वर्षात के तीन महीनों में ही कुल बारिश का 75 प्रतिशत बरसता है। कहा जाता है कि इसमें से 5 प्रतिशत पानी भी बाकी महीनों के उपयोग के लिए इकट्ठा नहीं कर पा रहे हैं। एक तरफ बारिश का पानी आफत भी लाता है, और यदि हमारे पास इसको संरक्षित करने की पारंपरिक और वैज्ञानिक तकनीक है तो इसका इस्तेमाल करके पानी का रोना कम किया जा सकता है। अपने पानी का बन्दोबस्त करने के लिए स्थानीय लोगों की पारम्परिक व्यवस्था को ही मजबूती प्रदान करनी होगी। गांव एवं शहर में पानी के स्रोतों को चिन्हित करके लोक ज्ञान के अनुसार स्थानीय जल प्रणाली के सुधार के लिए मास्टर प्लान तैयार करना चाहिए।
वर्षात के समय में 90 प्रतिशत आपदाओं का कारण पानी है। दूसरी ओर पानी जीवन का आधार है। यह चाहे नदियों, जल स्रोतों, जलाशयों, बारिश की बूंदों आदि के रूप में जहां से भी आ रहा हो, इनमें मानसून के समय में पानी की मात्रा बढ़ जाती है, लेकिन यही समय है कि जब अधिक से अधिक पानी को जमा करके सालभर की आवश्यकता की पूर्ति की जा सकती है। वृक्षारोपण के कार्य भी इसी मौसम में अधिकतर होते हैं। इस समय ध्यान दिया जाए कि जल एकत्रीकरण तालाब, चेकडेम आदि में वृक्षारोपण के साथ-साथ वर्षात का पानी भी जमा किया जा सकता है। हालांकि किसी नए तालाब में पानी तभी लबालब दिखाई देगा कि जब तक उसके चारों ओर के निश्चित स्थान तक नमी नहीं बनती है। नमी के कारण ही पानी की लहलहाती फसल वर्षात में ही देखने को मिलती है, जिसके कारण जल स्रोतों में पानी बढ़ जाता है। पर्वतीय क्षेत्रों में इसी पानी से रोपाई का काम पूरा होता है।
लेकिन पानी की चिन्ता गर्मियों में अधिक होती है, जब जल स्रोत सूखने लगते हैं। घरों की पाइप लाइन में पानी नहीं आता है। ऐसी स्थिति में कम पानी से काम चलाने की नसीहत मिलती है। गर्मियों में जहां पानी की एक बूंद भी नहीं मिलती है, वहां लोगों की प्यास बुझाने के लिए गाड़ियों और मालवाहक पशुओं की पीठ पर बस्तियों में पानी पहुंचाया जाता है। बीहड़, रेगिस्तान, पहाड़ों की ऊंचाई पर बसे गांव की महिलाएं दिनभर एक गागर पानी भी ढूंढकर नहीं ला पाती हैं। कुछ दूरस्थ स्थानों से बड़ी मेहनत करके पानी लेकर भी आएं तो वह भी साफ पानी के रूप में नसीब नहीं होता है। इसलिए कहा जा रहा है कि पूरी दुनिया के हिसाब से हर 10 में से 4 लोगों को पर्याप्त पानी नहीं मिल रहा है, जो मिलता भी है, वह इतना प्रदूषित है कि उसके कारण 3.4 लाख बच्चे हर साल डायरिया के कारण मर जाते हैं।
सच्चाई यह भी है कि स्वच्छ पानी बीमारी के रोकथाम से लेकर कमाई का एक बड़ा साधन बन गया है, जिसके कारण गरीब, किसान, आदिवासी बे पानी बन रहे हैं, जबकि दुनिया की बड़ी संस्था यूएनओ ने जुलाई 2010 में हर व्यक्ति को प्रतिदिन 50-100 लीटर पानी दिलाने का अधिकार दिया है। इनके इस प्रस्ताव में यह भी कहा गया है कि प्रति व्यक्ति के लिए पानी का स्रोत 1 किमी से अधिक दूर नहीं होना चाहिए और वहां पानी एकत्रित करने में 30 मिनट से अधिक का समय न लगे। इसके अनुसार, प्रत्येक देश को अपने पानी का बन्दोबस्त करने के लिए स्थानीय लोगों की पारम्परिक व्यवस्था को ही मजबूती प्रदान करनी होगी। गांव एवं शहर में पानी के स्रोतों को चिन्हित करके लोक ज्ञान के अनुसार स्थानीय जल प्रणाली के सुधार के लिए मास्टर प्लान तैयार करना चाहिए। इसको कार्यरूप देने के लिए जल संबंधी विभागों को अपनी चिर-परिचित जल व्यवस्था को छोड़ना पड़ेगा। ठेकेदारों और प्रभावशाली लोगों के दबाव से मुक्ति पानी होगी।
