प्रवासी साहित्य : मेरा हाथ और मेरा ईश्वर
- श्रीमती आशा त्रिपाठी
मैं सुबह उठी-देखा रोशनदान सेधूप दीवार तक आ गई थी।दीवार और रोशनदान केबीच की कड़ी में विचरतेधूल के कणों की भीड़डॉल्टन के सिद्धांत कोप्रमाणित कर रही थी।भौतिकी की किताबहाथ में ही रखी थीजिसे पढ़ते-पढ़तेरात को नींद आ गई थी।मां बोली-अपना हाथ देखोईश्वर का नाम लोमैं मुस्कराईसाथ ही बुदबुदाई,भौतिकी ही मेरा हाथ हैऔर...डॉल्टन के इस कण में हीमां!मेरे ईश्वर का वास है।