आज से 2600 वर्ष पहले जब न बौद्ध धर्म, न ईसाई धर्म और न इस्लाम धर्म था, तब लोग यह नहीं जानते थे कि संप्रदाय के लिए भी युद्ध लड़ना चाहिए। कबीले आपस में लड़ते थे लेकिन यह लड़ाई किसी ईसाई-मुसलमान की तरह नहीं थी। संपूर्ण एशिया और योरप में यहूदी, जैन, हिन्दू और अन्य बहुत सारे प्राचीन धर्म के लोग कई सीमावर्ती क्षेत्रों में साथ-साथ रहते थे। लड़ाई थी तो बस राजा और महाराजाओं के बीच। लुटेरों, डाकुओं और राज्य की सेनाओं के बीच।
कुछ राज्यों का शासन क्रूरताभरा था तो कुछ में लोकतंत्र कायम था। उस काल में स्पेन के लोर्का और केदिज, साइप्रस का लोर्नाका, अफगानिस्तान का बल्ख, गंधार, इराक का बगदाद, मोसूल, तिर्कुक और अर्बिल, लेबनान का बेरूत, सिडान और त्रिपोली, तुर्की का गाजियांतेप, बुल्गारिया का प्लोवदीव, मिस्र का फाइयान, ईरान का सुसा और तेहरान, सीरिया का दमिश्क, पालमायरा, निमरूद और एलेप्पो, फिलिस्तीन का जेरिका, इसराइल का यरुशलम, सऊदी अरब का मक्का, इटली का रोम और पॉम्पी, इजिप्ट का मिस्र, भारत का काशी, मथुरा, अयोध्या, महाबलीपुरम, मगध, पुरुषपुर (पेशावर), लाहौर (लव विहार), द्वारिका, हरिद्वार, प्रयाग, कांचीपुरम, लद्दाख और अवंतिका, यूनान का एथेंस, चीन में फंगक्वांग और लोनान, तिब्बत, अमेरिका के होंडुरास और मेसो-अमेरिका आदि प्रमुख शहर सत्ता के केंद्र में थे।
उक्त सभी प्रमुख प्राचीन शहर प्राचीन सिल्क रूट (रेशम मार्ग) से जुड़े हुए थे। इस मार्ग से सिर्फ व्यापारिक और संत लोग ही यात्रा करते थे। कुछ लोग साहसिक यात्रा का आनंद लेने के लिए निकलते थे और फिर कभी नहीं लौट पाते थे। प्राचीन रेशम मार्ग पर साहसिक यात्रा पर निकले लोग फारस की रोटी, भारत की मिठाइयां और अरब की नान खाते थे। चीन जाने के लिए इस रूट पर बामियान, कश्मीर, लद्दाख, सिक्किम यात्रा का प्रमुख केंद्र होता था। सिल्क रूट की एक शाखा लद्दाख से होकर गुजरती थी। इन घुमक्कड़ लोगों ने ही दुनिया की संस्कृति को एक ही नहीं किया बल्कि नई-नई खोजे भी की थी।
200 साल ईसा पूर्व से दूसरी शताब्दी के बीच चीन के हान राजवंश के शासनकाल में रेशम का व्यापार बढ़ा था। पहले रेशम के कारवें चीनी साम्राज्य के उत्तरी छोर से पश्चिम की ओर जाते थे, लेकिन फिर मध्य एशिया के कबीलों से संपर्क हुआ और धीरे-धीरे यह मार्ग चीन, मध्य एशिया, उत्तर भारत, आज के ईरान, इराक और सीरिया से होता हुआ रोम तक पहुंच गया। इसी रास्ते का उपयोग सेनाओं ने भी किया।
दूसरे मुल्कों के कारवें के साथ सैकड़ों ऊंट, घोड़े, खच्चर, रेशम, सूखे मेवे और कालीन आदि लाए जाते थे जबकि हिन्दुस्तान से पश्मीना, रंग, ऊन, मसाले, सोना, फल, चांदी, हीरे, जवाहरात आदि बेचे जाते थे। उस दौर में भारत, रोम, मिस्र और यूनान सबसे समृद्ध और आधुनिक देश हुआ करते थे। धर्म के लिए कोई लड़ाई नहीं थी। हां, साम्राज्य के लिए जरूर लड़ाई थी। लेकिन उस दौर में लड़ाई बहुत कठिन होती थी। पहले तो दूर तक पैदल जाना और फिर लड़ना। बंदूक थी नहीं तो हथियार भी घातक नहीं होते थे।
