पंडित मौलाना बशीरूद्दीन
जिन्होंने अरबी में गीता और संस्कृत में कुरआन रची
-
फिरोज बख्त अहमद जन्म : 20 अक्टूबर, 1900निधन : 12 फरवरी, 1988पंडित बशीर की अरबी की दक्षता देख तो मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रोफेसर भी दंग रह गए। इसके पश्चात उन्होंने हदीस, कुरआन, वेदों और गीता का गूढ़ अध्ययन किया और उनसे संबंधित हजारों अन्य पुस्तकें पढ़ने के बाद संस्कृत में कुरआन और अरबी में गीता का अनुवाद किया। इन दोनों ग्रंथों पर इस प्रकार का यह पहला अनुवाद था। उनकी विशेषता यह थी कि कुरआन और गीता दोनों उन्हें न केवल अरबी और संस्कृत में कंठस्थ थे बल्कि उनका अनुवाद भी उन्हें कंठस्थ था। पंडित कारी मौलाना डॉ. बशीरूद्दीन कादरी शाहजहांपुरी वास्तव में हकदार हैं भारत रत्न के क्योंकि उन्होंने वह कार्य कर दिखाया कि जो पूर्ण विश्व में कोई भी नहीं कर पाया। उन्होंने गीता का अनुवाद अरबी और कुरआन का संस्कृत में किया था। आप 11 भाषाओं के विद्वान थे। यही नहीं, उन्होंने इन दोनों पवित्र ग्रंथों को कंठस्थ भी किया हुआ था।
नौबत यह थी कि दूसरे पंडित और मौलाना लोग भी अपने श्लोकों में उपसर्ग और हलंत के उच्चारण और आयतों का सुधार कराने आते थे। गीता और कुरआन पर पंडित बशीरूद्दीन को व्याख्यान देने के लिए आए दिन मंदिरों व मस्जिदों में आमंत्रित किया जाता था। पंडितजी चाहते तो करोड़ों बना सकते थे मगर आत्मसम्मान के धनी थे, इसलिए आखिरी सांस तक अपने सिद्धांतों पर बने रहे।इसका इनाम उन्हें यह मिला कि अपने गांधी फैज-ए-आम इंटर कॉलेज से 1986 में उन्हें सेवानिवृत्त होने के बाद उनके निर्धन परिवार को अब तक सेवानिवृत्ति फंड और ग्रेच्युटी प्राप्त नहीं हुए हैं। उनकी पत्नी तमीजन बेगम मरते दम तक उन ढाई हजार पुस्तकों के संरक्षण की दुहाई देते अल्लाह को प्यारी हो गईं जो पंडितजी ने एकत्रित की थीं एवं लिखी भी थीं। अंत में उनके छोटे बेटे जफरूद्दीन कादरी ने इन पुस्तकों को सुरक्षित किया। अंतरधर्म सद्भाव व समभाव को बढ़ावा देने वाले इस विद्वान ने अपना सारा जीवन गरीबी में गुजारा। इनके पुत्र हाफिज मुईजुद्दीन कादरी, जो कि जिला चंदौसी में अध्यापक हैं, ने सरकार से निवेदन किया था कि उनके विद्वान पिता के नाम पर शाहजहांपुर में एक सड़क का नाम रख दिया जाए तो आज तक इस पर कोई विचार नहीं हुआ है। वैसे सच्चाई तो यह है कि इन्हें भारत रत्न से सुसज्जित किया जाना चाहिए। भारतीय साहित्य जगत के प्रशस्ति पत्र के स्वर्णिम अक्षरों में शाहजहांपुर का नाम लिखा जाएगा क्योंकि यहां के शहीदों ने विश्व शिक्षा जगत में अपना विशेष स्थान बनाया है। शाहजहांपुर शहीदों और वतन पर मिटने वालों की ही नगरी नहीं अपितु विद्वता के मार्तंड विद्वानों का वतन होने का गौरव भी उसे प्राप्त है। बकौल मनोज कुमार, प्रधानाचार्य, कामरेड दूल्हा खां इंटर कॉलेज, यहां ऐसे शहीद और विद्वान सदा से ही रहे हैं, जिन्हें सामाजिक ख्याति और जगव्यापी मान्यता प्राप्त करने का लालच कभी भी नहीं रहा मगर शिक्षा-संसार में स्थापित मापदंडों का जहां तक संबंध है, भारत से लेकर मॉरिशस, डेनमार्क, फिजी और हवाई तक के हिंदी, अरबी और संस्कुत साहित्य परिवेशों में इनका मान सम्मान है।मौलाना साहब का जन्म शाहजहांपुर के अनजान गांव थाना कलां में 20 अक्टूबर, 1900 को हुआ था। उनके पिता मौलवी खैरूद्दीन बदायूं के लिलमा गांव की प्रारंभिक पाठशाला में अध्यापक थे। इसी पाठशाला में अपनी प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् पंडित बशीर ने अपनी तेजस्वी छवि और प्रतिभा का परिचय देते हुए इसी कस्बे से हाईस्कूल पास किया और 1922 में इंटर की परीक्षा में बरेली इंटर कॉलेज में प्रथम स्थान प्राप्त किया। स्नातक एवं स्नातकोत्तर अलीगढ़ से किए और फिर पी-एच.डी. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से पास की। इसके पश्चात् उर्दू, हिंदी, अंग्रेजी, फारसी और अरबी में निपुणता प्राप्त की। पंडित बशीर की अरबी की दक्षता देख तो मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रोफेसर भी दंग रह गए। इसके पश्चात उन्होंने हदीस, कुरआन, वेदों और गीता का गूढ़ अध्ययन किया और उनसे संबंधित हजारों अन्य पुस्तकें पढ़ने के बाद संस्कृत में कुरआन और अरबी में गीता का अनुवाद किया। इन दोनों ग्रंथों पर इस प्रकार का यह पहला अनुवाद था। अभी तक किसी और ने तो ऐसा किया नहीं है। तदोपरांत 34 वर्ष तक लगातार इस्लामिया इंटर कॉलेज से 1986 में अध्यय न के बाद अवकाश प्राप्त किया। उनकी विशेषता यह थी कि कुरआन और गीता दोनों उन्हें न केवल अरबी और संस्कृत में कंठस्थ थे बल्कि उनका अनुवाद भी उन्हें कंठस्थ था। बहुत सी कुरआन की आयतों का व्याख्यान कर वे उनसे मिलते-जुलते उपदेशों वाले गीता के श्लोकों की समीक्षा भी किया करते थे। उनका निचोड़ था कि गीता और कुरान के साठ प्रतिशत उपदेश एक ही हैं। इतिहास का भी पंडित बशीरूद्दीन साहब को जबर्दस्त ज्ञान था। यही कारण है कि हिंदी में उन्होंने एक इतिहास पुस्तिका 'तारीख-ए-हिंदी कुरूने-ए-वुस्ता' की रचना की। यह पुस्तक कई वर्षों से अलीगढ़ विश्वविद्यालय की स्नातक कक्षाओं में आज भी पढ़ाई जाती है। पंडितजी का मानना था कि भारतीय मदरसों में आधुनिक शिक्षा की अत्यंत आवश्यकता है। यही कारण है कि बशीर साहब रचित कुछ पुस्तकें जयपुर के रामगढ़ क्षेत्र की बादी-ए-हिदायत में स्थित मदरसा 'जामियतुल हिदाया' में पढ़ाई जाती हैं। यह मदरसा एक ऐसा आधुनिक शिक्षा मंदिर है जहां मौलवी कंप्यूटर, हिंदी विज्ञान आदि सीख रहे हैं। जामियतुल हिदाया के महासचिव व प्रचार्या फजलुर्रहमान मुजद्दी ने बताया कि बशीरूद्दीन साहब जीवन भर गरीबी से जूझते रहे पर किसी ने भी कोई सहायता नहीं की। यही कारण है कि 'तारीख-ए-हिंदी कुरूने-ए-वुस्ता' का प्रकाशन 1959 से प्रारंभ हुआ और तीन भागों से मात्र दो भागों का प्रकाशन ही पूर्ण हुआ। आर्थिक कठिनाइयों के कारण तीसरा और अंतिम भाग प्रकाशित नहीं हो सका है।पंडित मौलाना बशीरूद्दीन का निधन 12 फरवरी, 1988 में हुआ। उनकी पत्नी का कहना था कि यूं तो जबानी जमा खर्च करने वाले व सहानुभूति जताने वालों की कमी नहीं परंतु लग कर किसी ने उनकी सहायता नहीं की। मिट्टी की चिनाई से बने ईंटों वाले खपरैल की छत वाले मकान में रहने वाली बशीर की विधवा एड़ियां रगड़कर मर गईं। इन पुस्तकों की न तो कहीं से रॉयल्टी आती है और न ही कोई प्रकाशक उन तक पहुंच पाता है। उत्तरप्रदेश सरकार से कई वर्षों तक वे विनती करती रहीं कि किसी अच्छे सरकारी विभाग में बशीरूद्दीन साहब की पुस्तकें सुरक्षित कर दी जाएं मगर कोई भी उनकी बात किसी ने नहीं सुनी।