शुक्रवार, 18 अप्रैल 2025
  • Webdunia Deals
  1. धर्म-संसार
  2. »
  3. व्रत-त्योहार
  4. »
  5. श्राद्ध पर्व
  6. महिलाओं को भी है श्राद्ध का अधिकार
Written By ND

महिलाओं को भी है श्राद्ध का अधिकार

श्राद्ध महालय आरंभ
ND

पितृ पक्ष के दौरान पितरों की सद्गति के लिए कुछ खास परिस्थितियों में महिलाओं को भी विधिपूर्वक श्राद्ध करने का अधिकार प्राप्त है। गरूड़ पुराण में बताया गया है कि पति, पिता या कुल में कोई पुरुष सदस्य नहीं होने या उसके होने पर भी यदि वह श्राद्ध कर्म कर पाने की स्थिति में नहीं हो तो महिला श्राद्ध कर सकती है।

इस पुराण में यह भी कहा गया है कि यदि घर में कोई वृद्ध महिला है तो युवा महिला से पहले श्राद्ध कर्म करने का अधिकार उसका होगा। शास्त्रों के अनुसार पितरों के परिवार में ज्येष्ठ या कनिष्ठ पुत्र अथवा पुत्र ही न हो तो नाती, भतीजा, भांजा या शिष्य तिलांजलि और पिंडदान करने के पात्र होते हैं। भारतीय संस्कृति में अश्विन कृष्ण पक्ष पितरों को समर्पित है।

यह कहा गया है कि श्राद्ध से प्रसन्न पितरों के आशीर्वाद से सभी प्रकार के सांसारिक भोग और सुखों की प्राप्ति होती है। आत्मा और पितरों के मुक्ति मार्ग को श्राद्ध कहा जाता है। मान्यता यह भी है कि जो श्रद्धापूर्वक किया जाए, वही श्राद्ध है। पितृगण भोजन नहीं बल्कि श्रद्धा के भूखे होते हैं। वे इतने दयालु होते हैं कि यदि श्राद्ध करने के लिए पास में कुछ न भी हो तो दक्षिण दिशा की ओर मुख करके आँसू बहा देने भर से ही तृप्त हो जाते हैं।

विधान है कि सोलह दिन के पितृ पक्ष में व्यक्ति को पूर्ण ब्रह्मचर्य, शुद्ध आचरण और पवित्र विचार रखना चाहिए। गरूड़ पुराण के अनुसार पितृ पक्ष के दौरान अमावस्या के दिन पितृगण वायु के रूप में घर के दरवाजे पर दस्तक देते हैं। वे अपने स्वजनों से श्राद्ध की इच्छा रखते हैं और उससे तृप्त होना चाहते हैं, लेकिन सूर्यास्त के बाद यदि वे निराश लौटते हैं तो श्राप देकर जाते हैं।

श्रद्धापूर्वक श्राद्ध किए जाने से पितर वर्ष भर तृप्त रहते हैं और उनकी प्रसन्नता से वंशजों को दीर्घायु, संतति, धन, विद्या, सुख एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है। जो श्राद्ध नहीं कर पाते उनके कारण पितरों को कष्ट उठाने पड़ते हैं। गीता में लिखा है कि यज्ञ करने से देवता के संतुष्ट होने पर व्यक्ति उन्नति करता है लेकिन श्राद्ध नहीं करने से पितर कुपित हो जाते हैं और श्राप देते हैं। ब्रह्म पुराण और गरूड़ के अनुसार श्राद्ध पक्ष में पितर की तिथि आने पर जब उन्हें अपना भोजन नहीं मिलता तो वे क्रुध होकर श्राप देते हैं जिससे परिवार में मति, रीति, प्रीति, बुद्धि और लक्ष्मी का विनाश होता है।

