भारत में मतदान प्रतिशत बढ़ाने के नाम पर यूएसएड या यूनाइटेड स्टेट एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट के माध्यम से 21 मिलियन डॉलर यानी 182 करोड रुपए आने की सूचना ने पूरे देश में खलबली पैदा की है। ट्रंप प्रशासन के अंदर नवनिर्मित डिपार्टमेंट ऑफ गवर्नमेंट एफिशिएंसी डीजे यानी सरकारी दक्षता विभाग ने उसकी जानकारी देते हुए सूची जारी की।
आरंभ में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इसे रोकने की घोषणा की और कहा कि भारत के पास स्वयं काफी रुपया है तो हम क्यों दे। उस समय ऐसा लगा मानो भारत द्वारा अमेरिकी सामग्रियों पर लगने वाले आयत शुल्क के विरुद्ध कदम उठा रहे हैं। फिर उन्होंने मियामी और उसके बाद वाशिंगटन डीसी के आयोजनों में कहा कि हमें भारत में मतदान बढ़ाने पर 21 मिलियन खर्च करने की आवश्यकता क्यों है?
मुझे लगता है कि वे किसी और को जिताने की कोशिश कर रहे थे। हमें भारत सरकार को बताना होगा, क्योंकि जब हम सुनते हैं कि रूस ने हमारे देश में 2 डॉलर का खर्च किया है तो यह हमारे लिए बड़ा मुद्दा बन जाता है। भारत सरकार की ओर से सूचना है कि जानकारियों के आधार पर जांच आरंभ हो गई है।
हमारे देश की समस्या है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की केंद्र व भाजपा की राज्य सरकारों के रहते जब भी ऐसी खबर आती है सोशल मीडिया और मीडिया पर प्रभाव रखने वाला बड़ा वर्ग इसे गलत साबित करने पर तुल जाता है। अमेरिकी राष्ट्रपति ऐसा कह रहे हैं तो उसे खारिज नहीं किया जा सकता।
हमारे पास भारतीय चुनाव में हस्तक्षेप को साबित करने के लिए सटीक प्रमाण नहीं हैं। कुछ तथ्यों के आधार पर इसकी विवेचना की जा सकती है। डीजे द्वारा यूएस एड की जारी सूची में 15 तरह के कार्यक्रम के लिए धन देने की बात है। इनमें एक दुनियाभर में 'चुनाव और राजनीतिक प्रक्रिया सुदृढ़ीकरण' के लिए 48.6 करोड़ डॉलर यानी 4200 करोड़ का अनुदान था।
इसी में भारत की हिस्सेदारी 182 करोड़ रुपए की है। बांग्लादेश को मिलने वाली 251 करोड़ रुपए बांग्लादेश में राजनीतिक माहौल को मजबूत करने के लिए दिया जा रहा था। विश्व में चुनाव और राजनीतिक प्रक्रिया के सुदृढ़ीकरण की आवश्यकता अमेरिकी प्रशासन को क्यों महसूस हुई? बांग्लादेश में राजनीतिक सुधारों के लिए अमेरिकी सहायता राशि की जरूरत क्यों थी?
