रविवार, 22 दिसंबर 2024
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क्या गृह-कलह से परेशान थे श्रीकृष्ण-बलराम भी.....

क्या गृह-कलह से परेशान थे श्रीकृष्ण-बलराम भी..... - shri krishna balram katha
-  राजशेखर व्यास   






बलराम श्रीकृष्ण के ज्येष्ठ बंधु थे, और सहपाठी भी थे। यज्ञोपवीत हो जाने के पश्चात् श्रीकृष्ण और बलराम दोनों ही उज्जैन में महर्षि-संदीपनी के निकट शिक्षा ग्रहण करने आये थे, श्रीकृष्ण शिक्षा और विवाह के पश्चात् यथाक्रम आगे बढ़ते गए, और एक तेजस्वी नेता हो गए थे। पाण्डवों और कौरवों के संघर्ष में वे पाण्डवों के साथ थे, यह तो सभी जानते हैं।

परन्तु आज जैसा हम समझते हैं कि वे इस देश के एकछत्र नेता और पथप्रदर्शक थे, यह ठीक नहीं है। उन्हीं के रिश्तेदार उनके विरोधी भी थे, परिवार में भी विरोध था, कौरव तो उनके सबसे बड़े शत्रु ही हो गए थे, स्वयं मामा कंस भी उनकी जान का ग्राहक हो गया था। उज्जैन में भी उनके एक मामा विंद और एक अनुविंद थें, उनकी पुत्री मित्र विंदा से शादी कर लेने के कारण इन लोगों से भी विरोध हो गया था, यही कारण है कि महाभारत युद्ध के समय अवंती के ये दोनों विंद-अनुविंद पाण्डवों के प्रतिकूल कौरवों के पक्षपाती बनकर पाण्डवों से लड़े थे, इन्हीं का हाथी अश्वत्थामा था। जो समर में मारा गया था, उसी के लिए महाभारत में स्पष्ट कहा गया है कि-
 
    ‘‘पर प्रमथनं घोरं मालवेंद्रस्य वर्मण: ।
     अश्वत्थामा हत इति-”
 
यहां पर देखने की बात है कि इस अश्वथामा-हाथी को बहुत खुले शब्दों में ‘मालवेन्द्र’ का हाथी माना गया है। और विंद-अनुविंद को अवंती के नरेश- ( ‘विन्दानुविन्दावावन्त्यौ’ ) 
 
स्पष्ट है कि अवंती नरेश के हाथी को मालवेका कहा गया है। जो इतिहासज्ञ मालव लोगों को 7वीं,8वीं शती के पश्चात् मालव में आया बतलाते हैं, उसमें कितना तथ्य है ? क्योकिं महाभारत-काल में ही अवंती को ‘मालव’ माना लिया गया था। 

हां, तो श्रीकृष्ण के समय उनके विरोधियों की संख्या कम नहीं थी, उनके परिवार के लोग भी कूटनीति विशारद समझते थे, महाभारत की सारी लड़ाई जो-स्वजनों में ही थी-का मूल कारण श्रीकृष्ण को ही माना जाता था। इसीलिए पतिव्रता गांधारी ने बड़े रोष के साथ शाप दिया था- यदि मैंने कुछ भी पति सेवा के कारण तप का उपार्जन किया है तो तुम भी जाति और बन्धु-बाधुवों के साथ इसी तरह मारे जाओगे, जैसे ये भारत वधुएं रोती-कलपती हैं, वैसे ही अन्धक, वृष्णि और यादवों की स्त्रियां रोती रहेंगी, और उनका सभी तरह पतन हो जाएगा। (“स्त्रिय: परिपतिष्यन्ति यथैता:  भारतस्त्रिय:”) इस पर श्रीकृष्ण को बहुत लज्जित होना पड़ा था। 
श्रीकृष्ण के लिए उपनिषदों में कहा गया है कि ‘कृष्णों हतदांगिरसो’ अर्थात कृष्ण आंगिरस थे, इस आंगीरस होने का एक कारण है, वस्तुत: वे यादव थे, परन्तु पुराने जमाने में यह प्रथा कि वंश से भी लोग विश्रुत होते थे, और गुरु से गोत्र लेकर ‘गोत्रपत्य’ भी हो जाते थे। श्रीकृष्ण ने अपने गुरु से गोत्र ग्रहण कर लिया था, अपने कुल से नहीं, गुरु संदीपन अंगिरा देश के थे, और इसी कारण श्रीकृष्ण ‘अंगिरस्’ माने गए थे।
 
