तो विदुर कहते हैं कि श्रीकृष्‍ण इस प्रकार मर नहीं सकते परंतु। यह सुनकर भीष्म कहते हैं परंतु क्या? तब विदुर कहते हैं कि यदि वे उस आग में जलकर मरे नहीं तो गए कहां? उनके जीवित होने का कोई प्रमाण अभी तक मेरे पास नहीं है। यह सुनकर भीष्म कहते हैं कि सत्य किसी प्रमाण के सहारे नहीं जीता विदुर और सत्य वह है जो मेरी माता गंगा ने मुझे कहा था कि श्रीकृष्‍ण स्वयं परब्रह्म भगवान है। इसलिए मैं यह कभी नहीं मान सकता कि भगवान की मृत्यु हो गई है और हां तुम्हारे गुप्तचरों के इतने बड़े जाल का क्या लाभ जो कोई सूचना नहीं दे सके। 
 
तब विदुर कहते हैं कि सूचना मिली थी, वह यह कि मथुरा में डोंडी पिटवाकर यह घोषण की गई थी कि कृष्ण ने किसी नई नगरी का निर्माण किया है और वो यादवों को लेकर वहां जा रहे हैं। परंतु वह नगर कौनसा है, कहां है? इसकी सूचना अभी तक नहीं मिली। मेरे गुप्तचर दूर-दूर तक ऐसे नगर की खोज में गए हैं जो नया निर्माण किया गया हो।
 
उधर, यह खबर लेकर शकुनि धृतराष्ट्र के पास जाकर सुनाता है और कहता है कि अब उग्रसेन नहीं महाराज जरासंध मथुरा के सम्राट हैं और मेरे पास तो उनका गुप्त समाचार भी आ चुका है कि दुर्योधन को हस्तिनापुर का युवराज घोषित करो। अब तो कुंति की सहायता करने वाला कोई नहीं रहा। यह सुनकर धृतराष्ट्र अतिप्रसन्न हो जाते हैं और कहते हैं कि पितामह और विदुर इसके पक्ष में नहीं रहेंगे। यह सुनकर शकुनि धृतराष्ट्र को जोश दिलाकर कहता है कि अब तो जरासंध हमारे साथ हैं जिजाश्री। तब धृतराष्ट्र कहते हैं ठीक है अब सबकुछ तुम्हारी योजना के हिसाब से ही धीरे-धीरे होगा।
 
इधर, श्रीकृष्‍ण और बलराम का द्वारिका की राजसभा में नृत्य-गान से स्वागत होता है। श्रीकृष्ण अपने नगर के राजा होकर सिंहासन पर विराजमान होते हैं। फिर चारणजन संक्षेप में चंद्र और यदुवंश की वंशावली का गाकर बखान बताते हैं। इसके बाद अक्रूरजी एक पत्र हाथ में लेकर कहते हैं कि आपने आज्ञा दी थी कि इस भूखंड के सभी राजाओं को एक राजपत्र के द्वारा सूचित कर दिया जाए कि आपने द्वारिका नाम के एक राज्य की स्‍थापना कर दी है ताकि मथुरा से आपके इस प्रकार अचानक अदृश्य हो जाने से आपके जो-जो मित्रजन अथवा भक्तजन आपके बारे में चिंता करते होंगे वे सब आश्वस्त हो जाएं कि आप दोनों द्वारिका में सकुशल विद्यमान हैं। आपके मंत्रियों की ओर से मैं यह सूचना पत्र आपके अवलोकनार्थ आपके चरणों में प्रस्तुत करने की आज्ञा चाहता हूं।
 
