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इतनी बड़ी चुनौतियों के भंवर में क्या करेंगी प्रियंका

इतनी बड़ी चुनौतियों के भंवर में क्या करेंगी प्रियंका - Congress prospects after Priyanka Vadra entry
प्रियंका वाड्रा के प्रत्यक्ष राजनीति में लाए जाने के साथ कई गंभीर प्रश्न देश के सामने खड़े हुए हैं। जब राहुल गांधी ने उनके महासचिव बनाए जाने की घोषणा की तो वो अपनी पुत्री के इलाज के लिए लंदन में हैं। वो यहां होती तो हमें उनकी प्रतिक्रिया भी सुनने को मिलती। 2019 का आम चुनाव कांग्रेस के लिए करो-मरो का प्रश्न है। इसमें वह अपने शस्त्रागार में मौजूद सारे शस्त्र आजमाएगी और यह अस्वाभाविक नहीं है। 
 
प्रियंका वाड्रा नामक अस्त्र को कांग्रेस ने बचाकर रखा था। हालांकि इसका उपयोग कहां और कब करना है इसकी कोई स्पष्ट कल्पना किसी के मन में रही हो यह भी सच नहीं है। वैसे भी इसका फैसला सोनिया गांधी और उसके बाद राहुल गांधी को ही करना था। जिस तरह राहुल ने इस फैसले को गोपनीय रखा तथा अमेठी में जाकर घोषणा की उसका अर्थ यही है कि वो रणनीति के तहत एक विशेष संदेश देना चाहते थे। 
 
हालांकि राहुल गांधी के 2004 के आम चुनाव में उतरने के समय कांग्रेस के अंदर जैसा उत्सव मनाया गया था, या 2007 में उनके महासचिव तथा पिछले वर्ष अध्यक्ष बनाए जाने पर जो कांग्रेस में माहौल था वैसा प्रियंका के समय नहीं दिखा। कुछ जगहों पर अवश्य खुशियां मनाई गईं, पर इसमें आकर्षण और सहजता का अभाव था। ऐसा क्यों हुआ? कांग्रेस नहीं चाहती कि प्रियंका को लेकर ऐसा माहौल निर्मित हो जिससे राहुल गांधी की आभा फिकी पड़ जाए। राहुल गांधी कांग्रेस के चेहरा बन गए हैं तो उनको सबसे ऊपर रखना रणनीति के लिहाज से आवश्यक है। इसलिए प्रियंका के आगमन को बड़ा उत्सव नहीं बनने दिया गया।

 
यह एक ऐसा पहलू है जिसका असर लंबे समय तक रहेगा। पार्टी के नेता राहुल गांधी होंगे और प्रियंका की भूमिका फिलहाल सहयोगी तक ही सीमित रखी जाएगी। कोई यह अनुमान नहीं लगा सकता था कि महासचिव बनाने के बावजूद प्रियंका को उत्तर प्रदेश के एक भाग की जिम्मेवारी दी जाएगी। वैसे इससे यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि प्रियंका की अखिल भारतीय भूमिका होगी ही नहीं। पार्टियों में नेताओं को किसी एक प्रांत या उसके भाग का प्रभारी बनाया जाता है, पर पद के अनुरूप उनकी शेष भूमिकाएं कायम रहतीं हैं। इसलिए प्रियंका की भूमिका राहुल गांधी के सहयोगी के रूप में हर स्तर पर होगी। किंतु लोकसभा चुनाव से लेकर आगामी विधानसभा चुनाव तक शायद उनके जिम्मे उत्तर प्रदेश ही होगा। 
 
चूंकि उत्तर प्रदेश सबसे ज्यादा सांसद देता है, इसलिए कांग्रेस का अपने तुरूप के पत्ते को वहां केन्द्रित करना स्वाभाविक है। कांग्रेस को अगर आगामी सरकार का प्रभावी अंग बनना है तो उसे पिछले लोकसभा चुनाव के अंकगणित को इतिहास का अध्याय बनाकर नई इबारत लिखनी होगी। इस समय उसके पास 19 प्रतिशत मत है। कांग्रेस मतों के पायदान पर इतने नीचे कभी नहीं थी। राष्ट्रीय स्तर पर वह अपने मतों में 7-8 प्रतिशत की वृद्धि नहीं करती तो सत्ता का अंग बनना सपना ही रह जाएगा। कांग्रेस के लिए राष्ट्रीय स्तर का चुनावी अंकगणित बदलने की संभावना जिन कुछ प्रदेशों में बाधित है उत्तर प्रदेश उसमें सबसे ऊपर है।
 
