गुरुवार, 14 नवंबर 2024
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Written By अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

आखिर क्या है मोहनजोदाड़ो, जानिए 10 रहस्य

आखिर क्या है मोहनजोदाड़ो, जानिए 10 रहस्य - mohenjo daro history
हाल ही में मोहनजोदाड़ो नाम से बॉलीवुड के डायरेक्टर आशुतोष गोवारिकर की फिल्म चर्चा में है। आखिर यह मोहनजो देड़ो क्या है, कहां है और इसकी प्राचीनता के क्या सबूत है। मोहनजो देड़ो को क्यों इसे दुनिया की सबसे रहस्यमयी सभ्यता मानते हैं?
दरअसल मोहनजोदाड़ो नामक स्थान को मौत का टिला कहा जाता है। क्यों? को आओ जानते हैं मोहनजोदाड़ो से संबंधित ऐसी 10 बातों के बारे में जिन्हें जानकर आप हैरान ही नहीं होंगे आपको खुद पर गर्व भी होगा। तो अगले पन्ने पर जानिए मोहनजो देड़ो के बारे में प्राचीन रहस्यम...
 
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क्या है मोहनजोदाड़ो : मोहनजोदेड़ो सिंधी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है 'मुर्दों का टीला। इसे 'मुअन जो दड़ो' भी कहा जाता है। चार्ल्स मैसन ने सर्वप्रथम हड़प्पा के विशाल टीलों की ओर ध्यान आकृष्ट किया था। मोहनजोदाड़ो सिंधु घाटी सभ्यता का एक नगर है जो विशालकाय टीलों से पटा हुआ है।
mohenjo daro

यह नगर सिंधु घाटी के प्रमुख नगर हड़प्पा के अंतरगत आता है। सिंधु नदी के किनारे के दो स्थानों हड़प्पा और मोहनजोदड़ो (पाकिस्तान) में की गई खुदाई में सबसे प्राचीन और पूरी तरह विकसित नगर और सभ्यता के अवशेष मिले। सर जॉन मार्शल ने सिन्धु घाटी सभ्यता को ‘हड़प्पा सभ्यता’ का नाम दिया था जिसे आद्य ऐतिहासिक युग का माना गया। इस सभ्यता की समकालीन सभ्यता मेसोपोटामिया थी।
 
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हड़प्पा और मोहनजोदडो : पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित 'माण्टगोमरी जिले' में रावी नदी के बाएं तट पर हड़प्पा नामक पुरास्थल है जबकि पाकिस्तान के सिन्ध प्रांत के 'लरकाना जिले' में सिन्धु नदी के दाहिने किनारे पर मोहनजोदड़ो नामक नगर करीब 5 किमी के क्षेत्र में फैला हुआ है। मोहनजोदेड़ो को हड़प्पा की सभ्यता के अंतरर्गत एक नगर माना जाता है। इस समूचे क्षेत्र को सिंधु घाटी की सभ्यता भी कहा जाता है।
 
हड़प्पा (पाकिस्तान), मोहनजोदड़ो (पाकिस्तान), चन्हूदड़ों, लोथल, रोपड़, कालीबंगा, सूरकोटदा, आलमगीरपुर (मेरठ), बणावली (हरियाणा), धौलावीरा, अलीमुराद (सिन्ध प्रांत), कच्छ (गुजरात), रंगपुर (गुजरात), मकरान तट (बलूचिस्तान), गुमला (अफगान-पाक सीमा) आदि क्षेत्रों में सिन्धु घाटी सभ्यता के कई प्राचीन नगरों को ढूंढ निकाला गया है। अब तक भारतीय उपमहाद्वीप में इस सभ्यता के लगभग 1,000 स्थानों का पता चला है। अब इसे सैंधव सभ्यता कहा जाता है।
 
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हिन्दू धर्म का मोहनजोदोड़ो से संबंध : हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो में असंख्य देवियों की मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। ये मूर्तियां मातृदेवी या प्रकृति देवी की हैं। प्राचीनकाल से ही मातृ या प्रकृति की पूजा भारतीय करते रहे हैं और आधुनिक काल में भी कर रहे हैं। यहां हुई खुदाई से पता चला है कि हिन्दू धर्म की प्राचीनकाल में कैसी स्थिति थी। सिन्धु घाटी की सभ्यता को दुनिया की सबसे रहस्यमयी सभ्यता माना जाता है, क्योंकि इसके पतन के कारणों का अभी तक खुलासा नहीं हुआ है।
 
