जय माता दी.....
अभी हाल ही में मुझे माता वैष्णो देवी के दरबार में हाजरी लगाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। धार्मिक स्थलों पर जाते समय एक पुरातन प्रश्न जो मेरे कोमल मस्तिष्क में सदा से दस्तक देता रहा वो यह कि भ्रमण को जाते समय हम पर्यटक होते हैं या श्रद्धालू ? इस यात्रा के दौरान भी यह प्रश्न मुझे लगभग लुप्तप्राय हो चुके खटमलों की भांति काटता रहा। मैंने अपनी बटुए और बैंक में जमा राशि की औकात को तराजू पर तौलने के पश्चात यह भीष्म प्रतिज्ञा की, कि हम लोग अवकाश में घुमने हेतु जा रहे हैं।
परिवार के कुल चार सदस्य और घुमने जाने के विषय पर सभी की राय एक दूजे से जुदा-जुदा। पत्नी जहां पूर्णतः श्रद्धालु थी, तो बच्चे पूरी तरह पर्यटन के मूड में थे। मेरी सदा की तरह स्थिति उहापोह वाली थी, कि अपने आप को पर्यटक में शुमार करूं या फिर श्रद्धालु ही बन जाऊं? येन केन प्रकारेण हम माता के दरबार में जाने हेतु पहाड़ी के नीचे पहुंचे, तो मुझे यह प्रतीत हुआ की सारी की सारी कायनात व्यवसायी हो गई है। फूल वालों से लेकर घोड़े पर भ्रमण कराने वालों तक सभी अति प्रोफेशनल अंदाज में बात कर रहे थे। माता निसंदेह इन सब बातों से वाकिफ होंगी किंतु उनकी विवशता मेरी समझ में आ रही थी। जम्मू से मेरे परिवार को टैक्सी में सकुशल लाए सज्जन (?) द्वारा मुझे प्राप्त ज्ञान का भरपूर उपयोग करते हुए मैंने प्रसाद इत्यादि वाली सामग्री में पुरजोर मोल भाव किया तथा उसे खरीदा भी।
परिवार के सभी सदस्य पूरे उत्साह से माता के दरबार में हाजिरी लगाने हेतु जय माता दी कहते हुए ऊपर की ओर चल दिए। शुरुआती एक-दो किलोमीटर का रास्ता हंसते हुए बीता। यमदूत की भांति पीछे से अनवरत चले आ रहे घोड़ों से बचते-बचाते हम आगे बढ़ते गए। उत्तराखंड में घोड़े के साथ घटित प्रकरण तथा उसे मीडिया में मिले सरोकार के पश्चात घोड़े की अवमानना करना भी संभव नहीं था। रास्ते में शीतल पेय तथा खाद्य सामग्री से सजी दुकानों पर भी बच्चों की इच्छानुसार राशि का हनन जारी रहा। अन्य पर्यटक कम श्रद्धालु अपने-अपने कैमरों की हैसियतानुसार प्राकृतिक तस्वीरें खींचने में व्यस्त थे।
पहाड़ारोहण करने के दौरान मुझे इस बात का गंभीरता से अफसोस हो रहा था, कि मेरा प्रतिदिन सुबह घुमने जाना नियमित जारी रहता तो शायद उतना कष्ट नहीं होता, जितना मैं चढ़ते समय महसूस कर रहा था। उतरने वाले यात्रियों द्वारा किए जा रहे जय माता दी वाले उद्घोष में, चढ़ने वालों की अपेक्षा अधिक जोशो-खरोश था और वो स्वाभाविक भी था। बीच-बीच में उड़नखटोले में बैठ कर जा रहे संपन्न वर्ग के श्रध्दालु कम पर्यटक वायु मार्ग से जा रहे थे।
तमाम कष्टों के बावजूद आखिर वो पल भी आया जब मैं सपरिवार माता के समक्ष था। इसके पहले कि मैं माता से भेंट कर पाता, पीछे से आ रहे श्रद्धा के एक धक्के से मैं आगे बढ़ा दिया गया। माता के दर्शन हेतु लगाए कुल 10 घंटों का श्रम आधे मिनिट से भी कम समय में वीरगति को प्राप्त हो गया। मुझे अब नीचे उतरने का भय सता रहा था किंतु कोई चारा नहीं था। थोड़े विश्राम के पश्चात हम सभी थके कदमों से नीचे की ओर कूच कर गए। ऊपर आ रहे लोग श्रद्धालु और नीचे जा रहे पर्यटक प्रतीत हो रहे थे। आने-जाने वाले जय माता दी बोल रहे थे और मेरी मद्धम आवाज भी उसमें सम्मिलित थी।