तब श्रीकृष्ण कहते हैं आज्ञा है। फिर श्रीकृष्ण वह पत्र लेकर पढ़ते हैं और कहते हैं कि आप लोगों ने बहुत सुंदर पत्र लिखा है परंतु इसमें एक मुख्य बात की कमी है। इसमें आपने सभी सूचना तो देदी परंतु यह सूचना नहीं दी कि इस नए द्वारिका राज्य की राजनीति क्या होगी? हमें अपनी नीति के बारे में यह अवश्य लिखना चाहिए कि इस द्वारिका राज्य की राजनीति का प्रथम उद्देश्य यही होगा कि इस भूखंड के समस्त राज्यों के बीच मैत्री का संबंध स्थापित करके शांति का एक ऐसा सुंदर वातावरण बनाया जाए जिसमें समस्त प्रजाजन आपसी वैरभाव त्याग दें और सभी निर्भय होकर अपना जीवन सुख से बिता सकें। इसलिए हम सभी राजाओं की ओर मैत्री का हाथ बढ़ाते हैं। अक्रूरजी यह सुनकर कहते हैं जैसी आपकी आज्ञा प्रभु।
 
उधर, हस्तिनापुर के दरबार में एक प्रहरी आकर महाराज धृतराष्ट्र से कहता है एक राजदूत दर्शनों की आज्ञा चाहते हैं। यह सुनकर विदुर पूछते हैं कहां के राजदूत हैं? तब प्रहरी कहता है द्वारिका के राजदूत हैं। यह सुनकर शकुनि खड़ा होकर विदुर से पूछता है द्वारिका के राजदूत? ये द्वारिका किस राज्य का नाम है, कहां है ये राज्य? विदुरजी कहते हैं मैं नहीं जानता मैंने भी यह नाम पहली बार सुना है। भीष्म सहित सभी कहने लगते हैं द्वारिका...कभी सुना नहीं।...तब धृतराष्ट्र कहते हैं प्रहरी उसे आदर से दरबार में ले आओ।
 
कुछ ही देर बाद प्रहरी उस राजदूत को लेकर आता है। राजदूत सभा में उपस्थित होकर कहता है, कौरवकुल शिरोमणी हस्तिनापुर नरेश महाराज धृतराष्ट्र और इस सभा में विराजमान समस्त गुरुजनों, मंत्रियों, महामंत्रियों और नगर के प्रमुखजनों को द्वारिका राज्य के राजदूत धैवत पुत्र संभल यदुवंशी का प्रणाम स्वीकार हो।... सुनकर धृतराष्ट्र कहते हैं कि आपका स्वागत है। 
 
तब राजदूत संभल कहते हैं कि यदि सम्राट की आज्ञा हो तो मैं अपने स्वामी द्वारिकाधीश की ओर से एक राजपत्र श्रीचरणों में भेंट करना चाहता हूं। यह सुनकर धृतराष्ट्र कहते हैं महामंत्री विदुर ये राजपत्र ले लो। विदुर वह राजपत्र लेकर खोलने ही वाले रहते हैं तभी धृतराष्ट्र कहते हैं कि राजपत्र पढ़ने से पहले पूछ लो कि इसमें कोई गोपनीय समाचार तो नहीं है, जिसे खुली सभा में न पढ़ा जाए? यह सुनकर राजदूत संभल कहता है- नहीं महाराज इसमें कोई गोपनीय समाचार नहीं है यह एक राजा का दूसरे राजा के लिए शांति, मैत्री और युद्ध ना करने की प्रतिज्ञा करके विश्वशांति की नींव रखी जाने का पत्र है। इसलिए द्वारिकाधीश ने समस्त राज्यों के बीच मैत्री का हाथ बढ़ाया है। विशेषत: आपको उनसे यही अपेक्षा है कि द्वारिका और हस्तिनापुर के बीच मैत्री संबंध स्थापित हो। 
 
धृतराष्ट्र कहता है कि ये तो अच्छी बात है द्वारिका और हस्तिनापुर के बीच मैत्री संबंध स्थापित हो। तभी शकुनि टोककर कहता है कि क्षमा करें महाराज! जिससे मित्रता स्थापित होने जा रही है पहले यह जानना जरूरी है कि वह द्वारिका कहां है? क्योंकि इस नाम के किसी देश अथवा प्रदेश का वर्णन सुनने में नहीं आया। वास्तव में कोई द्वारिका है या ये राजदूत किसी काल्पनिक देश से आपका संबंध जोड़ना चाहता है। यदि कोई द्वारिका है तो उसका राजा कौन है? किस कुल का है? उस कुल का इतिहास क्या है? वो हमारा शत्रु है अथवा मित्र? इन सब बातों को जाने बिना हम कैसे किसी के साथ मैत्री कर सकते हैं महाराज?
 