चार्ल्स मेसन ने वर्ष 1842 में पहली बार हड़प्पा सभ्यता को खोजा था। इसके बाद दया राम साहनी ने 1921 में हड़प्पा की आधिकारिक खोज की थी तथा इसमें एक अन्य पुरातत्वविद माधो सरूप वत्स ने उनका सहयोग किया था। इस दौरान हड़प्पा से कई ऐसी ही चीजें मिली हैं, जिन्हें हिन्दू धर्म से जोड़ा जा सकता है। पुरोहित की एक मूर्ति, बैल, नंदी, मातृदेवी, बैलगाड़ी और शिवलिंग। 1940 में खुदाई के दौरान पुरातात्विक विभाग के एमएस वत्स को एक शिव लिंग मिला जो लगभग 5000 पुराना है। शिवजी को पशुपतिनाथ भी कहते हैं। 
 
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मोहनजोदेड़ो के संस्थापक और कब की थी स्थापना : ऐसा माना जाता है कि 2600 ईसा पूर्व अर्थात आज से 4616 वर्ष पूर्व इस नगर की स्थापना हुई थी। कुछ इतिहासकारों के अनुसार इस सभ्यता का काल निर्धारण किया गया है लगभग 2700 ई. पू. से 1900 ई. पू. तक का माना जाता है। हड़प्पा के इस नगर मोहनजोदड़ों को ‘सिंध का बांग’ कहा जाता है। इतिहासकारों के अनुसार हड़प्पा सभ्यता के निर्माता द्रविड़ लोग थे। 
 
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मोहनजोदड़ो के लोग क्या-क्या जानते थे : मोहनजोदड़ो से सूती कपड़े के उपयोग के प्रमाण मिले हैं इसका मतलब वे कपास की खेती के बारे में जानते थे। इतिहाकारों के अनुसार सबसे पहली बार कपास उपजाने का श्रेय हड़प्पावासियों को ही दिया जाता है। हड़प्पा सभ्यता के मोहजोदड़ो से  कपड़ों के टुकड़े के अवशेष, चांदी के एक फूलदान के ढक्कन तथा कुछ अन्य तांबें की वस्तुएं मिले है। यहां के लोग शतरंज का खेल भी जानते थे और वे लोहे का उपयोग करते थे इसका मतलब यह कि वे लोहे के बारे में भी जानते थे।
यहां से प्राप्त मुहरों को सर्वोत्तम कलाकृतियों का दर्जा प्राप्त है। हड़प्पा नगर के उत्खनन से तांबे की मुहरें प्राप्त हुई हैं।  इस क्षेत्र की भाषा की लिपि चित्रात्मक थी। मोहनजोदड़ो से प्राप्त पशुपति की मुहर पर हाथी, गैंडा, बाघ और बैल अंकित हैं। हड़प्पा के मिट्टी के बर्तन पर सामान्यतः लाल रंग का उपयोग हुआ है। मोहनजोदड़ों से प्राप्त विशाल स्नानागार में जल के रिसाव को रोकने के लिए ईंटों के ऊपर जिप्सम के गारे के ऊपर चारकोल की परत चढ़ाई गई थी जिससे पता चलता है कि वे चारकोल के संबंध में भी जानते थे। 
 
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किसने की मोहनजोदेड़ो की खोज : मोहनजोदेड़ो और हड़प्पा सिंधु घाटी का सबसे पुरानी और सुनियोजित नगर था। दयाराम साहनी तथा माधोस्वरूप वत्स ने 1921 ई. में हड़प्पा सभ्यता की खोज की थी जबकि ‘मोहनजोदड़ो’ की खोज राखालदास बनर्जी ने की थी। यह दोनों ही नगर पास पास है। 
 