ND
मार्कण्डेय और वायुपुराण में कहा गया है कि किसी भी परिस्थिति में पूर्वजों के श्राद्ध से विमुख नहीं होना चाहिए। व्यक्ति सामर्थ्य के अनुसार ही श्राद्ध कर्म करे लेकिन श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। पितरों के श्राद्ध के लिए व्यक्ति के पास कुछ भी नहीं होने की स्थिति में श्राद्ध कर्म कैसे किया जाए।

इस पर विष्णु पुराण का हवाला देते हुए वैदिक शोध एवं सांस्कृतिक प्रतिष्ठान कर्मकाण्ड प्रशिक्षण केंद्र के आचार्य डॉ. आत्माराम गौतम ने बताया कि श्राद्ध करने वाला अपने दोनो हाथों को उठाकर पितरों से प्रार्थना करे- हे पितृगण मेरे पास श्राद्ध के लिए न तो उपयुक्त धन है, न ही धान्य आदि। मेरे पास आपके लिए केवल श्रद्धा और भक्ति है। मैं इन्हीं से आपको तृप्त करना चाहता हूँ।

उन्होंने बताया कि सभी प्रकार के श्राद्ध पितृ पक्ष के दौरान किए जाने चाहिए। लेकिन अमावस्या का श्राद्ध ऐसे भूले बिसरे लोगों के लिए ग्राह्य होता है जो अपने जीवन में भूल या परिस्थितिवश अपने पितरों को श्रद्धासुमन अर्पित नहीं कर पाते।

उपनिषदों में कहा गया है कि देवता और पितरों के कार्य में कभी आलस्य नहीं करना चाहिए। पितर जिस योनि में होते हैं, श्राद्ध का अन्न उसी योनि के अनुसार भोजन बनकर उन्हें प्राप्त होता है। श्राद्ध जैसे पवित्र कर्म में गौ का दूध, दही और घृत सर्वोत्तम माना गया है। धर्मशास्त्र में पितरों को तृप्त करने के लिए जौ, धान, गेहूँ, मूँग, सरसों का तेल, कंगनी, कचनार आदि का उपयोग बताया गया है। इसमें आम, बहेड़ा, बेल, अनार, पुराना आँवला, खीर, नारियल, फालसा, नारंगी, खजूर, अंगूर, नीलकैथ, परवल, चिरौंजी, बेर, जंगली बेर, इंद्र जौ के सेवन आदि का भी विधान है।

ND
तिल को देव अन्न कहा गया है। काला तिल ही वह पदार्थ है जिससे पितर तृप्त होते हैं। इसलिए काले तिलों से ही श्राद्ध कर्म करना चाहिए। भारतीय वैदिक वांग्ङमय के अनुसार जीवन लेने के पश्चात प्रत्येक मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण होते हैं। पहला देव ऋण, दूसरा ऋषि ऋण और तीसरा पितृ ऋण। पितृपक्ष में श्रद्धापूर्वक श्राद्ध कर्म करके परिजन अपने तीनों ऋणों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं।

महाभारत के एक प्रसंग के अनुसार मृत्यु के उपरांत कर्ण को चित्रगुप्त ने मोक्ष देने से केवल इसलिए इन्कार कर दिया था कि उनके ऊपर पितृ ऋण बाकी था। कर्ण ने चित्रगुप्त से कहा मैंने अपनी सारी संपदा सदैव दान, पुण्य में ही समर्पित की है, फिर मेरे ऊपर यह कैसा ऋण बाकी है। चित्रगुप्त ने बताया कि उन्होंने देव ऋण और ऋषि ऋण तो चुका दिया है, लेकिन उन पर अभी पितृ ऋण बाकी है। जब तक वह इस ऋण से मुक्त नहीं होंगे उन्हें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी।

धर्मराज ने कर्ण को यह व्यवस्था दी कि वह 16 दिन के लिए पुनः पृथ्वी पर जाकर और ज्ञात और अज्ञात पितरों का श्राद्ध तर्पण तथा पिंडदान विधि एवं श्रद्धापूर्वक करें तभी उन्हें मोक्ष मिलेगा।