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Last Updated : शुक्रवार, 20 जून 2025 (11:40 IST)

यह युद्ध किधर जा रहा है

israel iran war
इजरायल ईरान युद्ध संपूर्ण विश्व को प्रभावित करने वाला है और भारत इसके परिणामों से किसी दृष्टि से अप्रभावित नहीं रह सकता। यह केवल तेल जैसे आर्थिक क्षेत्र में ही नहीं अन्य क्षेत्रों में भी इसके परिणाम दिखाई देंगे। 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद ईरान और इराक युद्ध से इस समय भीषण युद्ध खाड़ी के अंदर चल रहा है।

ईरान इराक युद्ध के परिणाम देखा जाए तो कुछ नहीं आए किंतु इजरायल ईरान युद्ध के परिणाम केवल अरब या खाड़ी क्षेत्र में ही नहीं पूरे विश्व में बड़े वैचारिक, रणनीतिक, राजनीतिक बदलाव के कारण बन सकेंगे। इस समय युद्ध से परस्पर विरोधी रिपोर्ट हमारे सामने है। 
 
युद्ध के दौरान दोनों पक्ष और उनके समर्थक अलग-अलग तरीके से अपने पक्ष की सूचनाएं प्रसारित करते हैं और यही हो रहा है। विश्व के एक बड़े वर्ग में सामान्य धारणा है कि इजरायल इतने लंबे समय तक अरब में अपनी सैनिक क्षमता, संकल्प और लड़ने की अंतिम सीमा तक की भावना के साथ टिका हुआ है तथा अनेक बार अरब देशों को झुकाया है, समझौते करने को भी विवश किया है तो ईरान की भी यही दशा होगी। 
 
दूसरी ओर पूरे मुस्लिम जगत का एक बहुत बड़ा वर्ग मान रहा है कि अयातुल्लाह खामेनेई के नेतृत्व में इस्लामी क्रांति के पीछे जो दृश्य अदृश्य शक्तियां हैं वो ईरान को कभी पराजित नहीं होने देंगी। ईरान के हमले से तेल अबीब सहित कई जगह कुछ विध्वंस देखे गए।

सर्वाधिक सुरक्षित हाइफा बंदरगाह के भी क्षति पहुंचाने के समाचार आए। यह भी सूचना हमारे बीच है कि इजरायल के मिसाइल को कई जगह ईरान ने रोकने में सफलता पाई तथा उसके मिसाइलों ने इजरायल की मिसाइल रक्षा प्रणाली तक को भी कई बार भेदा है। तो फिर इस युद्ध का सच क्या है और इसके परिणाम क्या हो सकते हैं?
 
भूगोल आबादी और संसाधन की दृष्टि से देखें तो ईरान का क्षेत्रफल इजरायल से 10 गुना ज्यादा तथा आबादी इससे भी ज्यादा है। दोनों के सुरक्षा बलों की संख्या में भी कोई तुलना नहीं है। कहां 90 लाख का देश और कहां 10 करोड़ की आबादी। उस आबादी में भी एक बड़े वर्ग के अंदर इस्लामी क्रांति के तहत जिहाद और मजहब के विजय की भावना भरी हुई।

दूसरी ओर 1979 के बाद चाहे अयातुल्लाह खोमैनी हों या अयातुल्लाह खामेनेई या फिर वहां के निर्वाचित राष्ट्रपति, सबने धरती से इजरायल के नामोनिशान मिटाने की बार-बार घोषणा की और ईरान राष्ट्र का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य भी बना दिया। इसके बावजूद आज तक कुछ नहीं कर सके। 
 
उल्टे जितने युद्ध अरब में हुए इजरायल सबमें व्यावहारिक रूप से विजेता बनकर उभरा और कैंप डेविड से लेकर अभी तक सारे समझौतों में इजरायल के सामने बहुत कुछ खोने की नौबत नहीं आई। दूसरे, वर्तमान युद्ध में ईरान का सक्रिय साथ देने वाला एक भी देश इस समय नहीं है। जिस चीन, रुस, उत्तर कोरिया या कुछ इस्लामी देशों से उसे उम्मीद थी किसी ने भी इजरायल के विरुद्ध संघर्ष करने की तो छोड़िए, आक्रामक बयान तक नहीं दिया है। एकमात्र पाकिस्तान ने ही मुखर होकर ईरान का समर्थन किया। 
 
