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Written By मधु किश्वर
Last Updated : बुधवार, 1 अक्टूबर 2014 (21:43 IST)

दंगों का दर्द, जफर सरेशवाला की जुबानी

दंगों का दर्द, जफर सरेशवाला की जुबानी -
गुजरात के मुख्‍यमंत्री नरेन्द्र के बारे में मुस्लिम व्यवसायी जफर सरेशवाला के विचारों में बदलाव की कहानी आप पहले ही पढ़ चुके हैं। उसी श्रृंखला में मोदी की हकीकत बयान करते जफर के कुछ और विचार जानिए...
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जफर कहते हैं कि मोदी पर यह आरोप लगाया जाता है कि वे मुस्लिमों से घृणा करते हैं या उन्होंने चुनाव जीतने के लिए दंगे करवाए, इस तरह के आरोप सर्वोच्च न्यायालय की जांचों में बकवास साबित हुए हैं।

पहले की सरकारों द्वारा राजनीतिक कारणों से करवाए गए दंगों के बारंबार होते रहने के कारण गुजरात की पुलिस और इसका प्रशासन बहुत अधिक सांप्रदायिक हो चुका है। ज्यादातर दंगे कांग्रेस की सरकारों के कार्यकाल में हुए क्योंकि 1995 तक कांग्रेस ने लगातार इस प्रदेश पर शासन किया है, लेकिन इसके बाद मोदी सारी ताकतों को एकजुट कर सके और उन्होंने तीन दिनों के भीतर ही सामान्य स्थिति बहाल कर ली। क्या थी राहत शिविरों की असली तस्वीर... आगे पढ़ें...

दंगों और राहत कार्यों में उनकी भूमिका के संदर्भ में सिटीजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस और अन्य संगठनों की हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में याचिकाओं के खारिज होने, दोषमुक्त किए जाने के बाद भी कुछ एनजीओ ने मोदी पर हमले जारी रखे और आरोप लगाए कि मोदी के शिविरों में मुस्लिम नारकीय स्थितियों में जी रहे हैं, लेकिन उन राहत शिविरों की सही और असली तस्वीर लोगों को पता नहीं है क्योंकि उन्हें केवल पक्षपात पूर्ण दुष्प्रचार ही परोसा गया था।

हाल ही में हमारी टीम असम के राहत शिविरों में गई। वहां की स्थिति को देखकर मेरे भाई का कहना था कि असम के शरणार्थी शिविरों में मुस्लिमों की जो स्थिति है वैसी खराब हालत मैंने देश के किसी भी हिस्से में नहीं देखी।

आज भी ढाई लाख लोग शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं और वह भी कांग्रेस के शासन काल में हो रहा है। उसका कहना था कि वहां हालत बहुत ही घटिया हैं कि उसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती है। असम क्यों नहीं जाती तीस्ता और शबनम...आगे पढ़ें...

मेरा भाई गुजरात में राहत शिविर चला चुका है इसलिए वह तुलना कर सका। गुजरात के राहत शिविर उनकी तुलना में कहीं बहुत अच्छे थे, लेकिन और उन्हें सरकार से भी पूरी मदद मिली थी। ऐसा कहने का अर्थ यह नहीं है कि राहत शिविरों में कभी भी रहना सुखद या आरामदायक अनुभव होता है। लेकिन सरकार ने भोजन, चिकित्सा सेवा और बाकी सभी चीजों के बेहतर इंतजाम किए जितने कि भारत में ज्यादातर सरकारें करती हैं।

असम के मुस्लिम सर्वाधिक दयनीय स्थितियों में जी रहे हैं लेकिन उनका कहीं कोई जिक्र नहीं होता है। कोई भी उनके बारे में पूछना नहीं जाता है। ना ही तीस्ता और ना ही शबनम हाशमी के पास उनके लिए काफी समय है। लाखों की संख्‍या में लोग अभी भी शिविरों में हैं लेकिन इन शिविरों के बारे में क्या आप मीडिया में कभी कोई चर्चा सुनते हैं?