उस दौर में भारत की यात्रा करना प्रचलन में था। क्योंकि भारत के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। जैसा कि आज भारतीयों को अमेरिका, ब्रिटेन या ऑस्ट्रेलिया जाना पसंद है। कालांतर में सड़क के रास्ते व्यापार करना जब खतरनाक हो गया तो यह व्यापार समुद्र के रास्ते होने लगा। समुद्र का रास्ता भी बहुत खतरनाक और रोमांचभरा तो रहा ही, साथ ही इसने कई सभ्यताओं और संस्कृतियों को भी प्रभावित किया।
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उपरोक्त बातें लिखने का मतलब यह है कि पहले की दुनिया समृद्ध और शांतिपूर्ण जिंदगी जी रही थी। उनके जीवन में रहस्य और रोमांच बहुत था। एक और जहां अरब के लोग अपनी समृद्धशाली और बहुत ही खूबसूरत संस्कृति के माध्यम से दुनियाभर में खुशबू बिखेर रहे थे तो दूसरी ओर भारत में धर्म और अध्यात्म के हिमालय का प्रभाव संपूर्ण धरती पर था।
इसी दौर में चीन में शासन तंत्र को मजबूत किया जा रहा था। राज्यों की आपसी लड़ाइयों के बावजूद दुनिया में खगोल और वास्तुशास्त्र में तरक्की की जा रही थी। नई-नई खोजें और आविष्कार किए जा रहे थे। इस दौर के समृद्ध, शांतिमय और शक्तिशाली होने के सबूत हमें मिस्र के पिरामिडों, माया सभ्यता के टेम्पल और भारत के प्राचीन मंदिरों और विश्वविद्यालयों में दिखाई देते हैं।
हड़प्पा, सिन्धु और मोहनजोदड़ो सभ्यता भी सभ्यता 8000 ईसा पूर्व से अस्तित्व में आई और 800 ईस्वी पूर्व तक चली। इस बीच कई प्रकृतिक आपदाएं आईं। इतिहासकार बताते हैं कि प्राकृतिक आपदा और सूखे के कारण ये सभी सभ्यताएं नष्ट हो गईं और इसके ही चलते मानव जाति का एक से दूसरे स्थान पर भारी संख्या में पलायन हुआ। कहते हैं कि लगभग 1800 ईसा पूर्व ही हजरत इब्राहीम ने मक्का का रुख किया था। खैर...।
उस दौर में दुनिया में धर्म को लेकर उतना आग्रह नहीं था जितना कि आज देखने को मिलता है। उस दौर में हर राजा के लिए अपने राज्य की सुरक्षा महत्वपूर्ण होती थी। ऐसे में प्रत्येक राज्य का अलग धर्म होता था जिस पर प्राचीन आदिकालीन धर्म का प्रभाव होता था, लेकिन भारत और अरब में यह स्थिति अलग थी। भारत में आर्यों द्वारा स्थापित वैदिक धर्म और जैन धर्म मान्य था, तो दूसरी ओर अरब में सबाइन और यहूदी धर्म प्रमुख रूप से विद्यमान था। रोम का पैंगन धर्म भी रोम के बाहर बहुत बड़े क्षेत्र में फैला था। इसके अनुयायी अरब और योरप के कुछ चुनिंदा इलाकों में रहते थे। चीन, रशिया, अमेरिका आदि जगहों पर उक्त तीनों ही धर्म का किसी न किसी रूप में प्रभाव था जिसके चलते भिन्न-भिन्न धर्मों की उत्पत्ति हो गई थी।
अरब में तुर्क, कुर्द, यजीदी, आशूरी (असीरियाई), सबाइन, हित्ती, मुशरिक, कहतान, इस्माईल, पारसी आदि सभी जाति के लोगों का अपना-अपना धर्म था, लेकिन उनके धर्मों पर हिन्दू, जैन और यहूदी धर्म का ही प्रभाव देखने को मिलता है। दुनियाभर की प्राचीन सभ्यताओं से यहूदी, हिन्दू धर्म का क्या कनेक्शन था यह एक शोध का विषय हो सकता है, लेकिन एक नए धर्म बौद्ध धर्म से दुनिया में क्रांति की शुरुआत होती है।