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कैसी थी मोहनजोदड़ो नगर की संवरचना : मोहनजोदड़ो हड़प्पा सभ्यता का सबसे प्रसिद्ध पुरास्थल है। मोहनजोदड़ों की सबसे बड़ी इमारत को अन्नागार कहा जाता है। हड़प्पाकालीन लोगों ने नगरों में घरों के विन्यास के लिए सामान्यतः ग्रीड पद्धति पद्धति अपनायी थी। यहां बड़े बड़े घर, चौड़ी सड़के और बहुत सारे कुएं होना के प्रमाण मिलते हैं। यहां जल और मल निकासी के लिए नालियों के होने के प्रमाण भी मिलते हैं। इससे पता चलता है कि यह नगर वर्तमान के नगरों जैसे ही विकसित और भव्य थे। ऐसा माना जाता है कि ये शहर 200 हेक्टयर क्षेत्र में फैला था। हड़प्पा सभ्यता का समूचा क्षेत्र त्रिभुजाकार का है जिसमें मोहनजोदेड़ो भी आता है।
मोहनजोदेड़ो के विशाल स्नानागार को सबसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्थल कहते हैं और विशाल स्नानागार के निकट विशाल कक्ष 20 स्तम्भों पर आश्रित है। यहां आठ फीट गहरा, 23 फीट चौड़ा और 30 फीट लंबा कुंड भी है। इसमें वाटररूफ ईंटें भी लगई हुई है। ऐसा माना जाता है कि इसका इस्तेमाल नहाने के लिए किया जाता था। मोहनजोदड़ों से प्राप्त विशाल स्नानागार में जल के रिसाव को रोकने के लिए ईंटों के ऊपर जिप्सम के गारे के ऊपर चारकोल की परत चढ़ाई गई थी जिससे पता चलता है कि वे चारकोल के संबंध में भी जानते थे। इस नगर की सड़कों और गलियों में आज भी घूमा जा सकता है। यहां की दीवारे और सड़के आज भी काफी मजबूत हैं।
 
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खुदाई में क्या क्या मिला : मोहनजोदेड़ो की खुदाई में इस नगर की इमारतें, स्नानघर, मुद्रा, मुहर, बर्तन, मूर्तियां, फूलदान आदि अनेक वस्तुएं मिली हैं। हड़प्पा सभ्यता के मोहजोदड़ो से  कपड़ों के टुकड़े के अवशेष, चांदी के एक फूलदान के ढक्कन तथा कुछ अन्य तांबें और लोहे की वस्तुएं मिली है।
यहां से काला पड़ गया गेहूं, तांबे और कांसे के बर्तन, मुहरों के अलावा चौपड़ की गोटियां, दीए, माप तौल के पत्थर, तांबे का आईना, मिट्टी की बैलगाड़ी, खिलौने, दे पाट वाली चक्की, कंघी, मिट्टी के कंगन और पत्‍थर के औजार भी मिले हैं। यहां खेती और पशुपालन संबंधी कई अवशेष मिले हैं। बताया जाता है कि सिंध के पत्थर और राजस्थान के तांबें से बने उपकरण यहां खेती में इस्तेमाल किए जाते थे। हल से खेत जोतने का एक साक्ष्य हड़प्पा सभ्यता के कालीबंगा में भी मिले हैं।
 
मोहनजोदड़ो से प्राप्त पशुपति की मुहर पर हाथी, गैंडा, बाघ और बैल अंकित हैं। हड़प्पा के मिट्टी के बर्तन पर सामान्यतः लाल रंग का उपयोग हुआ है। यहां से खुदाई में प्राप्त अवशेषों और नगर से दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यता का पता चला जिसे बाद में सिन्धु घाटी की सभ्यता का नाम दिया गया। 
 
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मोहनजोदेड़ों सभ्यता के नष्ट होने का पहला कारण : ऐसा प्रतीत होता है कि पृथ्वी की संरचना आंतरिकी में हुए बदलाव, भूकंप और जलवायु परिर्वत के चलते जहां सरस्वती भूमिगत हो गई वहीं सिंधु नदी ने अपना मार्ग बदल दिया। पहले सिंधु हिमालय से निकलकर कच्छ की खाड़ी में गिरती थी अब इसका रुख ‍बदलकर अन्य हो गया।
लगभग इसी काल में एक वैश्विक सूखा पड़ा जिसके कारण संसार की सभ्यताएं प्रभावित हुईं और इसका दक्षिण योरप से लेकर भारत तक पर असर हुआ। करीब 2200 ईसा पूर्व में मेसोपोटेमिया की सुमेरियाई सभ्यता पूरी तरह खत्म हो गई। उस समय मिस्र में पुराना साम्राज्य इस जलवायु परिवर्तन के कारण समाप्त हो गया। श्रीमद्भागवत में एक स्थान पर कहा गया है कि श्रीकृष्णजी के भाई बलराम के कारण यमुना ने अपना रास्ता बदल दिया था, जो कि उस समय सरस्वती की एक प्रमुख उपधारा थी।
 
