खुली रखिए बातचीत की खिड़कियाँ
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विनती गुप्तादोनों सास-बहू का प्रेम लोगों के लिए मिसाल हुआ करता था। सास पीछे बैठती व बहू स्कूटर चलाती। सास के चेहरे पर एक आत्मसंतुष्टि का भाव या यूँ कहिए कि इस बात का घमंड था कि उसकी बहू कितनी अच्छी है। जहाँ आज के समय सास-बहू साथ नहीं रहती हैं वहाँ उन दोनों के बीच इतना अच्छा सामंजस्य सचमुच ईर्ष्या की बात थी। दोनों से अकेले में भी मिलने पर एक-दूसरे की प्रशंसा करते नहीं थकती थीं। चाहे कोई कितना ही उनके मन को टटोले एक-दूसरे की बुराई का एक शब्द नहीं सुन पाता था। परंतु कुछ दिनों से दोनों की एक-दूसरे से बोलचाल बंद है। अब दोनों एक-दूसरे की बुराई करने को आतुर है। घर स्वर्ग से नर्क बन गया है। पता नहीं ऐसा क्या हुआ कि दोनों एक-दूसरे को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़तीं। बहुत कुरेदने पर बहू ने बताया कि इस अनबन की शुरुआत तब से हुई जब सास की एक सहेली ने बताया कि तुम्हारी सास मुझसे कह रही थी कि जबसे बहू आई है सुबह के समय उनकी दिनचर्या में परिवर्तन आ गया है। पोते के स्कूल जाने की वजह से अब वह सबेरे न तो घूमने जा पाती हैं न ही मंदिर। खाना-पीना भी बहू की पसंद का बनता है और भी न जाने क्या-क्या। बस यही सब सुनकर उसका मन कसैला हो गया। सोचा सास, सास ही होती है। ऐसा ही कुछ सास के साथ भी हुआ बहू उनके बारे में क्या कहती है, कोई उल्टी-सीधी कह गया और दोनों के बीच बातचीत बंद हो गई। अब स्थिति यह है कि दोनों को एक-दूसरे के किए में खोट नजर आती है। ऐसा ही एक वाकया मेरे साथ भी हुआ। मेरी ऑफिस की एक सहकर्मी, जो एक साल पहले नियुक्त हुई थी, हमेशा जब भी मिलती मुस्करा कर अभिवादन अवश्य करती। काम की व्यस्तता के बीच भी वह नमस्ते तो कर ही लेती। परन्तु पिछले कुछ दिनों से वह मुझे नजरंदाज करने लगी। पहले मैंने अपने मन को समझाया कि ऐसा कुछ नहीं है, मैं अत्यधिक संवेदनशील हूँ शायद ऐसा मुझे इसीलिए लगा होगा। किन्तु जब यही क्रम 15-20 दिनों तक जारी रहा तो मेरा मन नहीं माना। मैंने उसे बुलाकर पूछा। पहले तो वह आई नहीं, जब आई तो आवेश में थी। वह भरी हुई थी। उसने मुझे जो बताया वह सुनकर मैं दंग रह गई। उसने कहा- एक अन्य सहकर्मी जो कुछ दिनों पहले ही ट्रांसफर होकर आई थीं, उन्होंने उसे बताया कि मैंने उसके बारे में कुछ बुराई की है और वह बातें जो मैंने कही ही नहीं है वह उसने मुझे बताई। मैं भी आवेश में आ गई। मैंने उससे कहा-"चलो, अभी आमने-सामने कर देते हैं। मैंने ऐसा कब कहा? जिससे मैं बात कम ही करती हूँ उससे मैं क्यों कुछ कहूँगी!" यह बात उसे भी समझ आ गई। मैंने कुछ नहीं कहा। परन्तु साथ ही उसे यह समझाया कि यदि किसी ने कुछ कहा तो मुझसे पूछती तो सही कि क्या यह सच है। यूँ हम गलतफहमी का शिकार तो नहीं होते। बातचीत बंद करना किसी समस्या का समाधान तो नहीं। ऊपर जो कुछ उदाहरण थे उनमें भी यही हुआ। किसी ने कुछ कह दिया, हमने उसे मान लिया। हमने उस बात की तह तक जाने की कोशिश नहीं की। न ही हमने अपने अंतरंग मित्र से उस बात को कहा जिससे हमने बातचीत बंद की। जिसने भी हमारे रिश्ते में सेंध लगाई, उसने साथ में यह भी अवश्य कहा होगा कि तुम उससे यह बात मत कहना, बेकार में झगड़ा होगा। परंतु यह क्या हुआ? झगड़े में कुछ तो साफ होता। यहाँ तो सब कुछ अंदर ही रह गया और बढ़ती गई गलतफहमी की दीवार। दुश्मनों की चाल कामयाब हो गई। वे उनके सगे हो गए और आप दुश्मन! अब जब हमने बातचीत ही बंद कर दी है तो सुलह कैसे हो सकती है? कहने का तात्पर्य यही है कि आपके अपनों से कभी भी किसी भी परिस्थिति में बोलना बंद मत कीजिए। क्योंकि जब अबोला लंबा खिंच जाता है, तो रिश्ते रेत की तरह मुट्ठी से फिसल जाते हैं। समय निकल जाता है, हाथ में कुछ नहीं रहता है। सिर्फ रह जाता है दर्द का अहसास। इस दर्द को सहने से तो बेहतर है कि किसी से कोई असहमति या मन में कोई बात होने पर खुलकर बात कर ली जाए ताकि आपके रिश्तों में मिठास बनी रहे।