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वैश्विक महामारी पर कविता : एक सदी के बीत जाने पर

वैश्विक महामारी पर कविता : एक सदी के बीत जाने पर - vaishvik mahaamaaree
एक सदी के बीत जाने पर
इम्तिहान लेती कुदरत महामारी के भेष में
मिला हाथों की लकीरें सभी इंसानों की
दुनिया के लिए खड़ी करती एक चुनौती !
 
एक सदी के बीत जाने पर
दुनिया की अवाम की बन जाती एक तक़दीर
महामारी का प्रकोप दर्द सबका एक
मौत किसे छू जाए भय सबका एक !
 
एक सदी के बीत जाने पर
क्या कुदरत पहन लेती इंसानी चोगा
मानव को बेबसी का अहसास करा
क्या दिखलाती अपनी ताकत का नज़ारा !
 
एक सदी के बीत जाने पर
मानव कितना सीख पाया इतिहास से
कुदरत, जीव-जंतुओं को कमजोर मान
आश्रि, निर्धन बंधु का करता रहता दमन !
 
एक सदी के बीत जाने पर
कुछ भी काम नहीं आ रहा
ताकतों का सामान सोना-चांदी, हथियार
भेद भूल करता वही सही समय का इंताजर !
 
एक सदी के बीत जाने पर
कुदरत देखने आती कितनी तैयारी
एकता से आपदा से निपटने की
या वहीं खड़ा मानव सौ सालों बाद भी !
 
एक सदी के बीत जाने पर
भावुक, बेबस मानव, रहम की दुआ मांगता
कर लेगा कई वादे ठीक हो जाए सबकुछ
वक्त के साथ अगर भूला दिया किया वादा !
 
एक सदी के बीत जाने पर
भूल करने से मिल जाएंगी सबकी
तकदीरों संग हाथों की लकीरें
भावी पीढ़ी करेगी सामना नई महामारी का !