देश की राजधानी दिल्ली, अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प के आगमन के समय से ही दंगों की आग में दहक रही है, लेकिन यह आग अचानक ही नहीं फूटी है।
इसके पीछे जहां समूचा विपक्ष जो नरेंद्र मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल तक मुद्दों के लिए दर-दर भटक रहा था, उसे नागरिकता संशोधन कानून के लागू होने के साथ ही सत्ता प्राप्ति की संजीवनी मिल गई।
कांग्रेस सहित समूचे विपक्षी दल इस मौके को भुनाने में अपनी तरफ से "करो या मरो" के साथ देश के जनमानस को गुमराह करने में लग गए।
विपक्षी दलों और उनके शीर्षस्थ नेताओं ने संसद सहित बकायदे देशभर में सीएए के विरुद्ध भ्रांति फैलाने के लिए हजारों कार्यक्रम आयोजित कर अपने मंसूबों को सफल बनाने के लिए दिन रात एक कर दिए।
जेएनयू, एएमएयू, जामिया मिल्लिया इस्लामिया सहित अन्य यूनिवर्सिटियों में सीएए भविष्य की संभावित एनारसी के विरुद्ध हुए खूनी संघर्ष के साथ ही देश विरोधी सुरों को समूचे विपक्ष ने पर्याप्त सहानुभूति दी और उनके सुर के साथ सुर मिलाने का कार्य किया।
दिल्ली विधानसभा चुनाव के साथ राजनैतिक संरक्षण में शाहीन बाग में जमघट जोड़कर शांति प्रदर्शन के नाम पर अराजकता और संविधान के मूल्यों की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जाती रही आई जिसमें वोटबैंक को साधने का हथकंडा छिपा हुआ था।
सीएए के विरुद्ध हो रहे प्रदर्शनों में खुले मंच से सरकार को चुनौती दी जाती रही तो कभी देश के टुकड़े करने की बात कर रहे थे तथाकथित शांति प्रिय प्रदर्शनकारी लेकिन इन पर कोई लगाम नहीं लगाई जा सकी।
असल में इन मंचों से देश की संसद, न्यायपालिका और धारा -370, राममंदिर के निर्णय सबके विरुद्ध आग उगली गई और सीधे सरकार से युध्द करने की धमकियां दी जाती रहीं।
सरकार और प्रशासन ने इस पर कठोर एक्शन लेने की बजाय लगातार इनकी अनदेखी क्यों करती गई?
इस भीड़ का सीएए के विरुद्ध प्रदर्शन तो एक बहाना था असली दर्द इनका इस बात का था कि आखिर सरकार काश्मीर से धारा-370 का खात्मा क्यों किया?
सुप्रीम कोर्ट ने राममंदिर के पक्ष में फैसला क्यों सुनाया और बात इतने तक ही नहीं थमी विरोध इस बात का भी था कि सरकार तीन तलाक के विरुद्ध कानून बनाकर उनकी शरीयत के विरुद्ध शासन कैसे चला सकती है?
दिल्ली चुनाव के बाद जहां जाफराबाद में शाहीन बाग की तर्ज पर रास्ता बन्द कर सरकार के विरुद्ध बिगुल फूंक दिया गया और यह साबित करने का प्रयास किया गया कि हम भीड़ बनाकर किसी भी रास्ते को कैद कर सकते हैं कोई हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता?
तब भी केन्द्र एवं दिल्ली सरकार क्यों खामोश थी?
हमारे देश का विपक्ष तो है ही आग में घी डालने के लिए क्यों विपक्ष ने तो इसी दिन के लिए ही सारी भूमिका रची थी कि भीड़ आक्रामक होकर सीधे रक्तपात पर उतर आए।
हुआ भी ठीक ऐसा ही, भीड़ का जत्था का जत्था पुलिस पर पत्थरबाजी, दुकानों, वाहनों को आग के हवाले करने में उतर आया।
हजारों वाहन और दुकानें सरेआम फूंक दी गई लोगों के घरों में पत्थरबाजी और मारकाट करने लग गई।
पुलिस के जवान रतनलाल को गोलियों से भून दिया गया तो किसी आईपीएस के ऊपर तेजाब उड़ेल दी गई।
रक्तपात करने का साहस इस भीड़ में कहां से आ गया?