मोजांबिक में पुरुष खतना कराएं, कंबोडिया में स्वतंत्र आवाज मजबूत हो तो प्राग में नागरिक समाज अंदर सशक्त हो इनका केवल समाजसेवा या उस देश का हित उद्देश्य नहीं हो सकता। इसके पीछे राजनीतिक उद्देश्य हैं। सच है कि सन् 2012 में भारत के चुनाव आयोग ने इंटरनेशनल फाउंडेशन फॉर इलेक्टोरल सिस्टम्स के साथ एमओयू यानी सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किया था। तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने इन आरोपों और समाचारों को निराधार बताया है कि आईएफएससी से धन आयोग को स्थानांतरित हुआ था। कहीं नहीं कहा गया है कि इसने सीधे चुनाव आयोग को पैसा दिया।
इस एजेंसी को यूएसएड से धन मिलता था और यह जार्ज सोरोस के ओपन सोसाइटी फाउंडेशन के साथ संबद्ध है। ऐसी संस्थाएं किसी माध्यम से अपनी भूमिका को वैधानिकता का आवरण देने की दृष्टि से समझौते करती हैं और फिर अपने अनुसार कार्य करती है। ध्यान रखिए 2012 में महत्वपूर्ण गुजरात विधानसभा चुनाव था तथा उसके पहले उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और मणिपुर का। 2013 में पहले कर्नाटक उसके बाद मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान का।
भारतीय चुनावों और राजनीति में विदेशी भूमिका की बात पहली बार नहीं आई है। नरेंद्र मोदी सरकार गठित होने के बाद से इसका चरित्र और व्यवहार बदला है किंतु हमारे देश में यह बीमारी लंबे समय से है। जब देश के नेता नौकरशाही, बुद्धिजीवी, पत्रकार, एक्टिविस्ट आदि छोटे-छोटे लाभ के लिए खिलौना बनने को तैयार हो जाएं तो कुछ भी हो सकता है। शीतयुद्ध काल में सोवियत संघ और अमेरिका के बीच प्रतिस्पर्धाएं थीं। दोनों अपने प्रभाव के लिए हस्तक्षेप करते थे।
भारत में 1967, 77, 80 के चुनाव में विदेशी भूमिका की सबसे ज्यादा चर्चा हुई। सोवियत संघ के विघटन के बाद मित्रोखिन पेपर नाम से ऐसी जानकारियां आईं जिनसे पढ़ने वाले भौचक रह गए थे। वासिली मित्रोखिन, जो सोवियत संघ की खुफिया एजेंसी केजीबी से संबद्ध थे और क्रिस्टोफ़र एन्ड्र्यूज ने अपनी पुस्तकों में खुलासा किया कि केजीबी ने भारत के अनेक समाचार पत्रों एक्टिविस्टों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, नेताओं पर उस समय अरबों खर्च किए। भारत में अमेरिका के राजदूत रह चुके डेनियल मोयनिहान ने पुस्तक ए डैंजरस प्लेस में लिखा है कि भारत में कम्युनिस्टों के विस्तार को रोकने के लिए अमेरिका ने भारतीय नेताओं को धन दिए।
सन् 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से अनेक ऐसी घटनाएं हुईं हैं जिनसे संदेह बढ़ा। 2019 में दोबारा उनके सत्ता में लौटने के बाद अलग तरह के स्वरूपों में आंदोलन हुए। इनमें नागरिकता संशोधन कानून के विरुद्ध शाहीनबाग धरना और उसके समर्थन में देश और दुनिया में सोशल मीडिया से लेकर अन्य अभियान तथा अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का सरकार के विरुद्ध सीधे बयान देना शामिल है।
कृषि कानून के विरुद्ध हुए आंदोलन में भी हमने देखा कि देश के बाहर से टूलकिट बनाकर अभियान चलाए जा रहे थे। इस तरह के आंदोलन भारत ने कभी देखे नहीं जिसमें प्रत्यक्ष हिंसा नहीं हो, पर उग्रता और हठधर्मिता ऐसी कि मुख्य सड़क पर धरना दो, आवश्यकतानुसार निर्माण भी कर लो और बैठे रहो, किसी सूरत में हटो नहीं। यूएसएड द्वारा 2021 में भारतीय मिशन के प्रमुख के रूप में वीणा रेड्डी को भेजा गया था। लोकसभा चुनाव 2024 के बाद उनका भारत का कार्यकाल समाप्त हो गया और वह वापस लौट गईं हैं। उस समय भी उनकी भूमिका को लेकर प्रश्न उठे थे।
विदेशी हस्तक्षेप की बातें भारत के अलावा दूसरे देशों और नेताओं द्वारा भी कहा जा रहा है। विश्व के अनेक देशों की चुनावी प्रक्रियाओं को प्रभावित करने में विदेशी शक्तियों और संस्थाओं की भूमिका सामने आती रही हैं। माइक्रोसॉफ्ट ने डीपफेक और एआई के माध्यम से भारतीय चुनावों को प्रभावित करने की कोशिशों पर चेतावनी दी थी।
2018 में अमेरिकी सीनेट ने एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें कहा गया था कि 2016 में डोनाल्ड ट्रंप को जितवाने के लिए रूसी खुफिया एजेंटों ने फेसबुक विज्ञापनों के साथ कई तरीके से चुनावों को प्रभावित किया था। कनाड़ा और आस्ट्रेलिया के चुनावों में चीनी फंडिंग से चलने वाले अभियानों की भूमिका सामने आई। आस्ट्रेलिया में राजनीतिक संप्रभुता पर विदेशी हस्तक्षेप के प्रभाव पर व्यापक चर्चा हो रही है और इसे ध्यान में रखते हुए महत्वपूर्ण नीतिगत बदलाव किए गए हैं।
सेबेस्टियन व्हाइटमैन की किताब 'द डिजिटल डिवाइड इन डेमोक्रेसी' में कहा गया है कि माइक्रोसॉफ्ट ने भी अपनी एक रिपोर्ट में चेतावनी दी थी कि चीनी सरकार के समर्थन से चीन की साइबर आर्मी आगामी अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों, दक्षिण कोरिया और भारत के चुनावों को प्रभावित कर सकती है। हांगकांग यूनिवर्सिटी में डिपार्टमेंट ऑफ पॉलिटिक्स एंड पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में सहायक प्रोफेसर डोव एच लेविन ने 2020 में अपनी किताब 'मेडलिंग इन द बैलेट बॉक्स: द कॉजेज एंड इफेक्ट्स ऑफ पार्टिजन इलेक्टोरल इंटरवेंशन' में लिखा है कि 1946 से वर्ष 2000 के दौरान 938 चुनावों का परीक्षण किया गया।
इनमें से 81 चुनावों में अमेरिका, जबकि 36 चुनावों में रूस ने हस्तक्षेप किया। इस तरह 938 में से 117 यानी हर 9 चुनाव में से 01 चुनाव में दोनो की भूमिका रही है। वैराइटीज ऑफ डेमोक्रेसी इंस्टीट्यूट, स्वीडन द्वारा 2019 में प्रकाशित जर्मन राजनीति विज्ञानी अन्ना लुहरमैन के अध्ययन के अनुसार हर देश ने कहा है कि मुख्य राजनीतिक मुद्दों को लेकर झूठ फैलाए गए और चीन और रूस सबसे ज्यादा झूठ फैलाने वाले देश थे। संभव नहीं कि चीन और रूस ऐसा करें और अमेरिका इससे वंचित हो।
भारत पर विस्तृत अध्ययन नहीं आया, किंतु 2019 के चुनाव में ज्यादातर देशों ने स्वीकार किया कि झूठ और अफवाह फैला कर चुनावों को प्रभावित करने की कोशिश की गई। 2024 के चुनाव में हमने देखा कि संविधान खत्म हो जाएगा, आरक्षण खत्म हो जाएगा जैसे झूठ ने भूमिका अदा की।
इसमें सोशल मीडिया, मुख्य मीडिया, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की पूरी भूमिका थी। दलितों और जनजातियों के बीच लोगों का समूह जाकर का प्रचार करता था। इसलिए इन बातों की ठीक प्रकार से जांच हो। जांच रिपोर्ट में अगर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारे राष्ट्रीय हित प्रभावित होते हों तो भले उन्हें सार्वजनिक न किया जाए, किंतु भविष्य में ऐसी खतरनाक भूमिकाओं को रोकने के कदम उठाए जाने चाहिए।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)