उसे वहां भाजपा की संख्या को नीचे लाने तथा स्वयं ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने की कोशिश करनी होगी। तो एक ओर प्रियंका एवं दूसरी ओर ज्योतिरादित्य सिंधिया को लगा दिया गया है। पूर्वी उत्तर प्रदेश का विस्तार कांग्रेस बलिया से लखनऊ तक करती है। इस तरह प्रियंका के जिम्मे 42-43 सीटें होंगी। 2009 में कांग्रेस द्वारा जीतीं गईं 21 सीटों में 15 इसी क्षेत्र से थी। इसलिए कांग्रेस उस क्षेत्र पर फोकस करे यह बिल्कुल सही रणनीति है। 
वैसे भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, दोनों उपमुख्यमंत्रियों केशव प्रसाद मौर्या एवं दिनेश मिश्र, प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र पांडे, भाजपा किसान मोर्चा के अध्यक्ष वीरेंद्र सिंह, वजनदार केंद्रीय मंत्री मनोज सिन्हा... जैसे नेता उसी क्षेत्र से हैं। इन चेहरों का सामना करने के लिए कांग्रेस के पास दूसरा व्यक्तिव है भी नहीं। इसमें प्रियंका वाड्रा कांग्रेस की नजर में उपयुक्त लग सकती है।

 
यह अलग बात है कि पार्टी की चाहत और जमीनी यथार्थ में कई बार काफी अंतर रहता है। 2009 में जब कांग्रेस की झोली में 206 सीटें आईं थी, उसके खाते में 28.56 प्रतिशत मत थे। 2004 में भी 145 सीटें उसे मिलीं थी तो उसका आधार 26.53 प्रतिशत मत था। 1999 में कांग्रेस ने जब 114 सीटें जीतीं तब भी उसे 28.3 प्रतिशत मत मिला था। अगर उसे 2014 की 44 एवं वर्तमान की 48 से 150 तक भी जाना है तो मतों में भारी छलांग चाहिए।
 
जहां तक उत्तर प्रदेश का प्रश्न है तो पिछले लोकसभा चुनाव में उसे केवल 7.53 प्रतिशत मत मिला था और 2017 विधानसभा चुनाव में 6.2 प्रतिशत। हाल के चुनावों में कांग्रेस का सबसे बढ़िया प्रदर्शन 2009 में हुआ जब उसने 21 सीटें जीतीं। तब उसे मिले थे, 18.25 प्रतिशत मत। 2004 में उसे 12.04 प्रतिशत मत और 9 सीटें मिलीं थीं। 1999 में उसने 14.72 प्रतिशत मत पाकर 10 सीटें जीतीं थीं। यह सोचिए, 10 सीटों के लिए आपको 14.72 प्रतिशत मत चाहिए था। ये अंकगणित सामने लाना इसलिए आवश्यक है ताकि प्रियंका के आने से अतिउत्साह में पड़े कांग्रेस समर्थकों के सामने वास्तविक तस्वीर और उतुंग चुनौतियों का आईना आ जाए। मतों के पायदान पर इतनी बड़ी छलांग प्रबल मोदी विरोधी तथा कांग्रेस के अनुकूल लहर में ही संभव है।