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निश्चित तौर पर यहां यह कहना होगा कि भारत को अन्य विश्व से जोड़ने में बौद्ध धर्म की बहुत बड़ी भूमिका रही है। जब बौद्ध धर्म का अवतरण हुआ, तो दुनिया ने एक नया सवेरा देखा। असमानता, बुराई और अन्याय के खिलाफ शांतिपूर्ण और शस्त्रहीन तरीके से लोगों को एकजुट कर सभ्य और संवेदनशील बनाया जा रहा था।
संतों के लिए धर्म का एक नया पथ निर्मित किया गया। हालांकि उस काल में भारत के 16 जनपदों में से कुछ जनपद के शासक क्रूर हुआ करते थे, जैसे मगध, कुरु, पांचाल और गांधार। विश्व में राजाओं की मनमानी से संपूर्ण विश्व त्रस्त हो चला था। ऐसे में बुद्ध का संदेश बहुत महत्व रखता था। ऐसे दौर में बौद्ध धर्म का धम्मचक्र प्रवर्तन एक क्रांतिकारी कार्य था।
भारत ने इससे पहले धर्म को व्यवस्थित और परिवर्तित होते पहले शायद महाभारत काल में देखा होगा। लेकिन ईसा के 500 वर्ष पूर्व भारत में इस क्रांति को कोई हजम करने वाला नहीं था। वैदिक या पुराणिकों के धर्म के विचारकों के लिए यह एक ऐसा धमाका था, जो उनको रात में सोने नहीं देता था। उन्हें लगता था कि अब इस भारतवर्ष से वैदिक धर्म का नामोनिशान मिट जाने वाला है। इस चिंता ने ही शंकराचार्य जैसे विद्वानों को जन्म दिया। वैचारिक स्तर पर इस नए धर्म से जहां खंडन और मंडन का दौर चला वहीं बौद्ध और हिन्दू धर्म की एकरूपता हेतु कई मंदिरों का निर्माण भी हुआ जहां दोनों ही धर्मों को संयुक्त करके दिखाया गया।
फिर ऐसा भी दौर प्रारंभ हुआ जबकि धर्म को संगठित रूप देने का कार्य चला। बौद्ध धर्म के रूप में पहली बार विश्व में संगठित धर्म को लेकर एक नई क्रांति का जन्म हुआ। निश्चित ही यह क्रांति अहिंसा पर आधारित थी, लेकिन एक ऐसा भी दौरा आया जब धार्मिक आधार पर राज्यों का गठन किया गया और धर्म को हथियारबद्ध कर किए जाने का प्रचलन शुरू हुआ। यह निश्चित ही चौंकाने वाला दौर था लेकिन इस दौर में भी कभी भी धर्म के आधार पर युद्ध नहीं हुआ।
इस दौर में एक और जहां भारत में यूनानी आक्रमण हो रहे थे तो दूसरी ओर भारत में ही दो तरह की शक्तिशाली विचारधाराएं खड़ी हो गई थीं। एक वे जिन्हें हम बौद्ध कहते हैं और दूसरे वे जिन्हें आज हम हिन्दू कहते हैं। बौद्ध धर्म ने अपने संगठित रूप और अनुयायियों के चलते भारत सहित अरब, चीन, जापान आदि सभी जगहों पर अपना विस्तार किया और ईसा की दूसरी सदी तक लगभग संपूर्ण धरती का एक बहुत बड़ा हिस्सा 'बुद्धम् शरणम् गच्छामि' हो गया। योरप और अरब की धरती पर आज भी इसके निशान स्पष्ट तौर पर देखे जा सकते हैं।
भगवान बुद्ध ने धर्म को पहली बार सुव्यवस्था दी और एक राजपथ निर्मित किया। बुद्ध के बाद दुनिया पहले की अपेक्षा और बेहतर, समृद्ध और शांतिमय हुई। जब कोई एक शक्तिशाली विचार जन्म लेता है तो उसके बाद उसी तरह के हजारों विचारों का जन्म होता है, आविष्कार होता है और नई-नई खोजें होती हैं और नए तरह का साहित्य लिखा जाता है।
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बुद्ध के बाद इतिहास ने करवट ली। बुद्ध के दौर में तक्षशिला, विक्रमशिला और नालंदा विश्वविद्यालय में उच्च कोटि के वैज्ञानिक, धार्मिक, आयुर्वेदाचार्य और वास्तुकार होते थे। बुद्ध का जैसा विचार था वैसा समाज निर्मित हुआ, लोगों का वैसा आचरण और वैसा व्यवहार बना। दुनिया पहले की अपेक्षा धार्मिक रूप से और संगठित बनीं।
लेकिन मात्र 500 साल बाद बुद्ध की क्रांति पर रोक लग गई। एक यहूदी बढ़ई की पत्नी मरियम (मेरी) के गर्भ से यीशु नामक एक महान आत्मा का जन्म बेथलेहेम में हुआ। सन् 29 ई. को प्रभु ईसा गधे पर चढ़कर यरुशलम पहुंचे, वहीं उनको दंडित करने का षड्यंत्र रचा गया। उनके शिष्य जुदास ने उनके साथ विश्वासघात किया। अंतत: उन्हें विरोधियों ने पकड़कर क्रूस पर लटका दिया। बस, यहीं से दुनिया में बुद्ध की क्रांति के दिन खत्म हो गए और क्रूस की क्रांति के दिन शुरू हुए। एक ऐसी क्रांति जिसे हिंसा से दबाने का प्रयास हुआ जिसके परिणाम स्वरूप हिंसा का ही जन्म हुआ।
भारत में बौद्ध धर्म द्वारा संपूर्ण हिन्दू धर्म को ओल्ड टेस्टामेंट बना दिए जाने के प्रयास जरूर असफल हो गए, लेकिन रोम और यूनान में यह कार्य करके दिखा दिया गया। उन्होंने एक बाइबिल बनाई और उसके आधार पर एक नए धर्म को गढ़ा गया जिसे कि प्राचीन परंपराओं का नवीनतम संस्करण माना गया। बस इसी को लेकर यहूदी और ईसाई धर्म के बीच वर्चस्व की जंग छिड़ गई। ईसाइयों ने यीशु को मूसा की परंपरा का पैगंबर माना और उनके आसपास एक नया धर्म खड़ा कर दिया। अब उनकी लड़ाई यहूदियों और रोमनों से थी। जैसा यहूदी और रोमनों ने दिया वैसा ही ईसाईयों ने भी संगठित होकर उन्हें दिया।
यहूदियों की राजनीतिक स्वाधीनता तो रोमनों ने 66 ईसा पूर्व ही खत्म कर दी थी, लेकिन ईसाई धर्म के वर्चस्व में आने के बाद रोम के पहले ईसाई सम्राट कोंसटेंटाइन ने यरुशलम को फिर से आबाद कर यहूदियों पर राज किया। यरुशलम इसलिए महत्वपूर्ण था, क्योंकि यहीं यहूदी परंपरा का प्राचीन तीर्थ स्थल और यहीं पर उनके धार्मिक स्थल थे। यरुशलम के पास ही बेथलहम है, जहां ईसा मसीह का जन्म हुआ था। बाद में यहूदी और ईसाइयों के बीच ऐसा संघर्ष चला कि यहूदी किसी भी स्थान पर संगठित रूप में नहीं रह सके। अंत में इसराइल से उनको खदेड़ दिया गया।
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फिर अरब में इस्लामिक क्रांति का जन्म हुआ। 613 में हजरत मुहम्मद स.व. ने उपदेश देना शुरू किया था तब मक्का-मदीना सहित पूरे अरब में यहूदी धर्म, पेगन, सबाइन, इस्माइली, मुशरिक और ईसाई धर्म थे। लोगों ने इस उपदेश का विरोध किया। विरोध के कारण सन् 622 में हजरत अपने अनुयायियों के साथ मक्का से मदीना के लिए कूच कर गए। इसे 'हिजरत' कहा जाता है। मदीना में हजरत ने लोगों को इकट्ठा करके एक पवित्र दल तैयार किया और फिर शुरू हुआ जंग का सफर। खंदक, खैबर, बदर और फिर मक्का को फतह कर लिया गया।
सन् 630 में पैगंबर साहब ने अपने अनुयायियों के साथ कुफ्फार-ए-मक्का के साथ जंग की जिसमें अल्लाह ने गैब (चमत्कार) से अल्लाह और उसके रसूल की मदद फरमाई। इस जंग में इस्लाम के मानने वालों की फतह हुई। इस जंग को जंग-ए-बदर कहते हैं। 632 ईसवी में हजरत मुहम्मद सल्ल. ने दुनिया से पर्दा कर लिया। उनकी वफात के बाद तक लगभग पूरा अरब इस्लाम के सूत्र में बंध चुका था। इसके बाद इस्लाम ने यहूदियों को अरब से बाहर खदेड़ दिया। वे इसराइल और मिस्र में सिमटकर रह गए।
हजरत मुहम्मद सल्ल. की वफात के मात्र 100 साल में इस्लाम समूचे अरब जगत का धर्म बन चुका था। 7वीं सदी की शुरुआत में इसने भारत, रशिया और अफ्रीका का रुख किया और मात्र 15 से 25 वर्ष की जंग के बाद आधे भारत, अफ्रीका और रूस पर कब्जा कर लिया। इस जंग में सबसे ज्यादा नुकसान बौद्ध, पारसी और हिन्दुओं को झेलना पड़ा। ईरान में जहां खलिफाओं ने पारसियों को सत्ता से बेदखल कर दिया वहीं। भारत के हिन्दूकुश से लेकर सिन्धु के मुहाने तक बौद्ध और हिन्दुओं से सत्ता छीन ली गई।
इस्लाम की इस तेजी को देखते हुई ईसाई राष्ट्रों में हड़कंप मच गई। कहते हैं कि इस्लाम के इस जिहाद को टक्कर देने के लिए ही क्रूसेड शुरू हुआ। क्रूसेड के लिए ईसाई राष्ट्रों को एकजुट किया जाने लगा और अब तक धर्म के नाम पर 7 क्रूसेड हो चुके हैं। इनमें से तीन प्रमुख है... ईसाइयों ने ईसाई धर्म की पवित्र भूमि फिलीस्तीन और उसकी राजधानी यरुशलम में स्थित ईसा की समाधि पर अधिकार करने के लिए 1095 और 1291 के बीच 7 बार जो युद्ध किए उसे क्रूसेड कहा जाता है। इसे इतिहास में सलीबी युद्ध भी कहते हैं। यह युद्ध 7 बार हुआ था इसलिए इसे 7 क्रूश युद्ध भी कहते हैं, जिनमें प्रमुख तीन रहे हैं। पहला क्रूसेड 1096-99 में, दूसरा क्रूसेड 1144 में, तीसरा क्रूसेड 1191 में हुआ।
उस काल में यरुशलम पर इस्लाम की सेना ने अपना आधिपत्य जमा रखा था, जबकि इस भूमि पर मूसा ने अपने राज्य की स्थापना की थी। इस तरह इस भूमि पर ईसाई, यहूदी और मुसलमान तीनों ही धर्म के लोग आज भी उस भूमि के लिए युद्ध जारी रखे हुए हैं।
लेकिन इस जंग में एक बात की समानता हमेशा बनी रही कि यहूदियों को अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए अपने देश को छोड़कर लगातार दर-ब-दर रहना पड़ा जबकि उनका साथ देने के लिए कोई दूसरा नहीं था। वे या तो मुस्लिम शासन के अंतर्गत रहते या ईसाइयों के शासन में रह रहे थे।
लगभग 600 साल के इस्लामिक शासन में इसराइल, ईरान, अफगानिस्तान, भारत, अफ्रीका आदि मुल्कों में इस्लाम स्थापित हो चुका था। लगातार जंग और दमन के चलते विश्व में इस्लाम एक बड़ी ताकत बन गया था। इस जंग में कई संस्कृतियों और दूसरे धर्मों का अस्तित्व मिट चुका था।
ईसाई और इस्लाम की इस जंग के बीच ही भारत सहित अन्य राष्ट्रों में कई नए धर्म और संतों का उदय हुआ जिन्होंने हिंसा के दौर में लोगों के बीच अहिंसा और भाईचारे का पाठ पढ़ाया। भारत में इस रूप में गोगादेव जाहर वीर, झुलेलाल, वीर तेजाजी महाराज, नानक, बाबा रामदेव और कबीर जैसे संतों का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। इसी दौर में सुफीवाद का भी जन्म हुआ, जो अरब, इराक से ईरान और फिर भारत आया। लेकिन इन संतों की विचारधारा ने भी कालांतर में संप्रदाय का रूप धारण कर लिया।
17वीं सदी की शुरुआत में विश्व के उन बड़े मुल्कों से इस्लामिक शासन का अंत शुरू हुआ, जहां इस्लामिक लोगों ने कब्जा कर रखा था। यह था अंग्रेजों का वह काल, जब मुसलमानों से सत्ता छीनी जा रही थी। ऐसा सिर्फ भारत में ही नहीं हुआ। उसी दौरान अरब राष्ट्रों में पश्चिम के खिलाफ असंतोष पनपा और वे ईरान तथा सऊदी अरब के नेतृत्व में एकजुट होने लगे।
बहुत काल तक दुनिया 4 भागों में बंटी रही- इस्लामिक शासन, चीनी शासन, ब्रिटेनी शासन और अन्य। फिर 19वीं सदी कई मुल्कों के लिए नए सवेरे की तरह शुरू हुई। कम्युनिस्ट आंदोलन, आजादी के आंदोलन चले और सांस्कृतिक संघर्ष बढ़ा। इसके चलते ही 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हुआ जिसके अंत ने दुनिया के कई मुल्कों को तोड़ दिया और कई नए मुल्कों का जन्म हुआ।
द्वितीय विश्वयुद्ध में यहूदियों को अपनी खोई हुई भूमि इसराइल वापस मिली। यहां दुनियाभर से यहूदी फिर से इकट्ठे होने लगे। इसके बाद उन्होंने मुसलमानों को वहां से खदेड़ना शुरू किया जिसके विरोध में फिलीस्तीनी इलाके में यासेर अराफात का उदय हुआ। फिर से एक नई जंग की शुरुआत हुई जो अभी तक जारी है।
इस जंग का स्वरूप बदलता रहा और आज इसने मक्का, मदीना और यरुशलम से निकलकर व्यापक रूप धारण कर लिया है। इसके बाद शीतयुद्ध और उसके बाद सोवियत संघ के विघटन से इस्लाम की एक नई कहानी लिखी गई 'आतंक की क्रूर दास्तां'। इस दौर में मुस्लिम युवाओं ने ओसामा के नेतृत्व में जिहाद का नया पाठ पढ़ा, जो कि इस्लाम के शांति और भाईचारे के मुल्यों से अलग था।
लेकिन ओसामा बिन लादेन के अंत के बाद आतंकवाद ने और भी भयानक रूप धारण किया है जिसे आज आईएसआईएस कहते हैं। दुनिया में आईएस का आतंक जारी है जिसके चलते अब पश्चिमी ईसाई मुल्क फिर से एकजुट होने लगे हैं और विश्व ISIS के कारण धीरे-धीरे भयानक युद्ध की ओर बढ़ता जा रहा है।
अंत में कहना होगा कि ईसा के 600 वर्ष पूर्व से लेकर अब तक धर्म का स्वरूप बदलता रहा। धर्म अब धर्म न रहकर संप्रदाय ही रह गया है। एक ऐसा संप्रदाय जो दूसरे संप्रदाय के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करना चाहता। अब धर्म में धर्म नजर नहीं आता है। यह देखना जरूरी है कि पहले कैसे किसी विचारधारा ने लोगों को ईश्वर या मोक्ष की खोज में लगाया और फिर कैसे वही विचारधारा एक संगठन और जाति में बदल गई और अंत में वही विचारधारा एक फौज में तब्दील होकर मनुष्य जाति के विनाश के लिए खड़ी हो गई? यह सोचना होगा कि कैसे इन ढाई हजार वर्षों में मनुष्य ने ईश्वर या मोक्ष का मार्ग छोड़कर दूसरे धर्म या संप्रदाय के लोगों के खिलाफ एक खतरनाक संगठन खड़ा कर लिया? क्या यह कहना जरूरी है कि जहां संप्रदाय है वहीं सांप्रदायिकता है?