पहली बात तो यह कि माता सीता का धरती में समा जाने के प्रसंग पर मतभेद और विरोधाभाष है। पद्मपुराण की कथा में सीता धरती में नहीं समाई थीं बल्कि उन्होंने श्रीराम के साथ रहकर सिंहासन का सुख भोगा था और उन्होंने भी राम के साथ में जल समाधि ले ली थी।
वाल्मीकि रामायण के उत्तर कांड के अनुसार प्रभु श्रीराम के दरबार में लव और कुश राम कथा सुनाते हैं। सीता के त्याग और तपस्या का वृतान्त सुनकर भगवान राम ने अपने विशिष्ट दूत के द्वारा महर्षि वाल्मीकि के पास सन्देश भिजवाया, 'यदि सीता का चरित्र शुद्ध है और वे आपकी अनुमति ले यहां आकर जन समुदाय में अपनी शुद्धता प्रमाणित करें और मेरा कलंक दूर करने के लिए शपथ करें तो मैं उनका स्वागत करूंगा।'
यह संदेश सुनकर वाल्मीकि माता सीता को लेकर दरबार में उपस्थित हुए। काषायवस्त्रधारिणी सीता की दीन-हीन दशा देखकर वहां उपस्थित सभी लोगों का हृदय दुःख से भर आया और वे शोक से विकल हो आंसू बहाने लगे।
वाल्मीकि बोले, 'श्रीराम! मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि सीता पवित्र और सती है। कुश और लव आपके ही पुत्र हैं। मैं कभी मिथ्याभाषण नहीं करता। यदि मेरा कथन मिथ्या हो तो मेरी सम्पूर्ण तपस्या निष्फल हो जाय। मेरी इस साक्षी के बाद सीता स्वयं शपथपूर्वक आपको अपनी निर्दोषिता का आश्वासन देंगीं।'
तत्पश्चात् श्रीराम सभी ऋषि-मुनियों, देवताओं और उपस्थित जनसमूह को लक्ष्य करके बोले, "हे मुनि एवं विज्ञजनों! मुझे महर्षि वाल्मीकि जी के कथन पर पूर्ण विश्वास है परन्तु यदि सीता स्वयं सबके समक्ष अपनी शुद्धता का पूर्ण विश्वास दें तो मुझे प्रसन्नता होगी।"
राम का कथन समाप्त होते ही सीता हाथ जोड़कर, नेत्र झुकाए बोलीं, "मैंने अपने जीवन में यदि श्रीरघुनाथजी के अतिरिक्त कभी किसी दूसरे पुरुष का चिन्तन न किया हो तो मेरी पवित्रता के प्रमाणस्वरूप भगवती पृथ्वी देवी अपनी गोद में मुझे स्थान दें।"
सीता के इस प्रकार शपथ लेते ही पृथ्वी फटी। उसमें से एक सिंहासन निकला। उसी के साथ पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी भी दिव्य रूप में प्रकट हुईं। उन्होंने दोनों भुजाएं बढ़ाकर स्वागतपूर्वक सीता को उठाया और प्रेम से सिंहासन पर बिठा लिया। देखते-देखते सीता सहित सिंहासन पृथ्वी में लुप्त हो गया। सारे दर्शक स्तब्ध से यह अभूतपूर्व दृश्य देखते रह गए।
इस सम्पूर्ण घटना से राम को बहुत दुःख हुआ। उनके नेत्रों से अश्रु बहने लगे। वे दुःखी होकर बोले, "मैं जानता हूं, मां वसुन्धरे! तुम ही सीता की सच्ची माता हो। राजा जनक ने हल जोतते हुए तुमसे ही सीता को पाया था, परन्तु तुम मेरी सीता को मुझे लौटा दो या मुझे भी अपनी गोद में समा लो।" श्रीराम को इस प्रकार विलाप करते देख ब्रह्मादि देवताओं ने उन्हें नाना प्रकार से सान्त्वना देकर समझाया।
इसके बाद अनेकों वर्षो तक राज्य करने के बाद राम जी भी भाइयों और कुछ अयोध्या वासियों समेत सरयू में उतरते गए और एक एक करके सब वैकुण्ठ पहुंच गए। इससे पूर्व उन्होंने लव को लवपुरी नगर में राज्य दिया जबकि कुश अयोध्या के राज सिंघासन सौंपा।
