सत्य घटना : ईश्वर है
- आदित्य नारायण शुक्ला 'विनय'
यह सच्ची कहानी या सत्य घटना मैंने अपने दादा जी स्वर्गीय पं. रामलाल शुक्ला के मुँह से सुनी थी। उन्होंने स्वयं यह घटना अपने पिता (यानी मेरे परबाबा या प्रपितामह) स्व. पं. जगेश्वर शुक्ला से सुनी थी। घटना मेरे पूर्वजों के ग्राम तुलसी, जिला जाँजगीर, छत्तीसगढ़, भारत की है। सन् 1880 के अक्टूबर-नवम्बर (दीपावाली के आसपास) की बात है। तब ग्राम तुलसी जिला बिलासपुर में आता था। बनारस की एक रामलीला मण्डली लीला खेलने तुलसी आई हुई थी। लीला में 20-22 कलाकार थे जो मेरे परबाबा जगेश्वर शुक्ला के घर पर ही ठहरे हुए थे, एक बड़े हालनुमा कमरे में। वहीं वे लोग अपना भोजन बनाते-खाते और रिहर्सल वगैरह करते थे। लीला-मण्डली के स्वामी और निर्देशक थे 45-46 वर्षीय पं. कृपाराम दुबे। मण्डली में एक 35-36 वर्षीय फौजदार शर्मा नाम का भी आदमी था, वह पं. कृपाराम दुबे के सहायक व लीला-मण्डली के सहायक निर्देशक भी थे। फौजदार बेहद उग्र स्वभाव का, मन का मैला प्रकृति वाला व्यक्ति था। रामलीला में प्रयुक्त तथा उपयोग में लाए जाने वाले सभी सामग्रियों का भी फौजदार शर्मा ही प्रबंध करता था। एक दिन दोपहर के भोजन के बाद रामलीला के कलाकारों का रिहर्सल चल रहा था। लीला-मण्डली के स्वामी-निर्देशक कृपाराम दुबे ने फौजदार को सलाह और निर्देश दिया कि राम जिस 'शिव-धनुष' को तोड़ते हैं वह धनुष पहले की लीलाओं की अपेक्षा नरम होना चाहिए ताकि राम की भूमिका कर रहा 17 वर्षीय किशोर उसे आसानी से तोड़ सके। शायद कृपाराम ने पूर्व की लीलाओं में यह महसूस किया था कि राम को धनुष भंग करने में कुछ कठिनाई हुई या देर लग गई। बस इस छोटी-सी बात का फौजदार ने 'बतंगड़' बना दिया। फलस्वरूप कृपाराम और फौजदार में काफी कहा-सुनी हो गई। कृपाराम ने उसे जो खरी-खोटी सुनाई। उससे फौजदार ने अपना सार्वजानिक अपमान महसूस किया और अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए मन ही मन उसने एक योजना बनाई। फौजदार ने न केवल कृपाराम का बल्कि उसकी रामलीला के भी मखौल उड़ाने की एक तरकीब सोच ली। अगले दिन की बात है। उस रात लीला में राम के द्वारा धनुष-भंग और फिर सीता-स्वयंवर का ही दृश्य खेला जाना था। लीला में राम जिस शिव-धनुष को तोड़ते थे उस धनुष का निर्माण और प्रबंध फौजदार ही करता था। वह इस धनुष का निर्माण करता था- एक अत्यंत लचीले बाँस (कमचिल) को मोड़कर तथा उस पर पैरा (धान के सूखे पत्ते) व फिर रंगीन कागज लपेट कर। ताकि राम की भूमिका कर रहा 17 वर्षीय किशोर आसानी से वह शिव-धनुष उठा भी सके और तोड़ भी सकें। लेकिन आज की रात तो वह अपने 'बॉस' कृपाराम को मजा चखाना और उसकी लीला-मण्डली का सार्वजानिक अपमान भी कराना चाहता था। इसलिए उसने एक चाल चली जिसकी उसने कानोकान किसी को खबर भी नहीं होने दी। फौजदार ने अपने मेजबान जगेश्वर शुक्ला से किसी काम का बहाना लेकर लोहे का एक छड़ (रॉड) माँग लिया। फिर वह पड़ोस के 'मिसदा' नामक गाँव चला गया। वहाँ के एक लोहार से उसने वह लोहे का रॉड धनुषाकार में मुड़वाँ लिया। फिर किसी एकांत स्थान में जाकर उस धनुषाकार लोहे के ऊपर रंगीन कागज लपेट कर उसने आज रात की लीला के लिए 'शिव-धनुष' तैयार कर लिया।