पर भूकम्पों जैसे बड़े भौगोलिक परिवर्तनों के चलते नदी की दोनों ही बड़ी धाराएं समाप्त हो गईं। इसका एक परिवर्तन यह भी हुआ कि राजस्थान का बहुत बड़ा इलाका बंजर हो गया। अगर आप भारतीय उपमहाद्वीप के नक्शे पर सरस्वती नदी के रास्ते का निर्धारण करना चाहें तो आप समझ सकते हैं कि यह सिंधु नदी के रास्ते पर करीब रही होगी। पुरातत्वविदों का कहना है कि तब भारतीय उपमहाद्वीप में जो सबसे पुरानी सभ्यता थी, उसे केवल सिंधु घाटी की सभ्यता कहना उचित न होगा, क्योंकि यह सिंधु और सरस्वती दोनों के किनारों पर पनपी थीं। डैनिनो जैसे शोधकर्ताओं की खोजों ने इस बात को सत्य सिद्ध किया है। 
 
जलवायु परिवर्तन ने करीब 4 हजार साल पहले सिन्धु घाटी या हड़प्पा सभ्यता का खात्मा करने में एक बड़ी भूमिका निभाई थी। यह दावा एक नए अध्ययन में किया गया है। नॉर्थ कैरोलिना स्थित एप्पलचियान स्टेट यूनिवर्सिटी में नृविज्ञान (एन्थ्रोपोलॉजी) की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. ग्वेन रॉबिन्स शुग ने एक बयान में कहा कि जलवायु, आर्थिक और सामाजिक परिवर्तनों, सभी ने शहरीकरण और सभ्यता के खात्मे की प्रक्रिया में भूमिका निभाई, लेकिन इस बारे में बहुत कम ही जानकारी है कि इन बदलावों ने मानव आबादी को किस तरह प्रभावित किया।
 
अंत में दसवां रहस्य जानकर चौंक जाएंगे आप...
 

सिन्धु घाटी की सभ्यता मोहनजोदड़ो और हड़प्पा कैसे नष्ट हो गई : मोहनजोदड़ो को तो मौत का टीला कहा ही जाता है। यह सभ्यता जहां हैं आज उस हिस्से को पाकिस्तान और अफगानिस्तान कहा जाता है, महाभारतकाल में उसके उत्तरी हिस्से को गांधार, मद्र, कैकय और कंबोज की स्थली कहा जाता था। अयोध्या और मथुरा से लेकर कंबोज (अफगानिस्तान का उत्तर इलाका) तक आर्यावर्त के बीच वाले खंड में कुरुक्षेत्र होता था, जहां महाभारत युद्ध हुआ। उस काल में कुरुक्षेत्र बहुत बड़ा क्षेत्र होता था। आजकल यह हरियाणा का एक छोटा-सा क्षेत्र है।
उस काल में सिन्धु और सरस्वती नदी के पास ही लोग रहते थे। सिन्धु और सरस्वती के बीच के क्षेत्र में कुरु रहते थे। यहीं सिन्धु घाटी की सभ्यता और मोहनजोदड़ो के शहर बसे थे, जो मध्यप्रदेश की नर्मदा घाटी तक फैले थे। सिन्धु घाटी सभ्यता के मोहनजोदड़ो, हड़प्पा आदि स्थानों की प्राचीनता और उनके रहस्यों को आज भी सुलझाया नहीं जा सका है। मोहन जोदड़ो सिन्धु नदी के दो टापुओं पर स्थित है।
 
जब पुरातत्वशास्त्रियों ने पिछली शताब्दी में मोहनजोदड़ो स्थल की खुदाई के अवशेषों का निरीक्षण किया था तो उन्होंने देखा कि वहां की गलियों में नरकंकाल पड़े थे। कई अस्थिपंजर चित अवस्था में लेटे थे और कई अस्थिपंजरों ने एक-दूसरे के हाथ इस तरह पकड़ रखे थे, मानो किसी विपत्ति ने उन्हें अचानक उस अवस्था में पहुंचा दिया था।
 
उन नरकंकालों पर उसी प्रकार की रेडियो एक्टिविटी के चिह्न थे, जैसे कि जापानी नगर हिरोशिमा और नागासाकी के कंकालों पर एटम बम विस्फोट के पश्चात देखे गए थे। मोहन जोदड़ो स्थल के अवशेषों पर नाइट्रिफिकेशन के जो चिह्न पाए गए थे, उसका कोई स्पष्ट कारण नहीं था, क्योंकि ऐसी अवस्था केवल अणु बम के विस्फोट के पश्चात ही हो सकती है।
 
