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थोड़ी-सी बारिश की बड़ी-सी आफत

थोड़ी-सी बारिश की बड़ी-सी आफत - Monsoon brings trouble for them
देश के कई शहरों में बारिश ने कोहराम मचाते हुए सामान्य जनजीवन को बड़ी बुरी तरह से प्रभावित कर रखा है और ये बात सिर्फ किसी एक बारिश के मौसम की नहीं है। हमारे देश के कई हिस्सों में सूखे के बाद बारिश के आते ही बाढ़ जैसे हालात भी बन जाना अब कोई नई कहानी नहीं रह गई है।

 
शुरुआती बारिश से ही देश के कई-कई शहरों में जल जमा होने लगता है, सड़कें जलमग्न हो जाती हैं, यातायात प्रभावित हो जाता है और रोजमर्रा का जीवन ठप होने के साथ ही साथ स्कूल, कॉलेज व दफ्तरों में छुट्टी की घोषणाएं कर दी जाती हैं। बेसब्री से किया जाने वाला बारिश का इंतजार इतना महंगा साबित होने लगता है कि निचली बस्तियों के घरों में पानी भर जाता है और घरों का सामान नदी बन चुकी सड़कों पर तैरने लगता है। शासन-प्रशासन कुछ नहीं कर पाते हैं, क्योंकि नगर नियोजन की त्रुटियों से देश का प्रत्येक नगर, महानगर, जिला, कस्बा सभी त्रस्त हैं। थोड़ी-सी बारिश की बड़ी-सी आफत ऐसा उत्पात मचाती है कि हर कोई त्राहि-त्राहि करने लगता है।

 
सब जानते हैं कि द्वितीय महायुद्ध के बाद जापान लगभग ध्वस्त हो चुका था। वहां के नागरिकों की दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर आज बहुत कुछ बदल चुका है। जापान तकनीकी ज्ञान और आर्थिक मामलों में तो अग्रणी है ही, उसने नगर नियोजन के क्षेत्र में भी विशेषज्ञता अर्जित कर ली है। बारिश में जल निकासी की जो व्यवस्था जापान ने अपनाई है, उससे शहरी जीवन के जलमग्न हो जाने की समस्या लगभग समाप्त ही हो चुकी है। अब वहां बारिश का पानी सड़कों पर पहले की तरह जमा नहीं होता है, बल्कि बड़े-बड़े मेनहोल से जुड़े पाइपों के माध्यम से किसी भी दशा में शहर से बाहर निकल ही जाता है।

 
भारत में बारिश के जल निकासी को उक्त तकनीक अपनाकर व्यवस्थित किया जा सकता है बशर्ते कि देश के महान नेताओं और अफसरों को अपने हित-साधन से जरा फुरसत मिले। विस्मयकारी सच्चाई यही है कि हमारे देश में नगर नियोजन की गति और दिशा कभी भी सही राह पर नहीं चली। देश के प्रत्येक शहर में म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन, नगर नियोजन विभाग और विकास प्राधिकरण जैसी संस्थाएं कार्यरत हैं, लेकिन उनमें शायद ही किसी संस्थान को यह ज्ञात होगा कि उसके किसी खास क्षेत्र का वॉटर प्लान क्या है? अगर बारिश में उक्त इलाका जल प्रभावित होगा, तो उसकी जल निकासी की व्यवस्था क्या है? जल प्रभावित निचली बस्तियों में रहने वाले लोगों के लिए तत्काल सुरक्षा कैसे दी जाएगी? बच्चों, महिलाओं और बूढ़ों को बाढ़ जैसे हालातों से कैसे बचाया जाएगा?

 
एक तरफ बहुमंजिला इमारतें हैं, तो दूसरी तरफ अंडरग्राउंड अथवा बेसमेंट पार्किंग, जहां नियमों की अनदेखी की जाती है। यह सारा संकट या किया-धरा उन स्थानीय नियोजन संस्थाओं का है जिनकी देखरेख में निर्माण के दौरान खुली मनमानी की जाती है और कि जिसे मजबूरी में 'रिश्वतखोरी' का नाम दे दिया जाता है।
 
किसी भी बसाहट से पहले बारिश के पानी की निकासी का कोई भी प्रबंध क्यों नहीं विचारशील मुद्दा होना चाहिए? जलजमाव की वजह से उत्पन्न होने वाले संकट के समाधान की जिम्मेदारी किसकी होनी चाहिए? क्यों नहीं यह जिम्मेदारी भवन या बस्ती निर्माण से पहले ही तय की जा सकती है? आखिर ऐसा कब तक होते रहना चाहिए कि बारिश की मुसीबत एक स्थायी अथवा परंपरागत समस्या मानकर हार मान लेना चाहिए? देश के विकास की जिम्मेदारी से नगरों के विकास की जिम्मेदारी को अलग कैसे किया जा सकता है? कोई पूछता क्यों नहीं है कि देश की नदियां तो जलवायु परिवर्तन को समर्पित हो गईं किंतु नाले-नालियां कौन निगल गया?