पाकिस्तान की हैसियत स्वयं इस्लामी जगत में ही इतनी बड़ी नहीं कि वह अपने साथ किसी देश को युद्ध के लिए खड़ा कर सके। ईरान के लिए यह हतप्रभ करने वाली स्थिति है कि संकट की इस घड़ी में कोई देश उसके साथ सक्रिय रूप से आगे नहीं आया। शांति की बात करने वाले कुछ देश जरूर हैं।
 
कुछ अन्य कारक भी ईरान के विरुद्ध और इजरायल के पक्ष में जाते हैं। इजरायल ने अभी तक ईरान के तीनों सेना प्रमुखों, अनेक शीर्ष सैन्य अधिकारियों और सबसे एलिट माने जाने वाले इस्लामी क्रांति के बाद उत्पन्न ईरान रिवॉल्यूशनरी गार्ड के प्रमुख को एक ही हमले में समाप्त कर दिया।

उसके साथ अनेक शीर्ष परमाणु नाभिकीय वैज्ञानिक भी मौत के घाट उतार दिए गए। उसके इंटेलिजेंस चीफ यानी खुफिया प्रमुख भी मारे जा चुके हैं। स्वयं अयातुल्लाह खामेनेई और उनके बेटे मोजताबा दोनों के बारे में इतनी जानकारी है कि वे कहीं छिपे हुए हैं। ध्यान रखिए, ईरान ने इन पंक्तियों के लिखे जाने तक इजरायल के किसी बड़े सैन्य अधिकारी व नाभिकीय वैज्ञानिक आदि को मारने में सफलता नहीं पाई है। 
 
ईरान के मिसाइल इजरायल पर अंधाधुंध हमले कर रहे हैं और उसे ज्यादातर नागरिक स्थल ही ध्वस्त हुए हैं।‌ इस्लामी क्रांति के बाद आयतुल्लाह खोमैनी और खामेनेई ने ईरान को इस्लाम का नेता बनाने के लिए फिलिस्तीन मुद्दे को सबसे आगे किया।

उन्होंने जिस तरह के भाषण दिए उससे विश्व भर के मुसलमानों के एक बड़े वर्ग के अंदर फिलिस्तीन की जज्बाती मजहबी समर्थन का भाव भी पैदा हुआ। सीधे संघर्ष की जगह ईरान ने लेबनान में हिजबुल्ला, यमन में हुती विद्रोही पैदा किया तो सुन्नियों के समर्थन के लिए इस्लामिक ब्रदरहुड के भाग के रूप में फिलिस्तीन में हमास। इन्हीं के माध्यम से वह इजरायल को लगातार घाव देता रहा है।
 
इजरायल ने ईरान पर निर्णायक हमले के पूर्व जो कुछ किया वह हमारे सामने है। उसने हिज्बुल्ला को नेस्तनाबूत किया और उसके प्रमुख नसीरूल्लाह सहित सारे शीर्ष कमांडरों को समाप्त कर दिया। लेबनान को इस स्थिति में नहीं छोड़ा कि वह ईरान के साथ खड़ा हो सके। हमास को भी विनाश के कगार पर पहुंचा दिया और उसके प्रमुख इस्माइल हानियां तक को पिछले साल खत्म कर दिया। हूती को अमेरिका के साथ कमजोर किया। 
 