यह घटना इस प्रकार है। एक दिन काल तपस्वी के वेश में राजद्वार पर आया। उसने सन्देश भिजवाया कि मैं महर्षि अतिबल का दूत हूं और अत्यन्त आवश्यक कार्य से श्री रामचन्द्र जी से मिलना चाहता हूं। संदेश पाकर राजचन्द्रजी ने उसे तत्काल बुला भेजा और महर्षि अतिबल का सन्देश सनाने का आग्रह किया। यह सुनकर मुनिवेषधारी काल ने कहा, 'यह बात अत्यन्त गोपनीय है। यहां हम दोनों के अतिरिक्त कोई तीसरा व्यक्ति नहीं रहना चाहिए। मैं आपको इसी शर्त पर उनका संदेश दे सकता हूं कि यदि बातचीत के समय कोई व्यक्ति आ जाए तो आप उसका वध कर देंगे।'
श्रीराम ने काल की बात मानकर लक्ष्मण से कहा, "तुम इस समय द्वारपाल को विदा कर दो और स्वयं ड्यौढ़ी पर जाकर खड़े हो जाओ। ध्यान रहे, इन मुनि के जाने तक कोई यहां आने न पाए। जो भी आएगा, मेरे द्वारा मारा जाएगा।'
जब लक्ष्मण वहां से चले गए तो उन्होंने काल से महर्षि का सन्देश सुनाने के लिए कहा। उनकी बात सुनकर काल बोला, 'मैं आपकी माया द्वारा उत्पन्न आपका पुत्र काल हूं। ब्रह्मा जी ने कहलाया है कि आपने लोकों की रक्षा करने के लिए जो प्रतिज्ञा की थी वह पूरी हो गई। अब आपके स्वर्ग लौटने का समय हो गया है। वैसे आप अब भी यहां रहना चाहें तो आपकी इच्छा है।'
यह सुनकर श्रीराम ने कहा, "जब मेरा कार्य पूरा हो गया तो फिर मैं यहां रहकर क्या करूंगा? मैं शीघ्र ही अपने लोक को लौटूंगा।'
जब काल से रामचन्द्रजी वार्तालाप कर रहे थे, उसी समय द्वार पर महर्षि दुर्वासा रामचन्द्र से मिलने आए। वे लक्ष्मण से बोले, "मुझे तत्काल राघव से मिलना है। विलम्ब होने से मेरा काम बिगड़ जाएगा। इसलिए तुम उन्हें तत्काल मेरे आगमन की सूचना दो।'
लक्ष्मण बोले, "वे इस समय अत्यन्त व्यस्त हैं। आप मुझे आज्ञा दीजिए, जो भी कार्य हो मैं पूरा करूंगा। यदि उन्हीं से मिलना हो तो आपको दो घड़ी प्रतीक्षा करनी होगी।'
यह सुनते ही मुनि दुर्वासा का मुख क्रोध से तमतमा आया और बोले, "तुम अभी जाकर राघव को मेरे आगमन की सूचना दो। यदि तुम विलम्ब करोगे तो मैं शाप देकर समस्त रघुकुल और अयोध्या को अभी इसी क्षण भस्म कर दूंगा।'
ऋषि के क्रोधयुक्त वचन सुनकर लक्ष्मण सोचने लगे, चाहे मेरी मृत्यु हो जाए, रघुकुल का विनाश नहीं होना चाहिए। यह सोचकर उन्होंने रघुनाथजी के पास जाकर दुर्वासा के आगमन का समाचार जा सुनाया। रामचन्द्रजी काल को विदा कर महर्षि दुर्वासा के पास पहुंचे। उन्हें देखकर दुर्वासा ऋषि ने कहा, "रघुनन्दन! मैंने दीर्घकाल तक उपवास करके आज इसी क्षण अपना व्रत खोलने का निश्चय किया है। इसलिए तुम्हारे यहां जो भी भोजन तैयार हो तत्काल मंगाओ और श्रद्धापूर्वक मुझे खिलाओ।'
रामचन्द्र जी ने उन्हें सब प्रकार से सन्तुष्ट कर विदा किया। फिर वे काल को दिए गए वचन को स्मरण कर दुखी हो गए। राम दुखी देख लक्ष्मण बोले, "प्रभु! यह तो काल की गति है। आप दुखी न हों और निश्चिन्त होकर मेरा वध करके अपनी प्रतिज्ञा पूरी करें।'
