इरोम शर्मिला। एक नाम जिसके साथ जुड़े हैं कई शब्द। हर शब्द जलता हुआ, सोचने को मजबूर करता हुआ। मणिपुर, भूख हड़ताल, आयरन इरोम, रबर पाइप, नाक, विटामिन, खनिज, प्रोटीन, अफस्पा, सामाजिक कार्यकर्ता, संघर्ष, सैन्य बल विशेषाधिकार कानून का विरोध.....
इरोम चानू शर्मिला, जिसकी एक ही तस्वीर हर कहीं, हर जगह मिलती है जिसमें नाक के जरिए वह जीवन के जरूरी पोषक तत्व ले रही है लेकिन सच तो यह है कि (सात्विक अर्थों में लीजिएगा) यही नाम अब तक सरकार की नाक में दम किए रहा है....
इरोम शर्मिला, एक सामान्य नाम नहीं है, बल्कि पिछले 16 सालों से निरंतर-अनवरत गुंजती वह हुंकार है जो हमने संवेदनहीन होकर भी लगातार सुनी है और संवेदनशील होकर जिस पर हम कई बार ठिठके हैं।
बताने की जरूरत नहीं कि इरोम शर्मिला कौन है और क्यों चर्चा में है। 22 मई 1958 को अफस्पा (सैन्य बल विशेषाधिकार कानून) लगाया गया था। इरोम शर्मीला अफस्पा के खिलाफ निरंतर भूख हड़ताल करती रही और अधिकारी उन्हें रबर पाइप द्वारा नाक से विटामिन, खनिज, प्रोटीन सहित अन्य सामग्री देने पर मजबूर थे।
अब जबकि इरोम ने ठानी है कि वह अपने संघर्ष का तरीका बदले, अनशन तोड़े, शादी करे, मुख्यमंत्री बने और दोगुनी ताकत के साथ अपनी लड़ाई को अंजाम दे तो चारों तरफ से मिलेजुले स्वर उभरने लगे हैं। उनके अपने साथी ही उनसे खफा हो बैठे हैं, उन्हें जान से मारने तक की धमकी मिली है।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि इरोम की जान की कीमत खुद उनके लिए तो कभी कुछ थी ही नहीं यही वजह है कि वह अनशन पर इतने साल रही, उन्हें जबरन ही अस्पताल ले जाया जाता रहा है, और आहार दिया जाता रहा है।
ऐसे में जान की धमकी तो बेमानी है लेकिन सवाल उठता है उनके साथियों पर जो चाहते रहे कि इरोम उसी तरह अनशन पर रहे और एक दिन जब दुनिया से अधिकारों के लिए संघर्ष करती हुई अलविदा कह जाए तो हम उसका भरपूर फायदा उठा सकें। शायद यही इरादे इरोम ने भांप लिए हो और अपनी लड़ाई को एक दूसरे स्तर पर ले जाने को बाध्य हुई हो।
इरोम का स्वागत करने के लिए, उनकी दृढ़ता का सम्मान करने के लिए हमारे शब्द फूल भी कम है और हमारी
भावनाओं में गुंथी माला भी कमजोर है।
उनके हर फैसले का सम्मान इसलिए भी जरूरी है कि एक लंबे संघर्ष के बाद उन्होंने यह साबित किया है कि अहिंसा, अनशन, और खामोश आंदोलन आज भी उतने ही प्रासंगिक है जितने बापू के समय थे।
अपने साहसिक बुलंद इरादों से इरोम ने यह सिद्ध किया है कि सच की कोई भी आवाज ना दब सकी है ना उसे दबाया जा सका है। मानना ही होगा कि इरादों की पक्की है इरोम और इरोम के इरादे सच्चे हैं।
अपनी एक कविता में इरोम ने बड़ी खूबसूरती से अभिव्यक्त किया है: पढ़ें कविता अगले पेज पर
जब जीवन अपने अंत पर पहुंच जाएगा
तब तुम मेरे इस बेजान शरीर को
ले जाना और कोबरू बाबा की मिट्टी पर रख देना
मेरे शरीर को आग की लपटों के बीच
अंगारों में तब्दील करने के लिए
कुल्हाड़ी और फावड़े से उसके टुकड़े-टुकड़े करना
मेरे मन को वितृष्णा से भर देता है
ऊपरी खोल को एक दिन खत्म हो जाना ही है
इसे जमीन के नीचे सड़ने देना
आने वाली नस्लों के काम का बनने देना
इसे बदल जाने देना किसी खदान के अयस्क में
मैं शान्ति की सम्मोहक खुशबू फैलाऊंगी
कांगलेई से, जहां मैं पैदा हुई थी
जो गुजरते वक्त के साथ
सारी दुनिया में फ़ैल जाएगी..... इरोम
आज की रात
दो सदियों के मिलन की इस रात में
मैं दिल को छू लेने वाली सभी आवाजें सुनती हूं
ओ, समय कही जाने वाली प्यारी देवी
इस वक्त तुम्हारी यह असहाय बेटी बड़ी उधेड़बुन में हैं
यह आधी रात मुझे बेचैन बना रही है
मैं भूल नहीं पाती हूं इस दुनियावी कैद को
उन बहते हुए आंसुओं को
जब चिड़िया अपने पंख फड़फड़ाती है
उनको जो पूछते हैं कि
ये चलने लायक पैर किसलिए हैं ?
वे जो कहते हैं कि ये आंखें किसी काम की नहीं!
ऐ कारागार! तुम नष्ट हो जाओ
तुम्हारी इन सलाखों और जंजीरों की ताकत
इतनी क्रूर है कि इसने न जाने कितनी जिंदगियों को
बेवक्त चीरकर रख दिया है.
जाग जाओ
जाग जाओ
भाइयो और बहनो
देश के रक्षको, जाग जाओ
हमने एक लंबा सफ़र तय कर लिया है
यह जानते हुए भी कि हम एक दिन नहीं होंगे.
हमारे दिलों में डर क्यों बैठा हुआ है?
यह डर मुझमें भी है
इस मुश्किल कदम के असर से
चिंता और डर से भरी हुई
ईश्वर की प्रार्थना करते हुए
सत्य को अपने कमजोर शरीर से सराहते हुए
मैं अलविदा कहना चाहती हूं
लेकिन जीवन के लिए तरसती भी हूं
जबकि मृत्यु के बाद फिर जन्म होना है
मैं अपने लक्ष्य को पाने के लिए इतनी बेताब हूं..... इरोम