ऐसे लोगों को पहले से ही भुला दिया गया है लेकिन ये लोग गुजरात के राहत शिविरों में मुस्लिमों की दुरावस्था का रोना रोते रहते हैं। हालांकि तेजी से पुनर्वास के चलते उन शिविरों को चार महीनों के अंदर ही बंद कर दिया गया था। नुकसान की तुलना में क्षतिपूर्ति कम... आगे....
जहां तक पुनर्वास के लिए सरकारी मदद की बात आती है तो क्षतिपूति की राशि लोगों को हुए नुकसान की तुलना में बहुत कम होती है। जिन परिवारों को नुकसान हुआ उन्हें सरकार ने तुरंत क्षतिपूर्ति उपलब्ध कराई, लेकिन भारत में कहीं भी दंगों के शिकार लोगों को कभी भी उनके नुकसान के करीब मुआवजा नहीं मिलता है।

सरकार से आपको बमुश्किल से लाख दो लाख रुपए की राशि मिलती है। हमारा नुकसान पांच करोड़ का हुआ था इसलिए हम सरकारी क्षतिपूर्ति की राशि लेने भी नहीं गए। गरीब लोगों के लिए एक-दो लाख रुपए बहुत मायने रखते हैं, लेकिन मेरे जैसे आदमी के लिए दो लाख की राशि पाने की कोशिश करना भी बेकार है।

एक अच्छी बात जो मुस्लिमों ने यहां की वह यह थी कि उन्होंने सरकार से मदद मिलने का इंतजार नहीं किया। मैं सोचता हूं कि यह देश के प्रत्येक आदमी के लिए एक सबक है।

कुछ संगठनों जैसे जमीयत ए उलेमा ए हिंद, जमात ए इस्लामिया, इमारत ए शरिया, हैदराबाद और बिहार के कुछ मुस्लिम एनजीओज और कुछ गैर-मुस्लिम एनजीओज ने साथ मिलकर दंगापीडि़तों के लिए घर बनाए। एनआरआईज से हमें बहुत कम मदद मिली। अगर किसी आदमी के पास एक करोड़ हैं और वह धर्मार्थ काम के लिए केवल दस रुपए देता है तो इसे आप क्या कहेंगे?

इंग्लैंड या अमेरिका में लोगों की वित्तीय स्थिति को देखते हुए हमें बहुत कम मदद मिली। लेकिन मुस्लिम संगठनों और भारतीय हिंदू -मुस्लिम एनजीओज ने किसी भी तरह से पैसा जमा किया और कुल 15 हजार घरों को बनाया या ‍उन्हें फिर से बनाया। अदालत ने सराहा था मोदी सरकार के प्रयासों को... आगे...
पत्रकार मधु पूर्णिमा किश्वर ने गुजरात सरकार के पुनर्वास प्रयासों के रिकॉर्ड को देखा और इस को लेकर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जो याचिकाएं लगी थीं, उन पर दिए गए फैसले भी देखे।

राज्य सरकार ने एक रिटायर्ड आईएएस अधिकारी एसएमएफ बुखारी को विभिन्न शिविरों के लिए मुख्य समन्वयक बनाया था। इन सरकारी प्रयासों पर कोर्ट का कहना था कि इस मामले में राज्य सरकार ने जो भी प्रयास किए हैं, उनकी सराहना की जानी चाहिए। राहत और पुनर्वास मामलों को लेकर जो याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचीं थीं उन्हें कोर्ट ने खारिज किया। सच्चाई का सामना नहीं करना चाहते एनजीओ...आगे...
जफर का कहना है कि ये एनजीओज हमारी तरह सच्चाई का सामना नहीं कर सकते हैं जो कि समुदाय के साथ मिलकर उसके लिए काम करते हैं। इन्होंने इसको एक बहुत ही लाभदायक धंधा बना लिया है।

ठीक ऐसे ही, जैसे कि एक अनैतिक डॉक्टर प्रार्थना करता है, 'अल्लाह, अधिक से अधिक बीमारियां दे। ये लोग प्रार्थना करते हैं कि अधिक से अधिक प्राकृतिक आपदाएं हों, अधिक से अधिक लोगों को दयनीय स्थिति में होना चाहिए। वे इसका एक कारोबार चलाते हैं।'

मैं कभी कभी अनुभव करता हूं कि मैं भी एक मूर्ख हूं जोकि बीएमडब्ल्यू बेचने की एजेंसी चलाता हूं। अगर मैं एक एनजीओ खोल लेता तो मुझे सारी दुनिया से पैसा मिलता, अनगिनत पुरस्कार और सम्मान मिलता और दूसरे लोगों के पैसों पर हवाई जहाजों से सारी दुनिया की सैर करता।