लक्ष्मण की बात सुनकर उन्होंने गुरु वसिष्ठ तथा मन्त्रियों को बुलाकर उन्हें सम्पूर्ण वृतान्त सुनाया। यह सुनकर वसिष्ठ जी बोले, "राघव! आप सबको शीघ्र ही यह संसार त्याग कर अपने-अपने लोकों को जाना है। इसका प्रारम्भ सीता के प्रस्थान से हो चुका है। इसलिए आप लक्ष्मण का परित्याग करके अपनी प्रतिज्ञा पूरी करें। प्रतिज्ञा नष्ट होने से धर्म का लोप हो जाता है। साधु पुरुषों का त्याग करना उनके वध करने के समान ही होता है।'
गुरु वसिष्ठ की सम्मति मानकर श्री राम ने दुःखी मन से लक्ष्मण का परित्याग कर दिया। वहां से चलकर लक्ष्मण सरयू के तट पर आए। जल का आचमन कर हाथ जोड़, प्राणवायु को रोक, उन्होंने अपने प्राण विसर्जन कर दिए। इसके बाद श्रीराम भी जल समाधि लेने के लिए आतुर हुए और उन्होंने भरत को राज्य सौंपना चाहता लेकिन भरत ने इनकार कर दिया। भरत ने कहा मैं भी आपके साथ जाऊंगा। प्रजाजन भी कहने लगे कि हम सब भी आपके साथ चलेंगे।
कुछ क्षण विचार करके उन्होंने दक्षिण कौशल का राज्य कुश को और उत्तर कौशल का राज्य लव को सौंपकर उनका अभिषेक किया। कुश के लिए विन्ध्याचल के किनारे कुशावती और लव के लिये श्रावस्ती नगरों का निर्माण कराया फिर उन्हें अपनी-अपनी राजधानियों को जाने का आदेश दिया।
इसके पश्चात् एक द्रुतगामी दूत भेजकर मधुपुरी से शत्रघ्न को बुलाया। दूत ने शत्रुघ्न को लक्ष्मण के त्याग, लव-कुश के अभिषेक आदि की सारी बातें भी बताईं। इस घोर कुलक्षयकारी वृतान्त को सुनकर शत्रुघ्न अवाक् रह गये। तदन्तर उन्होंने अपने दोनों पुत्रों सुबाहु और शत्रुघाती को अपना राज्य बांट दिया। उन्होंने सबाहु को मधुरा का और शत्रुघाती को विदिशा का राज्य सौंप तत्काल अयोध्या के लिए प्रस्थान किया। अयोध्या पहुंचकर वे बड़े भाई से बोले, 'मैं भी आपके साथ चलने के लिए तैयार होकर आ गया हूं।"
यह सुनकर वहां उपस्थित सुग्रीव, विभीषण भी प्रभु के साथ सरयू में जाने के लिए तैयार हो गए लेकिन श्रीरामचंद्र जी ने विभीषण को रोक दिया। विभीषण को कलियुग की संधि तक जीवित रहने का आदेश दिया।
अगले दिन प्रातःकाल होने पर धर्मप्रतिज्ञ श्री रामचन्द्रजी ने गुरु वसिष्ठ जी की आज्ञा से महाप्रस्थानोचित सविधि सब धर्मकृत्य किए। तत्पश्चात् पीताम्बर धारण कर हाथ में कुशा लिए राम ने वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के साथ सरयू नदी की ओर प्रस्थान किया। नंगे पैर चलते हुए वे सरयू तट पहुंचे। उनके पीछे सारा नगर था। इस समस्त समुदाय में कोई भी दुःखी अथवा उदास नहीं था, बल्कि सभी इस प्रकार प्रफुल्लित थे जैसे छोटे बच्चे मनचाहा खिलौना पाने पर प्रसन्न होते हैं।
श्रीरामचन्द्रजी ने सभी भाइयों और साथ में आए जनसमुदाय के साथ पैदल ही सरयू नदी में प्रवेश किया। अकाश में स्थित सभी देवता उनकी स्तुति का गान कर रहे थे। प्रभु के पीछे जिसने भी सरयू में डुबकी लगाई वहीं शरीर त्यागकर परमधाम का अधिकारी हो गया।