श्रीकृष्ण वंश में आज भी जामनगर के महाराजा का कुल चला आ रहा है, एक बार जब स्वयं हमने देखा कि उनके पुरोहित एक प्रसंग पर संकल्प में महाराजा के गोत्र-प्रवर कुलदेव परम्परा का उल्लेख कर रहे थे, वह ठीक वही था, जो हमारी (लेखक) वंश परम्परा का है, तो हमें विस्मय ही हुआ था। इन पक्तियों का लेखक महर्षि संदीपनी के वंश में उत्पन्न हैं। यह समानता देखकर हमें लगा कि यह ‘गुरोर्गोत्रपत्यम्’ का ज्वलंत प्रमाण है। अस्तु, 
 
श्रीकृष्ण के साथ उनके बड़े भाई बलराम भी उनकी कुटनीति के कारण प्राय: सहमत नहीं थे, उनकी पुत्री के विवाह में भी श्रीकृष्ण ने षड्यंत्र द्वारा बलराम की मर्जी के विरुद्ध अन्य वर से शादी करवा दी थी। और शादी के क्षण तक बलराम को पता तक नहीं चलने दिया था।
 
इसी तरह बलराम ने महाभारत समर में भी किसी तरह भाग नहीं लिया था। यह तो सारी महाभारत कथा से सर्वज्ञात ही है। महाकवि-कालिदास ने भी अपने सर्वप्रिय-ग्रंथ-मेघदूत के श्लोक 48 में स्पष्ट संकेत दिया है-‘समर विमुखो मत्वांगली: या सिषेवे’ जिस भाई बन्दों के मोह-मत्व को तिलांजलि देकर, तथा अर्जुन को दिलवाकर श्रीकृष्ण ने समर का आयोजन किया, बलराम पर इसका प्रभाव नहीं पड़ा, वे आपसी संबंधों के कारण (बन्धु प्रीत्या समर विमुख: ) लड़ाई से दूर भागते रहें। 
बलराम का नाम ‘हलधर’ भी था, वे हल लिए रहते थे, और मदिरा का सेवन भी करते थे, इसीलिए शायद मदिरा का नाम भी ‘हलि प्रिया’ (किसानों का प्रिय) ही प्रचलित हो गया था। परन्तु उनकी प्रिय सुरा को आगे चलकर बलराम ने छोड़ भी दिया था, बलराम के विषय में कथा है कि उनकी पत्नी रेवती अति सुन्दर थी, वह मदिरा की प्याली अपने हाथों से भरकर बलराम को देती थी, उस समय उस प्याली में उनकी आंखों का प्रतिबिम्ब पड़ता था, कालिदास ने इसी का संकेत दिया है-‘हत्वा हालामथिमत रसां रेवती लोचनाङ्काम्’ महाभारत के समर के समय बलराम घर छोड़कर तीर्थ यात्रा को चल दिए थे, मदिरा छोड़ देने का कारण बतलाते हुए भी एक कथा कही गई है, जब बलराम तीर्थ यात्रा करते हुए नैमिषारण्य पहुंचे तब सब ऋषि उठकर स्वागत के लिए खड़े हो गए परन्तु सूत नहीं उठे, इसपर बलराम को बहुत क्रोध आ गया, बलराम ने सूत का मस्तक काट डाला। उस पाप निवारण के लिए सारे भारत में बलराम ने यात्रा की, उस समय मदिरा को छोड़ दिया था। जो भी हो महाभारत में कृष्ण को जितना महत्व मिला, समर विमुख-होने के कारण बड़े भाई बलराम उपेक्षित ही रहे। आगे चलकर कृष्ण सर्वांश पूर्ण ‘कृष्णस्तु भगवान स्वयम्’ समझे माने गए।

बलराम भगवान के भाई होते हुए भी सुरासेवी और समर-विमुख ही समझे गए। वैसे तो स्वयं धृतराष्ट्र भी युद्ध में सम्मिलित नहीं हुए थे, पर युद्ध के कारणों में उनका नाम द्रुपद, पांचाल, और कृष्ण की तरह ही प्रमुखता से लिया गया था, पर बलराम तो युद्ध-विमुख ही रहे हैं। श्रीकृष्ण के सहोदर, और अग्रज होते हुए भी बलराम हलधर, और हलप्रिया ही बने रहे।