गुरुवार, 14 नवंबर 2024
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प्रकृति से छिपा लूं बसंत बहार

प्रकृति से छिपा लूं बसंत बहार। vasant poem - basant ritu
यह कैसी बसंत ऋतु दिल पर छाई,
जब कोमल विचारों की बयार बहती आई।
 
सपनों की पंखुड़ियों पर दस्तक दी निंदिया ने,
नीले आकाश तले आरजुएं तितलियों-सी मंडराईं।
 
कोमल-कोमल नभ छूते रहे तमन्नाओं को,
दिल में खुशियां बिछीं वहां हरित कालीन बन।
 
जिन पर हौले-हौले उमंगें पग बढ़ाती आईं,
गुदगुदाती यादें ओंस बनकर सिमट आईं।
 
प्रभात की चमक में वो दमकने लगी दर्पण बन,
जिसमें उभरे अक्स से छेड़छाड़ को उकसाता मन।
 
रंग-बिरंगे फूलों की क्यारियों-सा अरमानों का कारवां,
गुनगुनाती धूप सेंकता गुजरता हर पल।
 
पक्षियों की चहचहाहट में हजारों गीतों की धुन,
दूर धुंध में उभरता अनुरागी चेहरा।
 
निंदिया पर जब छाई सुहानी बसंत बहार,
दिनभर की थकी प्रतीक्षा के बाद।
 
वक्त को थाम लूं, ठहरा लूं,
फिर कभी अंखियां न खोलना चाहूं।
 
प्रकृति से कहीं छिपा लूं छाई यह बसंत बहार!