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Written By अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

जानिए गोरखनाथ का रहस्य, इसी संप्रदाय से आते हैं योगी आदित्यनाथ

जानिए गोरखनाथ का रहस्य, इसी संप्रदाय से आते हैं योगी आदित्यनाथ | guru gorakhnath
महान चमत्कारिक और रहस्यमयी गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर और एक जाति का नाम गोरखा है। गोरखपुर में ही गुरु गोरखनाथ समाधि स्थल है। यहां दुनियाभर के नाथ संप्रदाय और गोरखनाथजी के भक्त उनकी समाधि पर माथा टेकने आते हैं। इस समाधि मंदिर के ही महंत अर्थात प्रमुख साधु है महंत आदित्यनाथ योगी।
 
गोरखनाथजी ने नेपाल और भारत की सीमा पर प्रसिद्ध शक्तिपीठ देवीपातन में तपस्या की थी। उसी स्थल पर पाटेश्वरी शक्तिपीठ की स्थापना हुई। भारत के गोरखपुर में गोरखनाथ का एकमात्र प्रसिद्ध मंदिर है। इस मंदिर को यवनों और मुगलों ने कई बार ध्वस्त किया लेकिन इसका हर बार पु‍नर्निर्माण कराया गया। 9वीं शताब्दी में इसका जीर्णोद्धार किया गया था लेकिन इसे 13वीं सदी में फिर मुस्लिम आक्रांताओं ने ढहा दिया था। बाद में फिर इस मंदिर को पुन: स्थापित कर साधुओं का एक सैन्यबल बनाकर इसकी रक्षा करने का कार्य किया गया। इस मंदिर के उपपीठ बांग्लादेश और नेपाल में भी स्थित है। संपूर्ण भारतभर के नाथ संप्रदाय के साधुओं के प्रमुख महंत हैं योगी आदित्यनाथ। कोई यह अंदाजा नहीं लगा सकता है कि आदित्यनाथ के पीछे कितना भारी जन समर्थन है। सभी दसनामी और नाथ संप्रदाय के लोगों के लिए गोरखनाथ का यह मंदिर बहुत महत्व रखता है। 
 
गोरखनाथ का जन्म : गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। गुरु गोरखनाथ के जन्म के विषय में प्रचलित है कि एक बार भिक्षाटन के क्रम में गुरु मत्स्येन्द्रनाथ किसी गांव में गए। किसी एक घर में भिक्षा के लिए आवाज लगाने पर गृह स्वामिनी ने भिक्षा देकर आशीर्वाद स्वरूप पुत्र की याचना की। गुरु मत्स्येन्द्रनाथ सिद्ध तो थे ही। अतः गृह स्वामिनी की याचना स्वीकार करते हुए उन्होंने एक चुटकी भर भभूत देते हुए कहा कि इसका सेवन करने के बाद यथासमय वे माता बनेंगी। उनके एक महा तेजस्वी पुत्र होगा जिसकी ख्याति चारों और फैलेगी।
 
आशीर्वाद देकर गुरु मत्स्येन्द्रनाथ अपने भ्रमण क्रम में आगे बढ़ गए। बारह वर्ष बीतने के बाद गुरु मत्स्येन्द्रनाथ उसी ग्राम में पुनः आए। कुछ भी नहीं बदला था। गांव वैसा ही था। गुरु का भिक्षाटन का क्रम अब भी जारी था। जिस गृह स्वामिनी को अपनी पिछली यात्रा में गुरु ने आशीर्वाद दिया था, उसके घर के पास आने पर गुरु को बालक का स्मरण हो आया। उन्होंने घर में आवाज लगाई। वही गृह स्वामिनी पुनः भिक्षा देने के लिए प्रस्तुत हुई। गुरु ने बालक के विषय में पूछा।
 
गृहस्वामिनी कुछ देर तो चुप रही, परंतु सच बताने के अलावा उपाय न था। उसने तनिक लज्जा, थोड़े संकोच के साथ सब कुछ सच सच बतला दिया। उसने कहा कि आप से भभूत लेने के बाद पास-पड़ोस की स्त्रियों ने राह चलते ऐसे किसी साधु पर विश्वास करने के लिए उसकी खूब खिल्ली उड़ाई। उनकी बातों में आकर मैंने वह भभूत को पास के गोबर से भरे गड्डे में फेंक दिया था।
 