माना जाता है कि महाभारत के काल में ब्रह्मास्त्र छोड़े जाने के कारण यह सभ्यताएं नष्ट हो गई थी। ब्रह्मास्त्र की तुलना वर्तमान में परमाणु बम से की जाती है। हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए परमाणु बम के कारण आज भी वहां रिडियो एक्टिविटी का असर है।
 
तदस्त्रं प्रजज्वाल महाज्वालं तेजोमंडल संवृतम।
सशब्द्म्भवम व्योम ज्वालामालाकुलं भृशम।
चचाल च मही कृत्स्ना सपर्वतवनद्रुमा।। महाभारत ।। 8-10-14 ।।
 
अर्थात : ब्रह्मास्त्र छोड़े जाने के बाद भयंकर वायु जोरदार तमाचे मारने लगी। सहस्रावधि उल्का आकाश से गिरने लगे। भूतमात्र को भयंकर महाभय उत्पन्न हो गया। आकाश में बड़ा शब्द हुआ। आकाश जलने लगा। पर्वत, अरण्य, वृक्षों के साथ पृथ्वी हिल गई।
 
महाभारत का युद्ध आज से लगभग 5,300 वर्ष पूर्व हुआ था। उस दौरान गुरु द्रोण के पुत्र अश्‍वत्थामा ने भगवान कृष्ण के मना करने के बावजूद ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। अपने पिता के मारे जाने के बाद अश्चत्थामा बदले की आग में जल रहा था। उसने पांडवों का समूल नाश करने की प्रतिज्ञा ली और चुपके से पांडवों के शिविर में जा पहुंचा और कृपाचार्य तथा कृतवर्मा की सहायता से उसने पांडवों के बचे हुए वीर महारथियों को मार डाला। केवल यही नहीं, उसने पांडवों के पांचों पुत्रों के सिर भी काट डाले। अंत में अर्जुन की पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु की उसे याद आई।
 
पुत्रों की हत्या से दुखी द्रौपदी विलाप करने लगी। अर्जुन ने जब यह भयंकर दृश्य देखा तो उसका भी दिल दहल गया। उसने अश्वत्थामा के सिर को काटने की प्रतिज्ञा ली। अर्जुन की प्रतिज्ञा सुनकर अश्वत्थामा वहां से भाग निकला। श्रीकृष्ण को सारथी बनाकर अर्जुन ने उसका पीछा किया। अश्वत्थामा को कहीं भी सुरक्षा नहीं मिली तो अंत में उसने ऐषिका (अस्त्र छोड़ने का उपकरण) लेकर अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया। अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र चलाना तो जानता था, पर उसे लौटाना नहीं जानता था।
 
उस अतिप्रचंड तेजोमय अग्नि को अपनी ओर आता देख अर्जुन भयभीत हो गया और उसने श्रीकृष्ण से विनती की। श्रीकृष्ण बोले, 'है अर्जुन! तुम्हारे भय से व्याकुल होकर अश्वत्थामा ने यह ब्रह्मास्त्र तुम पर छोड़ा है। इस ब्रह्मास्त्र से तुम्हारे प्राण घोर संकट में हैं। इससे बचने के लिए तुम्हें भी अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना होगा, क्योंकि अन्य किसी अस्त्र से इसका निवारण नहीं हो सकता।'
 
अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ा, प्रत्युत्तर में अर्जुन ने भी छोड़ा। अश्वत्थामा ने पांडवों के नाश के लिए छोड़ा था और अर्जुन ने उसके ब्रह्मास्त्र को नष्ट करने के लिए। दोनों द्वारा छोड़े गए इस ब्रह्मास्त्र के कारण लाखों लोगों की जान चली गई थी।
 
इतना तो तय है कि इस काल में महाभारत का युद्ध इसी क्षेत्र में हुआ था। लोगों के बीच हिंसा, संक्रामक रोगों और जलवायु परिवर्तन ने करीब 4 हजार साल पहले सिन्धु घाटी या हड़प्पा सभ्यता का खात्मा करने में एक बड़ी भूमिका निभाई थी। यह दावा एक नए अध्ययन में किया गया है।