यह सुनकर धृतराष्‍ट्र कहते हैं कि राजकुमार शकुनि ठीक कहते हैं। ये द्वारिका नगरी कहा हैं? तब राजदूत कहता है कि यह नगरी समुद्र के एक द्वीप पर है जो कभी कुशस्थली नाम से विख्यात था। बहुत काल पहले वहां पर महाराज रैवत राज्य करते थे। यह सुनकर शकुनि कहता है तो राजदूत द्वारिका एक द्वीप का नाम है तो फिर उसकी राजधानी कौनसी है और कितनी बढ़ी है उसकी राजधानी? राजदूत वहां पर कोई पक्के मकान भी हैं या मछलियां पकड़ने वालों के झोपड़ें? क्योंकि समुद्र में तो मछलियां ही पकड़नी होंगी ना?
 
तब राजदूत कहता है आपने तीन-तीन प्रश्न एक साथ पूछ लिए राजकुमार, तो तीनों के उत्तर सुनिये। द्वारिका राज्य की राजधानी का नाम द्वारिका है और वह राजधानी इतनी बड़ी है कि जिसमें द्वारिकाधीश के महान और विशाल वंश के सभी वंशज एक साथ रहते हैं बल्कि उनकी कई अशौहिणी और चतुरंगी सेना उस नगर में निवास करती हैं। अब रहा प्रश्न कि घर और मकान कैसे हैं तो राजकुमार पहली तो यह बात कि समुद्र के अंदर केवल मछलियां ही प्राप्त हो सकती हैं ये सत्य है परंतु ये अर्धसत्य है क्योंकि समुद्र के अंदर मछलियों के अतिरिक्त हीरों की खानें भी होती हैं। इसलिए उसे रत्नाकर भी कहते हैं। सागर के गर्भ में माणिक्य और मोतियों की अनंत सम्पदा छुपी हुई है इसीलिए द्वारिका के मकान और भवन माणिक्य एवं मोतियों से बने हुए हैं। घरों की सीढ़ियां हीरों से जड़ी हुई हैं। गलियों का फर्श पन्ने का है। उस नगर में एक ऐसा सभाग्रह भी है जिसे स्वर्ग से लाया गया है। सो ऐसी है द्वारिकाधीश की द्वारिका।
 
यह सुनकर शकुनि कहता है कि तुमने द्वारिका का इतना सुंदर चित्रण किया कि जैसे यह किसी जादूगर ने बनाई है। इसलिए इस बात की जिज्ञासा बढ़ती जा रही है राजदूत कि उस नगरी का राजा कौन है? कोई जादूगर, भूत-प्रेत या गंधर्व..कौन है?
 
इस पर राजदूत कहता है कि जो वहां के स्वामी हैं वे अपने को राजा कहलाना पसंद नहीं करते। फिर भी सब भक्तिवश उन्हें द्वारिकाधीश कहते हैं। इस पर‍ चिढ़कर शकुनि कहता है उनका नाम क्या है? तब राजदूत कहता है कि हम आदर से उनका नाम नहीं लेते केवल द्वारिकाधीश ही कहते हैं।
 
