पिछले कई सालों से मुंबई की एक गंदी गली की खंडहरनुमा इमारत में मुबारक बेगम बदहाली की जिंदगी जी रही थीं और अब वे वहां भी नहीं रहती .... छोड़ गई हैं वह इस बेदर्द जमाने को जिसने उन्हें बेशुमार दर्द दिए।
सच में हम भारतीय कला के प्रति जितने दीवाने हैं, कलाकार के प्रति उतने ही रूखे। फिल्म संगीत के वे सितारे, जिनकी सुरीली आवाज हमारे दिलों में आज भी धड़का करती है, कहां, किस हालत में हैं, यह जानने में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं होती। और एक दिन जब अचानक रेडियो या टीवी के पर्दे पर उनके गाने बजते हैं तो हम चौंक पड़ते हैं अरे ये जिंदा थे क्या?? यही बॉलीवुड का काला सच है।
खनकदार नशीली आवाज की मल्लिका मुबारक बेगम आखिर चली गई। उनकी दिल चीरती आवाज के बगैर आज भी विविध भारती की महफिलें अधूरी लगती हैं। फिल्म जगत की उपेक्षा और अपमान ने मुबारक के व्यक्तित्व को कठोर और स्वर को तल्ख बना दिया था।
मुबारक झुंझुनूं में जन्मीं। अहमदाबाद में पलीं। दादा चाय की दुकान लगाते थे और अब्बा फूलों की ठेली। अब्बा तबले के शौकीन थे। मुंबई आकर फिल्मों में बजाने लगे।
मुबारक, सुरैया और नूरजहां को गुनगुनाया करती थीं। उनकी रुचि को देख किराना घराने के उस्ताद रियाजुद्दीन खां और समद खां साहेब से तालीम दिलवाई गई। वहीं से ऑल इंडिया रेडियो पहुंचीं। उस जमाने के मशहूर संगीतकार रफीक गजनवी ने सुना और गाने के लिए बुलाया। स्टुडियो की भीड़ देखकर मुबारक घबरा गईं। न गा पाने का दु:ख उन्हें सालता रहा। एक परिचित ने गायिका जद्दनबाई से मिलवाया। जद्दनबाई के मधुर प्रोत्साहन से मुबारक को प्रेरणा मिली। फिल्म 'आइए' में पहला पार्श्व गीत गाने का मौका मिला।
फिर सिलसिला चल पड़ा गायन का। पांचवें दशक की फिल्में फूलों का हार/ कुंदन/ दायरा/ शबाब/ मां के आंसू। औलाद/ शीशा/ मधुमती/ देवदास और रिश्ता में मुबारक एकल एवं युगल गीत गाती रहीं। 1961 में प्रदर्शित फिल्म 'हमारी याद आएगी' के शीर्षक गीत ने उनके करियर को बुलंदी पर पहुंचा दिया।
छठे दशक में उनके गाए गीत आज भी जुबान पर थिरक उठते हैं- मुझको अपने गले लगा लो (हमराही)/ नींद उड़ जाए तेरी (जुआरी)/ निगाहों से दिल में चले आइएगा (हमीर हठ)/ बेमुरव्वत बेवफा (सुशीला)/ मेरे आंसुओं पे ना मुस्करा (मोरे मन मितवा)/ ए दिल बता हम कहां आ गए (खूनी खजाना) और वादा हमसे किया (सरस्वती चंद्र)।
इन तमाम गीतों से मुबारक की लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ रहा था, वहीं उनके विरुद्ध षड्यंत्र भी जारी थे। नतीजन फिल्म 'जब-जब फूल खिले' के गाने 'परदेशियों से ना अंखियां मिलाना' और फिल्म 'काजल' के 'अगर मुझे ना मिले तुम' जब रिकॉर्ड होने के बाद बाजार में आए तो उनसे मुबारक नदारद थीं। बेबाकी से बताया था एक बार मुबारक ने- 'एक रोज मेरे रेडियो साक्षात्कार के दौरान फोन आया मुझे। एक 'सुप्रसिद्ध' गायिका थी उधर, बोली- हमें पहचाना? हम तुम्हें प्यार न करते, तो कभी का इंडस्ट्री से आउट करवा देते।'
बकौल मुबारक- 'ये कैसा प्यार है? मैं आज तक नहीं समझ सकी।'
सातवें दशक के आरंभ में मुबारक सचमुच आउट हो गईं। 1980 में फिल्म 'रामू तो दीवाना है' के लिए गाया 'सांवरियां तेरी याद में' उनका अंतिम पार्श्वगीत है। पिछले कई वर्षों से वे एक गंदी गली की खंडहरनुमा इमारत में बेकार-बदहाल जीवन बसर कर रही थीं। उन्हें नाम तो खूब मिला, लेकिन दाम (पैसा) उतना नहीं। सांसद सुनील दत्त ने फ्लेट आवंटित करवाया था किंतु उसकी कीमत चुकाना भी संभव नहीं था।
बरसों बॉलीवुड से वे कहती रहीं.... मुझ को अपने गले लगा लो ..... पर अफसोस कि गले लगाना तो दूर की बात है, उनकी बिदाई में बॉलीवुड से सिर्फ दो या तीन लोग ही शरीक हुए...
उनकी स्मृति में उनकी तरफ से उन्हीं का गीत निवेदित है-
'कभी तनहाइयों में यूं हमारी याद आएगी,
अंधेरे छा रहे होंगे कि बिजली कौंध जाएगी...।'