हालांकि इस समय हुती लाल सागर में गतिविधियां दिखा रहे हैं लेकिन उन पर भी जबरदस्त मार पड़ रही है। इसके साथ इजरायल धीरे-धीरे ईरान के प्रमुख शीर्ष सैन्य रणनीतिकारों और नाभिकीय वैज्ञानिकों तक को मौत के घाट उतारता रहा।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल की पश्चिम एशिया यात्रा के दौरान सीरिया के सत्ता पर काबिज पूर्व आतंकवादी अहमद अल शराब उर्फ अबू मोहम्मद अल जुलानी से हाथ मिलाया तो उसके पीछे भी रणनीति थी कि वह इब्राहिम अकॉर्ड यानी समझौता पर हस्ताक्षर करे जिसमें इसराइल को मान्यता देने की बात है। 
 
वे जिन देशों में गए वहां उन्होंने ईरान के विरुद्ध इजरायल के पक्ष में वातावरण बनाया। इसका परिणाम देखिए कि हमास के समर्थक कुछ पत्रकारों को अरब देशों के अंदर ही गिरफ्तार कर सजा दी गई या उन्हें मार डाला गया। इनमें सऊदी अरब भी शामिल है जो कट्टर सुन्नी देश है। आज स्थिति यह है कि मोहम्मद पैगंबर साहब के वंशजों के शासन के अधीन वाला देश जॉर्डन इजरायल के विमान को जाने की अनुमति दे रहा है लेकिन ईरानी मिसाइल को इंटरसेप्ट कर रहा है। 
 
दूसरी ओर अमेरिका पूरी तरह इजराइल के साथ खड़ा है और अगर ईरान का पलड़ा कहीं से मजबूत दिखा तो वह कभी भी हस्तक्षेप करेगा। डोनाल्ड ट्रंप ने रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से बात की तो उसके पीछे भी निश्चित रूप से उन्हें इस युद्ध से दूर रहने के लिए तैयार करना रहा होगा। भारत की दृष्टि से देखें तो ईरान से हमारे संबंध अच्छे माने जाते हैं। पश्चिम एशिया से तेल आपूर्ति से लेकर अन्य रणनीतिक मामलों में ईरान के समुद्री मार्गों की हमें आवश्यकता है। 
 
दूसरी ओर ईरान से संबंधों की सीमाएं रही है। पिछले वर्ष अयातुल्लाह खामेनेई ने भारतीय मुसलमान की फिलिस्तीन से तुलना करते हुए पोस्ट लिखा था। कश्मीर मामले पर उसका बयान भारत विरुद्ध रहा है। पाकिस्तान में उसका लक्ष्य केवल सुन्नी मुसलमानों के शासन को मजबूत नहीं होने देना है अन्यथा उसकी नीति कहीं भी भारत के पक्ष में नहीं है। बलूचिस्तान के एक भाग पर उसका कब्जा है तथा वह भी पाकिस्तान की तरह ही बलूचियों का दमन कर रहा है। ईरान का पूरा इतिहास देखें तो कभी भी कठिन परिस्थिति में वह भारत के समर्थन में खड़ा नहीं हुआ।
 
इसलिए जो लोग भी ईरान को लेकर छाती पीट रहे हैं उन्हें भारत के साथ संबंधों में इजरायल और ईरान के व्यवहार की निष्पक्षता और ईमानदारी से तुलना करनी चाहिए। कोई नहीं कहता कि आयतुल्लाह खामेनेई का ईरान अचानक घुटने टेक देगा। उसके पास मिसाइल, ड्रोन, लड़ाकू विमानों से लेकर बड़े शस्त्रागार हैं। किंतु वह इजरायल या उसके साथ देने वाले अमेरिका के मुख्य सामरिक स्थलों को ध्वस्त कर उन्हें हमला न करने की स्थिति में लाने की क्षमता नहीं दिखा पाया है। 
 
तो इस युद्ध के परिणाम ईरान के पक्ष में नहीं जा सकते। इसमें अगर अयातुल्लाह खामेनेई का पतन होता है तो यह 1979 के इस्लाम के नाम तथाकथित क्रांति द्वारा सत्ता कब्जाने तथा उसके बाद पैदा हुए संपूर्ण अरब में कट्टरपंथ के दौर के बाद का एक नया चरण आरंभ होगा। इसका प्रभाव विश्व एवं भारत पर निश्चित रूप से पड़ेगा।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
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