यह काबिलेगौर है कि देश में पानी की नीति में सबसे पहले पेयजल इसके बाद सिंचाई और उद्योगों व करोबारियों को जलापूर्ति करने की प्राथमिकता को स्वीकारा गया है, परन्तु इसकी जमीनी हकीकत देखें तो पानी व्यापारियों के मुनाफे की वस्तु बन गई है। बोतलबंद पानी के साथ पेय पदार्थों का व्यापार रोकने की हिम्मत किसी में नहीं है। इस चुनौती के सामने खड़े व्यवस्थापक लाचार हैं। विकल्प है कि वे समाज के साथ जुड़कर पानी की बूंदों को सहेज सकते हैं, यदि वे यह स्वीकार कर दें कि पानी की बर्बादी और जलस्रोतों के विनाश में मानवीय हस्तक्षेप सबसे बड़ा कारण है। पर्यावरण सलाहकार डॉ. एमए हक मानते हैं कि बारिश से प्राप्त अधिकांश पानी का संचय नहीं किया जाता है और वह समुद्रों व महासागरों में मिट्टी काटकर ले जा रहा है। जिसके कारण बाढ़ और भूमि कटाव उत्पन्न हो रहा है। इसके उदाहरण अभी 2018 में मानसून शुरू होते ही जम्मू कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड में बाढ़ के साथ मिट्टी का कटाव प्रारंभ हो गया है।
वर्षात के तीन महीनों में ही कुल बारिश का 75 प्रतिशत बरसता है। कहा जाता हैं कि इसमें से 5 प्रतिशत पानी भी बाकी महीनों के उपयोग के लिए इकट्ठा नहीं कर पा रहे हैं। इसी लापरवाही से ही आजादी के बाद प्रति व्यक्ति 74 प्रतिशत पानी की उपलब्धता घट गई है। आंकड़े बताते हैं कि सन् 1947 में 6042 घनमीटर पानी प्रति व्यक्ति था, जो 2011 तक 1545 घनमीटर रह गया है। भविष्य में 2025 तक 1340 घनमीटर और 2050 तक 1140 घन मीटर पहुंचने का अनुमान है। ऐसा ही नजारा बनता रहेगा तो पानी ढूंढने से भी नहीं मिलेगा। इसमें सत्यता इसलिए भी नजर आती है कि जितना पानी इंसान प्रयोग कर रहा है, उसका 50 प्रतिशत भी धरती को शुद्ध रूप में नहीं लौटा रहा है।
धरती में पेड़ों की छांव की बीच से और ग्लेशियरों से आ रही नदियों में पानी के दर्शन हो जाते हैं, लेकिन हिमालय से मैदानों तक अंधाधुंध वनों का कटान हो रहा है। ग्लेशियर हर वर्ष 15 से 20 मीटर पीछे जा रहे हैं। नीति आयोग का साइंस एंड टेक्नोलॉजी विभाग जल संरक्षण पर एक रिपोर्ट तैयार कर कहा है कि पेड़ कटने की वजह से गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियां सूखने की कगार पर हैं। अगर इस दिशा में फौरन कदम नहीं उठाया गया तो 10 साल के भीतर ही जल संकट झेलना पड़ सकता है।
इसलिए बारिश का पानी आफत भी लाता है, और यदि हमारे पास इसको संरक्षित करने की पारंपरिक और वैज्ञानिक तकनीक है तो इसका इस्तेमाल करके पानी का रोना कम किया जा सकता है। कहते हैं कि भारत में अब 1869 अरब घनमीटर के बराबर पानी उपलब्ध है। इसमें से कुल 1123 अरब घनमीटर पानी उपयोग करने लायक है, जिसमें 690 अरब घनमीटर नदियों व जल स्रोतो में है, और 433 अरब घन मीटर भूमिगत पानी के रूप में मौजूद है।
वर्तमान में नदियों और भूमिगत पानी का अधिकांश भाग प्रदूषित हो चुका है। इस तरह के पानी को सटीपी से छानकर खेती व अन्य उपयोग के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन यह पीने के योग्य नहीं है। खेतों में भी सिंचाई के नाम पर जहरीला पानी पहुंचने से अनाज जैविक क्षमता खो चुके हैं और गंगा जल को स्वच्छ करने वाले बैक्टीरिया फौज भी मर रहे हैं। अतः बरसात में पानी जितनी आफत पैदा करता है, यदि इसी समय इसको एकत्रित व संरक्षित करने की व्यवस्था की जाए तो यह भविष्य की सुख-समृद्धि लौटा सकता है। (सप्रेस)