यह सब सोची समझी साजिश है जिसे नकाब ओढ़कर अंजाम देने का कार्य किया गया। यह खूनी देश के नागरिक तो कतई नहीं हो सकते, ये गद्दार खूनी आतंकी हैं जिन्हें मौका पाते ही हर हाल में इस देश को जलाना है।
लेकिन सरकार से पूंछिए कि सरकार क्या कर रही थी? इतने बड़े खुफियातंत्र और पुलिस बल, सशस्त्र सेना बलों के रहते हुए भीड़ सीधे हिंसा पर उतर आती है और सरकार को कानों कान खबर क्यों नहीं लगती है?
केन्द्र राज्य संबधों के आड़े आने पर न्यायपालिका क्या कर रही होती है?
इतना सब होते हुए भी न्यायपालिका वार्ताकार की नियुक्ति के लिए आदेश थमाती है, लेकिन भीड़ के ऊपर कार्रवाई करने का आदेश क्यों नहीं देती?
सुरक्षा व्यवस्था के भारी भरकम इंतजाम किस लिए होते हैं?
क्या इसी दिन के इंतजार के लिए विपक्षी दल और उनके नेता बैठे हुए थे कि कब मारकाट का खुला खेल खेला जाए और उस पर भी ये सेक्यूलरी तमाशेबाजी करें?
आईबी के अंकित शर्मा की संगठित तरीके से हत्या कर दी जाती है और नाले पर लाश को फेंक दिया जाता है।
किसी के सर में ड्रिल मशीन चला दी जाती है तो पुलिस वालों पर पत्थर बाजी और गैर मुस्लिमों पर पेट्रोल बम से हमले किए जाते हैं और उनको देखते ही यह भीड़ सीधे ही हत्या करने पर उतर जाती है।
सरकार की यह लाचारी किस लिए? जो जानें चली गईं उन्हें कौन लौटाएगा?
किसी का सिंदूर तो किसी की राखी ,तो किसी की कोख उजाड़ी गई है। इस नरसंहार को रोकने में सरकार विफल क्यों हुई?इतना धैर्य भी कायरता की निशानी होता है।
दंगाइयों को सीधे गोली मारने के आदेश यदि पहले ही दे दिए गए होते तो क्या यह दिन देखना पड़ता?
इन दंगों और हत्याओं के पीछे देश में छिपे हुए गद्दार तो हैं ही साथ ही विदेशी संदिग्धता को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता है। अब ऐसे में सरकार को चाहिए कि सारे खुफियातंत्र और सुरक्षा बलों की पैनी निगाहों से एक भी दंगाई न बचने पाए।
इस सबके पीछे जितने भी दोषी हैं, सबको कठोर से कठोर दण्ड दिया जाए। दिल्ली हो या देश का कोई भी हिस्सा जहां भी इस तरह की भीड़ इकठ्ठा हो उन सबके ऊपर कार्रवाई करें।
लानत है देश के ऐसे राजनैतिक विपक्ष पर जो सत्ता स्वार्थ में इतना मदान्ध हो चुका है कि वह देश में भ्रामकता फैलाकर अंशाति के माध्यम से अपनी खोई हुई राजनैतिक जमीन को तलाश रहा है।
सरकार अपनी लाचारी और बेबसी छोड़कर इन हत्याओं और दंगों के पीछे होने वाले एक-एक दंगाई को जब तक ठिकाने नहीं लगाती है, तब तक चुपचाप न बैठे।
क्योंकि सरकार का यही कर्त्तव्य है कि जब बात देश की अस्मिता और अखण्डता पर आए तब कठोर नीति अपनाने की आवश्यकता होती है।
सत्ता पर बैठे हुए हुक्मरानों, इस देश के जनमानस को अब यह विश्वास दिलाइए कि हम किसी भी भीड़ से आपको सुरक्षित बचाकर रखेंगे और देशद्रोहियों का विनाश करेंगे!!