 
बारिश में जलजमाव के कारण स्कूली बच्चों से भरी बसें डूबने लगती हैं और तमाशा चलता रहता है कि कौन बचाए? छोटे-छोटे गांवों व कस्बों की तो छोड़िए ही, नवनिर्मित बड़े-बड़े नगरों, महानगरों में भी बारिश के आते ही जनजीवन ठप हो जाता है। मनमाने विकास ने देश की एक बहुत बड़ी आबादी को जाने-अनजाने ही एक गहरे और स्थायी संकट में धकेल दिया है। 1-2 दिन की जरा-सी बारिश से ही सड़कें पानी में डूब जाती हैं। घरों का सामान नदी बन चुकीं सड़कों पर तैरने लगता है, सड़कें धंस जाती हैं, पेड़ धराशायी हो जाते हैं, जल निकासी की शून्यता के कारण घंटों का ट्रैफिक जाम एक स्थायी संकट बन गया है और फिर बड़े-बड़े गड्डों और खुले मेनहोल का तो कहना ही क्या? एक बार खुल जाने के बाद वे महीनों तक खुले रहते हैं।

 
कहने को उत्तर भारत, मध्यभारत से लेकर असम और पश्चिम बंगाल तक बारिश होने के समाचार हैं, लेकिन उन समाचारों की भी भरमार है, जो बता रहे हैं कि जरा-सी बारिश ने सामान्य जनजीवन को यहां से वहां तक कैसे बुरी तरह प्रभावित किया है? गली-मोहल्लों अथवा सड़क किनारे बनीं नालियों की नियमित साफ-सफाई नहीं होने के कारण उनमें जमा कूड़े-कचरे की वजह से नाले-नालियां जाम हो जाते हैं, जल निकासी बाधित हो जाती है और सड़कों तथा सड़क किनारे बसी बसाहटों में पानी जमा हो जाता है जिससे सामान्य दिनों का सामान्य यातायात तक बुरी तरह मुश्किल में आ जाता है। मुश्किल यही है कि ये कहानी हमारे देश के हर नगर, महानगर की हो गई है।

 
जरा-सी बारिश की बड़ी-सी आफत का कई-कई शहरों में तो आलम यहां तक दूषित हो जाता है कि सीवरेज लाइन तक चोक हो जाती है। किंतु महाकाल की पवित्र नगरी उज्जैन में तो भयंकर ही गजब हो गया। इस बार इधर बारिश हुई नहीं कि उधर सीवरेज लाइन दगा दे गई। सीवरेज लाइन चोक हो जाने के कारण सीवरेज की तमाम गंदगी, बारिश के पानी के साथ हमजोली करते हुए मोक्षदायिनी शिप्रा नदी में जा मिली।
 
पुरखों की अस्थियां विसर्जित करने गए शोकग्रस्त आस्थावान परिजन दुःखी ही नहीं, चकित भी थे। कुंभ मेले की व्यवस्था पर करोड़ों की बजट राशि खर्च कर देने वालों की यह लापरवाही क्या अक्षम्य कही जा सकती है? अगर थोड़ी-सी सावधानी रखते हुए बारिश से जरा पहले ही नाले-नालियों की साफ-सफाई ठीक से जांच-परख ली जाए, तो क्या ऐसी अनहोनी दुर्घटनाओं से बचा नहीं जा सकता है?

 
अब के दिनों में ऐसा तो जरा भी नहीं होता है कि बारिश का मौसम शुरू होते ही झमाझम पानी बरसने लगता है। 25-30 बरस पहले के वे दिन हवा हुए, जब 2-4 दिनों के अंतराल से सामान्यत: असामान्य बारिश हो जाती थी और 2-4 दिनों तक झड़ी का वातावरण बना रहता था। पानी बरसने की आस में तरसते लोग पानी थमने की दुआ मांगने लगते थे किंतु नगरों और महानगरों में तो ऐसे दृश्य अब कम ही दिखाई देते हैं।

 
आधुनिक तकनीक, सुविधापूर्ण जीवन प्रणाली, उपभोक्तावादी सोच-विचार और विदेशों की भौंडी नकल ने भारतीय समाज को कई-कई तरह की अस्वाभाविकताभरी परेशानियों में उलझा दिया है। कुछ इसीलिए थोड़ी-सी बारिश की बड़ी-सी आफत समूचे देश के लिए हफ्तों तक चलते रहने वाला संकट बन जाता है। रहवासी बस्तियों के अलावा औद्योगिक इलाकों के ज्यादातर नाले-नालियां आमतौर पर प्लास्टिक के कूड़े-कचरे से भरे रहते हैं जिसके कारण उनमें गाद जमा हो जाती है और जरा-सी बारिश होते ही जल निकासी अवरुद्ध हो जाती है। नियमित साफ-सफाई के अभाव और प्लास्टिक कचरे के प्रवाह से तमाम योजनाएं व सुविधाएं ध्वस्त हो जाती हैं।

 
नगरीय प्रशासन के लिए जिम्मेदार उस अमले को क्या कहा जाए, जो वसूली में लिप्त रहते हुए सिर्फ अपना वर्तमान 'स्वच्छ' करती है? जिस सरकारी अमले को समाज के भविष्य से कोई सरोकार ही नहीं रह गया है, उससे क्या उम्मीद की जा सकती है? दिक्कत यही है कि नगर निगमों अथवा दूसरे नगरीय निकायों को होश ही ठीक तब आता है, जबकि बारिश की आफत सड़कों पर नाव चलवा देती है। आपात स्थिति आने से पहले ही क्या उसकी रोकथाम के बंदोबस्त नहीं किए जा सकते हैं? सरकारी महकमों में तालमेल की कमी का खामियाजा आम जनता को क्यों भुगतना चाहिए?

 
जलभराव और जल निकासी के मामलों को अगर थोड़ी गंभीरता से लिया जाए तो वर्षाजनित हादसों को किसी हद तक सीमित किया जा सकता है। प्रकृतिजन्य हादसों पर पूर्णत: नियंत्रण तो मुश्किल है किंतु उन मुसीबतों को कम जरूर किया जा सकता है बशर्ते कि जिम्मेदारी से काम लिया जाए और जवाबदार अधिकारी अपने कर्म को ही अपना धर्म समझें। बड़ी-बड़ी आबादी के बीच विशालकाय मॉल अथवा बहुमंजिला इमारतें बनाने के निमित्त बड़े-बड़े भूखंड खुदाई करके छोड़ दिए जाते हैं जिनमें बारिश का पानी जमा हो जाता है। यह जलजमाव निश्चित ही उन लोगों के लिए खतरनाक साबित हो जाता है, जो बरसों पूर्व बने मकानों में इन्हीं भूखंडों के आसपास रहते हैं। थोड़ी-सी बारिश की बड़ी-सी आफत में ये भूखंड भी कोई कम हानिकारक नहीं है?

 
सामान्यत: जलजमाव की घटनाओं को बारिश की मौसमी समस्या मानकर ही कुछ फौरी इंतजाम कर लिए जाते हैं और इस बात पर जरा भी विचार नहीं किया जाता है कि क्यों नहीं जल निकासी की व्यवस्था को हमेशा ही चाक-चौबंद रखा जाना चाहिए? जलजमाव से पहले अगर जल निकासी की पर्याप्त व्यवस्था उपलब्ध रहेगी, तो फिर सड़कों पर न तो जलजमाव होगा, न घरों में पानी घुसेगा और न ही सड़कों पर नावें चलेंगी।
 
अभी हालात ये हैं कि जल निकासी की पर्याप्त व्यवस्था के अभाव में सिर्फ बारिश ही नहीं, बल्कि सामान्य दिनों के दौरान भी सामान्य यातायात तक मुश्किल में आ जाता है और हमें वर्षाजनित हादसों का सामना करना पड़ता है। इस बरस अभी तक 6 राज्यों में तकरीबन 600 लोग वर्षाजनित हादसों का शिकार हो चुके हैं। वर्षाजनित हादसों और उससे हुई जनहानि की यह जानकारी नेशनल इमरजेंसी रिस्पॉन्स सेंटर द्वारा जनहित में जारी की गई है।
 
उधर डब्ल्यूएचओ अर्थात विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी एक रिपोर्ट जारी करते हुए कहा है कि वर्षाजनित दूषित जल से हेपेटाइटिस 'ए' और 'ई' का खतरा बढ़ जाता है। 'ए' और 'ई' से अधिक खतरनाक हेपेटाइटिस 'बी' व 'सी' होता है। हेपेटाइटिस 'सी' के बारे में मान्यता है कि इससे लिवर का कैंसर तक हो सकता है। इधर देश में प्रतिवर्ष लिवर के 30 हजार तक ऐसे नए मरीज देखे जा रहे हैं, जो 23 से 30 आयु वर्ग में आते हैं इसलिए जरूरी है कि वर्षाजनित हादसों और बीमारियों से जहां तक संभव हो सके, बचा जाना चाहिए अन्यथा जान का जोखिम बना रहेगा।
 
थोड़ी-सी सावधानी, थोड़ी-सी जिम्मेदारी और थोड़ी-सी आपसी समझ दिखाने से वर्षाजनित हादसों से मुक्ति मिल सकती है। नगर निगमों, नगर नियोजन विभागों और नगरीय प्रशासनिक अमलों के आपसी समन्वय से थोड़ी-सी बारिश की बड़ी-सी आफत का स्थायी समाधान ढूंढा जा सकता है। कुछ भी मुश्किल नहीं है, बस ठान लीजिए। 
 
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