तब धृतराष्ट्र कहते हैं फिर भी कुछ तो नाम होगा उस द्वारिकाधीश का?...कुछ देर बाद धृतराष्ट्र फिर कहते हैं- राजदूत उनका नाम बताने में इतना संकोच क्यों?..यह सुनकर कुछ सोचकर राजदूत संभल कहता है महाराज उनका नाम भी सुनिये।...नाम सुनने के लिए चारों ओर चुप्पी छा जाती है। तब राजदूत कहता है- उनका नाम है श्रीकृष्ण। यह सुनकर सभा चौंक जाती है और भीष्म पितामह और द्रोण आश्‍चर्य एवं भावुकता से राजदूत की ओर देखने लगते हैं। 
 
यह सुनकर धृतराष्ट्र के मुंह से निकलता है कृष्ण जीवित है? शकुनि भी कहता है कृष्ण जीवित है। सभीजन यही कहने लगते हैं कृष्ण जीवित हैं। भीष्म प्रसन्न होकर कहते हैं कृष्ण जीवित है विदुर कृष्ण जीवित है। विदुर भी अचंभित रह जाते हैं।...तभी शकुनि अपना शक दूर करने के लिए पूछा है कौन कृष्ण? वही कृष्‍ण जो मथुरा में रहता था।... इस पर राजदूत कहता है जी यदुवंशी कृष्‍ण।
 
तब शकुनि कहता है कि किंतु हमें तो सूचना थी कि वे गोमांतक पर्वत में जलकर भस्म हो गए थे और वो मथुरा से भाग गए थे? तब राजदूत कहता है किसी ने आपको झूठी सूचना दी होगी राजकुमार, वे भागे नहीं थे उन्होंने तो केवल अपनी राजधानी बदल ली है।
 
उधर, यह सूचना जरासंध के पास पहुंच जाती है कि कृष्ण जीवित है। जरासंध, शल्य, रुक्मी, शिशुपाल, बाणासुर सभी यह सूचना पाकर चौंक जाते हैं। जरासंध कहता है कि ये कैसे हो सकता है महाराज शल्य, वह तो गोमांतक पर्वत में जलकर मर गया था। शल्य कहता है कि इसका अर्थ है कि वह जला नहीं था। हमने सोच लिया था कि वह जल गया होगा।...जरासंध कहता है अर्थात वह कांटा अभी तक निकला नहीं है। शिशुपाल वो कांटा अभी तक निकला ही नहीं है। तब शिशुपाल कहता है कि सम्राट जो कांटा स्वयं ही आपके रास्ते से हट गया हो वो कांटा ही कहां रहा? यह सुनकर शल्य कहता है शिशुपाल ठीक कहता है जो डरकर भाग गया और एक छोटे से द्वीप पर जाकर छिप गया हो उसकी चिंता आप जैसे सम्राट क्यों करें? 
 
इधर, शकुनि और धृतराष्ट्र के बीच दुर्योधन को युवराज बनाने को लेकर बहस होती है तब शकुनि कहता है कि यदि आपने युधिष्ठिर को युवराज बनाया तो फिर में युधिष्‍ठिर की मृत्यु के बारे में सोचूंगा कि कैसे वह मारा जाए।
 
बाद में बलराम को इस बात पर चर्चा करते हुए बताया जाता है कि जब सबको पता चला होगा तो क्या प्रतिक्रिया हुई होगी? तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं जो हमारे भक्त हैं वह अति प्रसन्न हुए होंगे और जो हमारे शत्रु हैं वे बड़े दु:खी हुए होंगे।..फिर कृष्ण कहते हैं भैया आप अभी तक उसी अग्निकांड में उलझे हुए हैं और मुझे एक आने वाला अग्निकांड दिखाई दे रहा है। बलराम पूछते हैं क्या एक और अग्निकांड से गुजरना होगा हमें? तब श्रीकृष्ण बताते हैं हमें नहीं, हमारे सखा अर्जुन को। हां अर्जुन शीघ्र ही अपने भाइयों के साथ एक अग्निकांड से गुजरने वाला है। क्योंकि शकुनि पांडवों की की मृत्यु के बारे में सोच रहा है और उसने अबकी बार बड़ा भीषण षड़यंत्र रचा है। जय श्रीकृष्णा ।
 
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