उज्जैन नगरी की सीमा आरंभ हो रही है और चारों तरफ लाल-पीली, नीली-हरी धर्मध्वजाएं लहरा-लहरा कर मानों हमारे आगमन से हर्षित हो रही हैं। हर तरफ चमकीली-सतरंगी रौनक है। सुबह के 5 बजे हैं...मुंह अंधेरे उज्जैनवासी और दूर-दूर से आकर ठहरे तीर्थयात्री चल पड़ते हैं अपने-कपड़े लेकर मां क्षिप्रा की तरफ... चारों तरफ आपको सुनाई देती है कहीं मंदिरों की मीठी घंटियां तो कहीं पवित्र अजान, कहीं गुंज रहा है कीर्तन तो कहीं से आवाज आती है मंदिरों की आरती में बजते घंटे-घडियाल और नगाड़ों की...मंत्रोच्चार उतरते हैं कानों में, तब लगता है जैसे मन का कोना-कोना उजास से भर गया हो।
झिलमिलाती-जगमग करती मां क्षिप्रा का चमचम करता पानी आपमें तरंगे भर देता है; कभी लगता है सजी-धजी नगरी अपना अक्स निहार रही है क्षिप्रा के स्वच्छ दर्पण में... गऊ घाट, राम घाट, नृसिंह घाट और मंगलनाथ घाट पर श्रद्धालु जुट गए है अपने-अपने हिस्से का पुण्य कमाने....पुलिस फोर्स आपको चप्पेे-चप्पे पर दिखाई पड़ती है। इनके 24 घंटे की तपस्या क्या किसी को दिखाई नहीं देती?
कहीं सब अपने-अपने आदेश के लिए कतारबद्ध खड़े हैं, आज कहां अपनी सेवाएं देनी है तो कहीं सब पानी की खाली बोतलें लिए इस तैयारी में हैं कि कड़ी धूप में सारा दिन भीड़ को सभांलने में शरीर को पानी तो देना ही होगा ना....कहीं सब गाडियों में एक साथ भरकर निकल पड़े हैं।
क्या यह किसी तपस्वी से कम हैं, माना कि उन्होंने भगवा वस्त्र धारण नहीं किए हैं उन्होंने शरीर पर भस्म भी नहीं लपेटी है पर जरा सोचिए उनके मन की अवस्था, जाने कहां-कहां से पहुंचे हैं यह सब उज्जैन में, तीन-तीन दिन तक परिवार से बात नहीं हो पाती है और परिजन की शिकायत कि आप तो सिंहस्थ के मजे ले रहे हैं हमें भूल ही गए... वे रूंआसी हंसी हंसते हैं कि बताइए जरा पानी तक पीने के लिए हाथ नहीं बढ़ा पाते हैं और घर की शिकायतें अपनी जगह... परेशानी यह भी है कि अधिकांश बाहर से हैं इसलिए उज्जैन उनके लिए भी उतना ही नया है। जैसा आदेश मिलता है पालन करते हैं लेकिन स्थानीय निवासियों के गुस्से का शिकार भी वही होते हैं। सबसे ज्यादा अफसोस उन्हें तब होता है जब कोई रास्ता पूछता है और वह उपयुक्त जवाब नहीं दे पाते हैं, क्योंकि उन्हें खुद नहीं पता कि वे इस समय कहां खड़े हैं और सामने वाला कहां जाने का पूछ रहा है। उनकी शिकायत है कि सही पते के लिए मप्र के अलावा स्थानीय पुलिस का साथ भी जरूरी है पर यहां तो हम सब बाहर से हैं... खैर दिन चढ़ता है और मंदिरों में भीड़ बढ़ने लगती है। महाकालेश्वर मंदिर सबकी प्राथमिकता है उसके बाद अन्य आकर्षण...।
चाहे नकारात्मक प्रचार ही हो पर कहना होगा कि मेला क्षेत्र में नित्यानंद और किन्नर अखाड़ा सब जाना चाहते हैं।