गुरु मत्स्येन्द्रनाथ तो सिद्ध महात्मा थे। उन्होंने अपने ध्यानबल देखा और वे तुरंत ही गोबर के गड्डे के पास गए और उन्होंने बालक को पुकारा। उनके बुलावे पर एक बारह वर्ष का तीखे नाक नक्श, उच्च ललाट एवं आकर्षण की प्रतिमूर्ति स्वस्थ बच्चा गुरु के सामने आ खड़ा हुआ। गुरु मत्स्येन्द्रनाथ बच्चे को लेकर चले गए। यही बच्चा आगे चलकर गुरु गोरखनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) थे। 
 
कौन थे मत्स्येन्द्र नाथ : मत्स्येन्द्र नाथ : नाथ संप्रदाय में आदिनाथ और दत्तात्रेय के बाद सबसे महत्वपूर्ण नाम आचार्य मत्स्येंद्र नाथ का है, जो मीननाथ और मछन्दरनाथ के नाम से लोकप्रिय हुए। कौल ज्ञान निर्णय के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ ही कौलमार्ग के प्रथम प्रवर्तक थे। कुल का अर्थ है शक्ति और अकुल का अर्थ शिव। मत्स्येन्द्र के गुरु दत्तात्रेय थे। मत्स्येन्द्रनाथ हठयोग के परम गुरु माने गए हैं जिन्हें मच्छरनाथ भी कहते हैं। इनकी समाधि उज्जैन के गढ़कालिका के पास स्थित है। हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि मछिंद्रनाथ की समाधि मछीन्द्रगढ़ में है, जो महाराष्ट्र के जिला सावरगाव के ग्राम मायंबा गांव के निकट है। इतिहासवेत्ता मत्स्येन्द्र का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी मानते हैं।
 
मत्स्येन्द्रनाथ का एक नाम 'मीननाथ' है। ब्रजयनी सिद्धों में एक मीनपा हैं, जो मत्स्येन्द्रनाथ के पिता बताए गए हैं। मीनपा राजा देवपाल के राजत्वकाल में हुए थे। देवपाल का राज्यकाल 809 से 849 ई. तक है। इससे सिद्ध होता है कि मत्स्येन्द्र ई. सन् की नौवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में विद्यमान थे। तिब्बती परंपरा के अनुसार कानपा राजा देवपाल के राज्यकाल में आविर्भाव हुए थे। इस प्रकार मत्स्येन्द्रनाथ आदि सिद्धों का समय ई. सन् के नौवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और दसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध समझना चाहिए। शंकर दिग्विजय नामक ग्रंथ के अनुसार 200 ईसा पूर्व मत्स्येन्द्रनाथ हुए थे।

महायोगी गोरखनाथ : माना जाता है कि जितने भी देवी-देवताओं के साबर मंत्र है उन सभी के जन्मदाता श्री गोरखनाथ ही है। नाथ और दसनामी संप्रदाय के लोग जब आपस में मिलते हैं तो एक दूसरे से मिलते वक्त कहते हैं- आदेश और नमो नारायण।

नवनाथ की परंपरा की शुरुआत गुरु गोरखनाथ के कारण ही शुरु हुई थी। शंकराचार्य के बाद गुरु गोरखनाथ को भारत का सबसे बड़ा संत माना जाता है। गोरखनाथ की परंपरा में ही आगे चलकर कबीर, गजानन महाराज, रामदेवरा, तेजाजी महाराज, शिरडी के साई आदि संत हुए। माता ज्वालादेवी के स्थान पर तपस्या करने उन्होंने माता को प्रसंन्न कर लिया था।
गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे। उन्होंने योग के कई नए आसन विकसित किए थे। जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठिन (आड़े-तिरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अ‍चम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि 'यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।' 
 
गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है। 
 
नवनाथ परंपरा : गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं:- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव ( जालंधर या जालिंदरनाथ) आदि। 13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे। कुछ लोग नौ नाथ का क्रम ये बताते हैं:- मत्स्येन्द्र, गोरखनाथ, गहिनीनाथ, जालंधर, कृष्णपाद, भर्तृहरि नाथ, रेवणनाथ, नागनाथ और चर्पट नाथ।
 
