शुक्रवार, 15 नवंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. धर्म-संसार
  2. सनातन धर्म
  3. नीति नियम
  4. गुरुकुल: ब्रह्मचर्य आश्रम व्यवस्था

गुरुकुल: ब्रह्मचर्य आश्रम व्यवस्था

Brahmacharya ashrama, Hindu monasteries | गुरुकुल: ब्रह्मचर्य आश्रम व्यवस्था
*धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
*ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास।
*धर्म से मोक्ष और अर्थ से काम साध्‍य माना गया है। ब्रह्मचर्य और गृहस्थ जीवन में धर्म, अर्थ और काम का महत्व है। वानप्रस्थ और संन्यास में धर्म प्रचार तथा मोक्ष का महत्व माना गया है।
ब्रह्मचर्य का अर्थ होता है ब्रह्म को चरना या ब्रह्म की चर्चा व चर्चा में ही रत रहना। दूसरा अर्थ जो प्रचलित है वह है इंद्रियों का संयम रखना। विद्यार्थी और सन्यासी का यह कर्तव्य है कि वह इंद्रियों पर संयम रखकर ईश्वर परायण रहे।
 
ब्रह्मचर्य का मूलत: अर्थ ब्रह्म (ईश्वर) को जानना। ब्रह्म को जाना जाता है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम और ध्यान से। वेदाध्ययन और सत्संग से विधि का पता चलता है। यही ऋषि ऋण है और यही ब्रह्मयज्ञ भी। ब्रह्म को जानने से ऋषि ऋण चुकता होता है और ब्रह्मयज्ञ सम्पन्न होता है और इसी से क्षुद्रता मिटती है। क्षुद्रता मिटने से व्यक्ति ब्राह्मण कहलाता है। यही चार पुरुषार्थ का प्रथम अंग धर्म है और यही सब कुछ ब्रह्मचर्य है।
 
सभी का अधिकार और कर्तव्य: कोई किसी भी जाति, समाज या सम्प्रदाय से हो यज्ञोपवित करने के बाद सात वर्ष की उम्र के बाद उसे विद्यार्थी जीवन यापन हेतु इस आश्रम में भेजा जाता है। जहाँ वह 21 वर्ष की उम्र तक योग, वेद और सांसारिक विद्याओं तथा कलाओं के सभी अंगो में पारंगत होकर ही ग्रहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है।
 
यही है संन्यास आश्रम: प्राचीन भारत में ऋषि-मुनि वन में कुटी बनाकर रहते थे। जहाँ वे ध्यान और तपस्या करते थे। उक्त जगह पर समाज के लोग अपने बालकों को वेदों का अध्ययन करने के अलावा अन्य विद्याएँ सीखने के लिए भेजते थे। धीरे-धीरे यह आश्रम संन्यासियों, त्यागियों, विरक्तों धार्मिक यात्रियों और अन्य लोगों के लिए शरण स्थली बनता गया।
 
यहीं पर तर्क-वितर्क और दर्शन की अनेकों धारणाएँ विकसित हुई। सत्य की खोज, राज्य के मसले और अन्य समस्याओं के समाधान का यह प्रमुख केंद्र बन गया। कुछ लोग यहाँ सांसारिक झंझटों से बचकर शांतिपूर्वक रहकर गुरु की वाणी सुनते थे। इसे ही ब्रह्मचर्य और संन्यास आश्रम कहा जाने लगा।
 
यही है गुरुकुल या मठ: ब्रह्मचर्य आश्रम को मठ, पीठ या गुरुकुल भी कहा जाता है। ये आधुनिक शिक्षा के साथ धार्मिक शिक्षा के केंद्र होते हैं। यह आश्रय स्थली भी है। पुष्‍ट शरीर, बलिष्ठ मन, संस्कृत बुद्धि एवं प्रबुद्ध प्रज्ञा लेकर ही विद्यार्थी ग्रहस्थ जीवन में प्रवेश करता है। विवाह कर वह सामाजिक कर्तव्य निभाता है। संतानोत्पत्ति कर पितृऋण चुकता करता है। यही पितृ यज्ञ भी है।
 
ब्रह्मचर्य और गृहस्थ आश्रम में रहकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की शिक्षा लेते हुए व्यक्ति को 50 वर्ष की उम्र के बाद वानप्रस्थ आश्रम में रहकर धर्म और ध्यान का कार्य करते हुए मोक्ष की अभिलाषा रखना चाहिए अर्थात उसे संन्यास लेकर मुमुक्ष हो जाना चाहिए। ऐसा वैदज्ञ कहते हैं।
 
पुराणकारों ने ब्रह्मचर्य आश्रम के दो भेद बताए हैं। इस आश्रम में रहने वाले दो प्रकार के ब्रह्मचारी 'उपकुवणिक' और 'नैष्टिक' माने गए हैं। जो ब्रह्मचारी विधिवत वेदों तथा अन्य शास्त्रों का अध्ययन करके गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है, उसे 'उपकुवणिक ब्रह्मचारी' कहते हैं और जो जीवनपर्यन्त गुरु के निकट रहकर ब्रह्मज्ञान का सतत अभ्यास करता है, वह 'नैष्टिक ब्रह्मचारी' कहलाता है।- अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'