सभी बड़े महामंडलेश्वर के दर्शन की अभिलाषा है तो धैर्य की दरकार है, उनके दर्शन इतनी आसानी से सुलभ नहीं है जितने नागा साधुओं के.... उधर नित्यानंद के वैभव, ऐश्वर्य और चमक-दमक से आंखें विस्फारित रह जाती हैंं। हर तरफ ऐशोआराम के साधन हैं। उनके द्वारा सज्जित प्रतिमाएं कौतुहूल का विषय है। ओकलाहामा से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक और सिंगापुर से लेकर टेक्सास तक उनके अनुयायी हैंं। विदेशी बालाएं इन प्रतिमाओं के पास खड़ी मुस्कुराती मिलती है और घनघोर अचरज तो तब होता है जब 18-19 साल के युवाओं की लंबी-लंबी जटाएं करीने से बंधी दिखती हैंं। जाहिर है यह तपस्या से बढ़ी हुई नहीं है क्योंकि अन्य साधुओं को ऐसी जटाओं को पाने में ही 20-20 साल लग जाते हैं फिर भला क्या यह बचपन से इन्हें बड़ा कर रहे हैं, जाहिर है यह सब नकली है। नकली सोना पहने अनुयायी, नकली हीरे जडि़त मूर्तियां और इसी तरह नकली जटाएं.... लेकिन भीड़ तो आ रही है इस छद्म भव्यता को भी निहारने... यह हमारी ही तो विडंबना है कि स्कैंडल हमें प्रभावित नहीं करते हमें प्रभावित करते हैं आंखों को चौंधिया देने वाले दृश्य भले ही इन्हें देखते हुए हम फुसफुसाते रहें कि सब फर्जी है...सब नकली है पर इस फुसफुसाहट से ज्यादा असर दिखता है नित्यानंद की आरती में भावुक होकर आंसू बहाते अनुयायियों का... बड़ी-बड़ी स्क्रीन पर चल रहा है नित्यानंद की आरती का प्रसारण.... और पर्दे के आगे उनके प्रशंसक पूरी तन्मयता से आरती में लीन हैं आंखों से बह रहे हैं बेतहाशा आंसू... हम हतप्रभ से उन्हें देखते हुए आगे बढ़ जाते हैं.... क्या होगा इस देश का...कर्मयोगी पुलिस हमारी झुंझलाहट की वजह है और जाने-पहचाने स्कैंडलबाज ढोंगी हमारी आस्था के केन्द्र!!!!
सारे अखाड़े देखते हुए हम ढूंढ रहे हैं कहीं बड़ी प्रवचनमाला चलती मिल जाए.. हर तरफ आवाजें है प्रवचन की पर सुनने वाले मात्र 10 से लेकर 50 तक जबकि अन्नक्षेत्र में लंबी-लंबी कतारें लगी हैं, जहां से तृप्त होकर निकलते हैं लोग पर प्रवचन से ज्ञान का आहार लेने के लिए तत्पर हमें कोई नहीं दिखाई देता... अब सांझ हो चली है सितारों की चूनर धर्मनगरी उज्जयिनी ने फिर ओढ़ ली है नवोढ़ा की तरह...ढोल-मंजीरे, नगाड़े, कीर्तन, भजन, आरती, प्रवचन सब गुंज रहे हैं पर आगंतुकों की आंख में बस यही कौतुहूल है कि कुछ अलग सा दिख जाए, कुछ अनोखा सा मिल जाए, कुछ विशेष हो जाए चाहे वह किन्नर अखाड़े से मिला बरकत का सिक्का ही क्यों ना हो या फिर किसी नागा साधु से मिला रुद्राक्ष....
आस्था सिमटी हुई है, ग्लैमर फैला हुआ है... आइए सिंहस्थ में... सबकुछ है यहां, पर हमें क्या लेना है यह हमें निर्धारित करना है...
क्रमश: