जनता रो रही है। गणतंत्र स्थापना से लेकर आज तक अनेक सरकारी और राज्य सरकारी योजनाओं का देश में अवतरण हुआ फिर भी जनता को रोने से फुरसत नहीं। अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते अब बेरोजगारी, महंगाई और तमाम अभावों से लड़ रही है वो भी आजाद भारत के लोकतंत्र में। तो सरकार झूठ बोल रही है बड़े-बड़े विज्ञापनों से प्रचार-प्रसार कराके कि गरीबों के लिए लाखों-करोड़ों रुपयों की अनेक योजनाएं बनाई गई हैं जिससे देश के लगभग 90 प्रतिशत लोगों को लाभ मिला है। अब ये 90 करोड़ लोग कहां मिलेंगे? ये भगवान जाने।
हमारा देश सोने की खदान है। भले ही अंग्रेज लूटकर ले गए, फिर भी आज जनता लुटा रही है। देश की जनता के सेवक जनता को सड़क दे रहे हैं, पानी दे रहे हैं, रहने को आवास दे रहे हैं। जनता समझ रही है कि नेताजी ने नलकूप लगवाया है, भले ही नलकूप जनता के टैक्स से मिले सरकारी पैसों से लगा हो। जनता बेचारी तो नेताजी की ही जयकार करेगी।
जनता को क्या पता कि उसके पैसे लगे हैं इसमें और वो भी पूरे नहीं बल्कि नेता, अधिकारी, ठेकेदार और कुछ नहले-दहलों का 'कमीशन' कटने के बाद। यानी 5,000 रुपए में लगने वाला नलकूप निर्माण से लेकर उद्घाटन तक कम से कम 20 लाख रुपए में पड़ गया। एक आम आदमी पेड़ लगाएगा तो लागत 50 से 100 रुपए आएगी। वही पेड़ अगर कोई नेता, विधायक, मंत्री वगैरह लगाएगा तो लागत 10 गुना बढ़ जाएगी और साथ ही पूरे गांव नहीं, बल्कि प्रदेशभर में चर्चा होगी कि फलांजी ने फलां गांव में वृक्षारोपण किया।
यही हाल मप्र के इंदौर शहर का है जिसे स्वच्छता के मामले में नंबर 1 का दर्जा मिला है। अब ये समझ से बाहर है कि इंदौर नगर को मिला है, गांव या तहसील या जिले को मिला है? क्योंकि सफाई वहीं दिखती है, जहां वर्चस्व वालों के आशियाने हैं। अनेक जगहों पर तो स्वच्छ भारत की गाड़ियां भी 'आराम' से हफ्ते में 2-4 दिन आ जाती हैं। पर ये जरूर है कि स्वच्छता के मामले में जितनी मेहनत की जा रही है, वो देखने लायक है। किसी न किसी तरह पैसा खपाना है, क्योंकि पैसा खपेगा नहीं तो 'कमीशन' कहां से मिलेगा?
लागत से ज्यादा प्रचार-प्रसार
ऐसा लगता है कि जनसुविधा के लिए किए जाने वाले कार्य की शुरुआत से लेकर लोकार्पण समारोह तक कार्य की लागत से लगभग 80-85 प्रतिशत ज्यादा पैसा खर्च होता होगा। धीरे-धीरे काम चलता रहता है और लागत भी बढ़ती रहती है। 1 लाख का काम धीरे-धीरे सारे गणित मिलाकर यानी चपरासी से लेकर ऊपर तक का 'कमीशन' निकालने के बाद 1 करोड़ तक जा पहुंचती है।
सरकारें अपनी छवि चमकाने में जनता के पैसों को विज्ञापनों पर बर्बाद करती हुई दिख रही हैं। सरकारें केद्र या राज्य में किसी भी दल की हों, सरकारी योजना और प्रचार के नाम पर जनता का धन बर्बाद करने में कोई भी दल पीछे नहीं। मीडिया के विभिन्न माध्यमों को सरकार की ओर से ऐसे विज्ञापन दिए जाते हैं जिनका असली मकसद सरकारी योजनाओं व कार्यक्रमों को जनता तक पहुंचाना है, परंतु सरकारों का अब असली मकसद इन अपनी कल्याणकारी नीतियों को जनता तक पहुंचाना नहीं बल्कि अपनी पार्टी और अपने पार्टी नेताओं का महिमामंडन करना होता है। ये पैसा जनता से टैक्स लगाकर जुटाया जाता है।
जिस देश में 19 करोड़ लोग कुपोषण का शिकार हों, जिन्हें दो वक्त की रोटी मिलना भी मुश्किल हो, वहां विज्ञापनों पर इस तरह जनता के पैसे को बहाना कहां तक उचित है? यह प्रवृत्ति केंद्र सरकार तक ही सीमित नहीं है, बल्कि राज्य सरकारें भी वही हथकंडे अपनाती हैं राज्यों में। सतारूढ़ पार्टियों द्वारा चलाई जा रही योजनाएं जनता तक पहुंचें न पहुंचें, उनकी पार्टी और नेताओं को पब्लिसिटी जरूर मिलनी चाहिए।
लुभावने सपनों की दुनिया
लुभावने सपनों की दुनिया की तरह सैकड़ों योजनाओं की पुंगी बज रही है, मगर फायदा आबादी के लगभग 30-45 प्रतिशत ही उठा पाते हैं। निरक्षरता और अशिक्षा की वजह से राज्यभर के लोगों को यह तक ही नहीं मालूम है कि कितनी योजनाएं गरीबों के हित में कार्यान्वित की जा रही हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है कि गुणात्मक विधि से बढ़ी आबादी के कारण सारे गणित कागजों पर ही हो रहे हैं और धरातलीय स्थिति में आंकड़ों के घोड़े दौड़ रहे हैं।
हम 21वीं सदी में चल रहे हैं, मगर जनता है कि मानती नहीं और अपना ही रोना रोती रहती है कि महंगाई बढ़ गई है। कुपोषण बढ़ रहा है, आदि-इत्यादि, वगैरह-वगैरह। इस लोकतंत्र के जनता के प्रतिनिधि जनता के लिए कितनी योजनाएं ला रहे हैं और क्रियान्वित की जा रही हैं, भले ही उसमें लागत से 10 गुना अधिक प्रचार-प्रसार में जनता का टैक्सरूपी पैसा खप जाए।