फौजदार अपने डेरे में वापस लौटा और उसने वह शिव-धनुष कहीं छिपा कर रख लिया। जब रात को लीला शुरू हुई तो फौजदार ने वहीं (रंगीन कागजों से लिपटा) लोहे की रॉड से बना शिव-धनुष चुपचाप रंगमंच में ले जाकर टेबल पर रख दिया। पं. कृपाराम दुबे रंगमंच के बगल से ही हारमोनियम पर बैठे हुए थे और दृश्य के अनुरूप रामायण की चौपाई, दोहा, सोरठे गा-बजा रहे थे। फौजदार नेपथ्य में छिपा तमाशा देखने के लिए उत्सुक था। समय आने पर विश्वामित्र की आज्ञा पाकर राम धनुष उठाने के लिए खड़े हुए। आगे बढ़कर राम ने धनुष तो उठा लिया पर यह क्या!!! पहले की लीला में तो वह इतना कठोर या भारी नहीं हुआ करता था। फिर वह उसे मध्य से तोड़े कैसे? अभी कुछ देर पहले रावण तथा अन्य दिग्गजों का यहाँ जो अपमान हुआ था क्या वहीं राम का भी होने जा रहा है?राम ने कातर नेत्रों से हारमोनियम बजा रहे कृपाराम की ओर देखा। राम से आँखें चार होते ही दुबे भी समझ गए कि दाल में कुछ काला है और राम बड़े संकट में हैं। राम धनुष उठा चुके हैं। सामने बैठे अपार दर्शक समूह उत्सुकता से राम के द्वारा धनुष भंग की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे हैं। ऐसे समय में पर्दा गिरना भी बड़ा ही अशोभनीय होता यानी राम की कमजोरी को ही स्पष्ट रूप से परदे से ढाँकना। पं. कृपाराम दुबे ने सच्चे ह्रदय से भगवान राम से प्रार्थना की- 'हे प्रभु आज लाज रख ले। कभी कृष्ण के रूप में तुमने द्रौपदी की लाज राखी थी। आज मेरी और तेरी लीला दोनों की लाज रख लें। आज तुम्हारी परीक्षा है भगवान राम। यदि इस परीक्षा में तुम असफल हो गए तो मनुष्य कैसे सफल हो सकता है? हे राम! लाज रख ले! लाज रख ले! लाज रख ले!पं. दुबे के हाथ अद्भुत-रूप से लगातार हारमोनियम पर थिरक रहे थे। और तबला वादक भी वैसा ही उनका साथ दे रहा था। वैसा ही मजीरा वादक भी। हारमोनियम, तबले और मंजीरे की संगति में दर्शक भावविभोर होकर खो गए थे और पं. कृपाराम दुबे भी खो गए थे सच्चे ह्रदय से राम की भक्ति में। उनके मन और मस्तिष्क राम के चरणों में लीन हो चुके थे। उन्होंने रंगमंच के राम को नेत्रों से ही निर्देश दिया- 'धनुष खींचो' और भावविभोर होकर गाने लगे- लेत चढ़ावत खैंचत गाढें, काहूँ न लखा देख सबु ठाढें II तेहि छन राम मध्य धनु तोरा, भरे भुवन धुनी घोर कठोरा II तभी रंगमंच पर बिजली कड़कने की सी एक टँकार हुई और अगले ही क्षण राम के हाथों में शिव-धनुष टूट कर झूल रहा था। दर्शकों के मध्य चारों ओर करतल-ध्वनी होने लगी और तालियों की गड़गड़ाहट से लीला-स्थल गूँज उठा। मानो आज यथार्थ का शिव-धनुष ही राम ने भंग कर दिया हो। पं. कृपाराम का नाम आज सचमुच ही चरितार्थ हो गया था यानी राम ने सचमुच ही आज उन पर कृपा कर दी थी। दूसरे दिन पं. कृपाराम दुबे और उनके मेजबान पं. जगेश्वर शुक्ला एक-दूसरे के सामने फूट-फूट कर रो रहे थे। पं. दुबे रो-रो कर अपने प्रभु राम की कृपा और महिमा का बखान कर रहे थे। तो शुक्ला जी इसलिए रो रहे थे कि वे भी अनजाने में ही सही लेकिन फौजदार के साथ पाप के भागीदार बने जिसका पश्चाताप उन्हें जीवन-पर्यन्त (सन् 1905 ) तक बना रहा और अपने इस 'पाप' के प्रायश्चित-स्वरूप शुक्ला ने न जाने कितने ही नवधा-रामायण व धार्मिक अनुष्ठान किए। फौजदार को उस रात के बाद किसी ने कहीं नहीं देखा।