।।मच्छिंद्र गोरक्ष जालीन्दराच्छ।। कनीफ श्री चर्पट नागनाथ:।।
श्री भर्तरी रेवण गैनिनामान।। नमामि सर्वात नवनाथ सिद्धान।।  
 
गोरखनाथ की परंपरा : नाथ शब्द का अर्थ होता है स्वामी। कुछ लोग मानते हैं कि नाग शब्द ही बिगड़कर नाथ हो गया। भारत में नाथ योगियों की परंपरा बहुत ही प्राचीन रही है। नाथ समाज हिन्दू धर्म का एक अभिन्न अंग है। भगवान शंकर को आदिनाथ और दत्तात्रेय को आदिगुरु माना जाता है। इन्हीं से आगे चलकर नौ नाथ और 84 नाथ सिद्धों की परंपरा शुरू हुई। आपने अमरनाथ, केदारनाथ, बद्रीनाथ आदि कई तीर्थस्थलों के नाम सुने होंगे। आपने भोलेनाथ, भैरवनाथ आदि नाम भी सुने ही होंगे। साईनाथ बाबा (शिरडी) भी नाथ योगियों की परंपरा से थे। गोगादेव, बाबा रामदेव आदि संत भी इसी परंपरा से थे। तिब्बत के सिद्ध भी नाथ परंपरा से ही थे।
 
नौ नाथों की परंपरा से 84 नाथ हुए। नौ नाथों के संबंध में विद्वानों में मतभेद हैं। सभी नाथ साधुओं का मुख्‍य स्थान हिमालय की गुफाओं में है। नागा बाबा, नाथ बाबा और सभी कमंडल, चिमटा धारण किए हुए जटाधारी बाबा शैव और शाक्त संप्रदाय के अनुयायी हैं, लेकिन गुरु दत्तात्रेय के काल में वैष्णव, शैव और शाक्त संप्रदाओं का समन्वय किया गया था। नाथ संप्रदाय की एक शाखा जैन धर्म में है तो दूसरी शाखा बौद्ध धर्म में भी मिल जाएगी। यदि गौर से देखा जाए तो इन्हीं के कारण इस्लाम में सूफीवाद की शुरुआत हुई।
 
सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई। इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं। इस पंथ के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं। गुरु और शिष्य दोनों ही को 84 सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। दोनों गुरु और शिष्य को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रुप में जाना जाता है।
 
नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। पूर्व में इस समप्रदाय का विस्तार असम और उसके आसपास के इलाकों में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुए। आगे चलकर यह सम्प्रदाय भी कई भागों में विभक्त होता चला गया। गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे।
 
भारत के 84 सिद्धों की परंपरा में से एक थे गुरु गोरखनाथ जिनका नेपाल से घनिष्ठ संबंध रहा है। नेपाल नरेश महेन्द्रदेव उनके शिष्य हो गए थे। उस काल में नेपाल के एक समूचे क्षेत्र को 'गोरखा राज्य' इसलिए कहा जाता था कि गोरखनाथ वहां डेरा डाले हुए थे। वहीं की जनता आगे चलकर 'गोरखा जाति' की कहलाई। यहीं से गोरखनाथ के हजारों शिष्यों ने विश्वभर में घूम-घूमकर धूना स्थान निर्मित किए। इन्हीं शिष्यों से नाथों की अनेकानेक शाखाएं हो गईं।
 
नाथ संप्रदाय के प्रवर्तक गोरक्षनाथजी के बारे में लिखित उल्लेख हमारे पुराणों में भी मिलते हैं। विभिन्न पुराणों में इससे संबंधित कथाएं मिलती हैं। इसके साथ ही साथ बहुत-सी पारंपरिक कथाएं और किंवदंतियां भी समाज में प्रसारित हैं। उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, बंगाल, पश्चिमी भारत, सिन्ध तथा पंजाब में और भारत के बाहर नेपाल में भी ये कथाएं प्रचलित हैं। काबुल, गांधार, सिन्ध, बलोचिस्तान, कच्छ और अन्य देशों तथा प्रांतों में यहां तक कि मक्का-मदीना तक श्री गोरक्षनाथ ने दीक्षा दी थी और नाथ परंपरा को विस्तार दिया था।
 
गोरखनाथ का साहित्य : गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है। गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्‍यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया।