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Written By Author स्वरांगी साने

'राखी' में है एक बीज भी, जो उगेगा तो फलेगा-फूलेगा रिश्ता

'राखी' में है एक बीज भी, जो उगेगा तो फलेगा-फूलेगा रिश्ता - Rakhi, Raksha Bandhan festival, Vidarbha farmer, cotton Rakhi
एक वे दिन थे जब खाना खाने के बाद कहा जाता था-अन्नदेवता सुखी भव। यह उस अन्नदेवता के सुखी रहने की कामना थी जिसने अन्न उपजाया, उस किसान की बात। आज देश के 2,00,000 से ज़्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली और हमारे पास उनके लिए सहानुभूति के अलावा कुछ नहीं है। शायद यह भी न पता हो कि बीते दो दशकों में जिन किसानों ने आत्महत्या की उनमें से अधिकांश कपास की पैदावार करते थे। विदर्भ के इन किसानों के लिए क्या कुछ भी नहीं किया जा सकता? इस सवाल के बरक्स में खड़े दिखते हैं दो समूह, उनके पाँच युवा, पाँच गाँवों की 50 महिलाएँ और उन्हें जोड़ने का काम करने वाली एक युवती। इन्होंने राखियाँ बनाई हैं, देसी कपास से, चरखे पर सूत कातकर, प्राकृतिक रंगों से रंगकर और हर राखी में एक बीज रखा है, ताकि रक्षाबंधन पर्व के बाद आप उस बीज को ज़मीन में डाल दें, एक वृक्ष की संभावनाओं के साथ, रिश्तों के पल्लवित होने की कामना के साथ।
उनका यह काम इतना अनूठा और इतना अलहदा है कि पूरे देश से कोई 20 राखियों के ऑर्डर दे रहा है, कोई 25-30 राखियों के। इन दिनों वे कूरियर करने में लगे हैं। यदि राखियाँ सही हाथों तक सही समय में पहुँचती हैं तो वे किसान भी ख़ुश होंगे जो पुश्तैनी तौर पर देसी कपास उगाते हैं। सूरज कपास नामक देसी कपास की प्रजाति विदेशी संकरित कपास की नस्ल से भिन्न होती है। यह स्थानीय होने से पर्यावरण पूरक होती है। 
आँकड़ों को देखें तो भारत पूरे विश्व में सबसे अधिक कपास की पैदावार करने वाला दूसरा देश है। पूर्वी एशिया में दो भिन्न प्रकार का कपास उगता है। बावज़ूद आज यहाँ जो कपास उग रहा है उसमें से 95 प्रतिशत से ज़्यादा अमेरिकन जेनेटेकली मोडिफाइड (जीएम) कपास है, जो देसी न होने से पर्यावरण को नुकसान पहुँचाता है। किसानों पर इसकी आर्थिक मार भी पड़ती है क्योंकि कपास के इन बीजों (जीएम) का पेटेंट है और अपने खेत के लिए किसानों को पूरी तरह उन कंपनियों पर निर्भर रहना पड़ता है जो उनकी माँग की पूर्ति मनमाने पैसे वसूल कर करती हैं। 
 
घरों पर उगने वाला यह कपास जब तंत्र के अधीन हो जाता है तो उससे बनने वाला कपड़ा भी उन स्पिनिंग और टेक्सटाइल मिलों की बपौती हो जाता है जो बाज़ार पर दबाव डालते हैं। बुनकरों और काश्तकारों का जीवन धीरे-धीरे हाशिए पर चला जाता है। अधिकांश बुनकर दलित समाज के हैं और फिर वे आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक… हर स्तर पर पिछड़ते चले जाते हैं। जब केवल मुंबई की टेक्सटाइल मिलों में काम करने वाले 1,00,000 से ज़्यादा श्रमिकों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा था तब भी हम कुछ नहीं कर पाए थे। 
 
इसका यह मतलब नहीं है कि लोग पूरी तरह असंवेदनशील हो गए हैं। दरअसल, हम ऐसे समाज में जी रहे हैं जहाँ निर्माता और उपभोक्ता को जितना हो सके एक-दूसरे से दूर रखा जा रहा है। हम सोच भी नहीं सकते कि हम उस दुष्चक्र में शामिल हैं जो किसानों का शोषण कर रहा है। ऐसे में यदि कोई यह पहल करता है कि इस श्रृंखला की हर कड़ी को जोड़ा जाए तो एक कोशिश इन राखियों को बनाने की है। हम उत्पाद खरीदें, लेकिन दमनकारी न बनें, बल्कि किसानों तक उनका मेहनताना पहुँचा सकें। 
 
इन राखियों को मौज़ूदा शोषण तंत्र के ख़िलाफ़ एक मुहिम के नज़रिए से देखिए। यह केवल सुविधा की बात नहीं, पर भविष्य के सुनहरे होने की कल्पना की तरह है। कपास उगाने वाले हाथों को काम और त्योहार मनाने वालों तक बाज़ार नहीं, बल्कि इन किसानों के मेहनत की बूँदें पहुँचाने का यह काम है। जिसे कर रहे हैं नागपुर बीजोत्सव समूह और ग्राम आर्ट प्रोजेक्ट के साथी। महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके के नागपुर और उससे सटे मध्यप्रदेश के पाँच गाँवों की 50 महिलाओं ने चरखे पर सूत कातकर इन्हें बनाया है। यह देसी कपास है जो किसी मिल में नहीं गया बल्कि महिलाओं ने श्रम से बुना है। किसी राखी में कपास का बीज है तो किसी में दलहन का, ताकि रक्षाबंधन के पर्व के बाद उस बीज को आप माटी में लगा सकें और रिश्तों को बढ़ता देख सकें। 
 
ग्राम आर्ट प्रोजेक्ट के ललित विकमाक्षी कहते हैं, मैं फुल टाइम आर्टिस्ट हूँ। कला मेरा जीवन है। उसके साथ मैं इस प्रोजेक्ट में काम कर रहा हूँ। पाँच गाँवों के किसानों ने उनकी ज़मीन पर कपास बोया, उन्हीं के घर-परिवारों की 50 महिलाओं ने सूत काता। हमारे बीच सेतु का काम किया बीएससी की पढ़ाई करने वाली नूतन ने। उसने इन महिलाओं को राखी बनाना सिखाया। हमने राखियों की कीमत भी बहुत कम रखी है। कूरियर हम अपने पैसों से कर रहे हैं। जैसा ऑर्डर आता है, वैसा कूरियर कर देते हैं। 
 
इसी प्रोजेक्ट की श्वेता भात्ताड जानकारी देती हैं कि दो प्रजातियों AKA-7 और Anand-1 का यह कपास है। आनंद-1 मुख्यत: नांदेड़ की पैदावार है जिसे वर्धा में उगाया गया। एकेए-7 को अकोला जिले के कई किसान अपने यहाँ लगाते हैं। बुनाई से पहले की प्रक्रिया ग्राम सेवा मंडल (जीएसएम) वर्धा में हुई। वर्धा की महिलाओं ने अंबर चरखा पर सूत काता। वर्धा के मगन संग्रहालय की रंगाई इकाई में प्राकृतिक रंग देने का काम हुआ। 
 
इसके बाद सूत को परादसिंगा गाँव ले जाया गया। जहाँ उसी गाँव की युवती नूतन ने आसपास की गाँवों की महिलाओं को राखी बनाना सिखाया। केलवड, सतनूर, खैरी गाँवों की महिलाएँ एक हो गईं। इन राखियों की कीमत 20, 25 और 30 रुपए है। इस काम में नागपुर बीजोत्सव समूह के तन्मय जोशी, रूपिंद्र नंदा और कीर्ति मानगुरकर ने भी साथ दिया। 
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