 
निष्पक्षता से आकलन करने वाला कोई भी व्यक्ति नहीं कह सकता कि ऐसी लहर इस समय है। ये सारे परिणाम तबके हैं जब बसपा और सपा अलग-अलग थे। अगर वो एक साथ होते तो पता नहीं कांग्रेस कहां होती। दो लोकसभा उपचुनावों में कांग्रेस की जमानत जब्त हो गई। प्रियंका गांधी वहां क्या कर सकतीं हैं? प्रियंका को हमने अभी तक अपनी मां एवं भाई के क्षेत्र रायबरेली और अमेठी संभालते देखा है। वहां चुनाव प्रबंधन से लेकर प्रचार अभियान, बीच में जनसंपर्क आदि उनके जिम्मे रहा है। वहां से हमने उनको छोटी-छोटी सभाओं में भाषण करते सुना है। हिन्दी का प्रवाह उनका बेहतर है। इसी तरह हमने उनकी रोड शो भी देखें हैं। सच यही है कि उनके अंदर कोई विशेष राजनीतिक क्षमता है इसका प्रमाण अभी तक नहीं मिला है। 
 
यह कल्पना कि उनमें इंदिरा गांधी की छवि दिखती है जिसका मतदाताओं पर चमत्कारिक असर होगा व्यावहारिक धरातल पर नहीं ठहरता। 1984 में इंदिरा जी की हत्या हो गई। 45-46 उम्र वालों को तो उनकी याद भी नहीं होगी। हां, जो कांग्रेस के परंपरागत उम्रदराज समर्थक रहे हैं वे शायद कुछ क्षण के लिए भावना में आ जाएं, पर उनकी संख्या कितनी होगी। 
 
कहने का तात्पर्य यह कि प्रियंका गांधी भले कांग्रेस की नजर में सुरक्षित मारक अस्त्र हो, पर समय के अनुरूप चुनावी अंकगणित के उतुंग लक्ष्य को इससे वेध पाना दूर की कौड़ी लगती है। बड़ी सफलता नहीं मिलने के बाद बंद मुट्ठी लाख की खुल गई तो खाक की जैसी कहावतों से उनका उपहास भी उड़ाया जाएगा। जैसी संभावना है अगर प्रियंका सोनिया गांधी के क्षेत्र रायबरेली से लड़तीं हैं तो इसका असर आसपास के क्षेत्रों में होगा। उसमें अगर ब्राह्मण सहित अगड़ी जातियों के थोड़े मतदाता आकर्षित होंगे तो मुस्लिम भी। इस तरह वो दोनों पक्षों को क्षति पहुंचाएंगी। कांग्रेस का कुछ मत प्रतिशत बढ़ जाए लेकिन इस समय 2019 में 2009 की पुनरावृत्ति उत्तर प्रदेश में नहीं दिखती। 
 
राहुल कह रहे हैं कि हम सपा-बसपा के खिलाफ नहीं बोलेंगे, हमें भाजपा को हराना है। अगर आप उनके खिलाफ बोलेंगे नहीं तो आपको मतदाता मत किस आधार पर देगा? ऐसा बोलकर राहुल ने प्रियंका के लिए खुलकर काम करने के रास्ते बंधन भी बांध दिया है। इस बंधन को तोड़े बगैर कांग्रेस थोड़ा भी बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद नहीं कर सकती। वस्तुतः प्रियंका की आभा और क्षमता का आकलन तभी हो सकता है जब उत्तर प्रदेश ही नहीं देशभर में उनको स्वतंत्र रूप से काम करने दिया जाए। अभी तक तो उनको सीमा में बांधे रखने का संकेत है ताकि राहुल गांधी के एकल नेतृत्व पर मनौवैज्ञानिक खरोंच तक न आए।
 
वैसे भी प्रियंका के आने पर रॉबर्ट बाड्रा का मुद्दा चुनाव में बनना है। दूसरे, उनको सामने लाने से यह संदेश तो गया ही है कि कांग्रेस एक परिवार में ही नेतृत्व तलाशने तथा संकट से उबरने के लिए उसके समक्ष त्राहिमाम करने की कातरता से आगामी अनेक वर्षों तक नहीं निकल पाएगी। यह भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिए चिंताजनक स्थिति है। चूंकि ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियां परिवार नेतृत्व के साये में है, जो नहीं हैं उनके अंदर भी वंश पहचान के अनुसार टिकट और जिम्मेवारी मिल रही है, इसलिए यह बड़ा चुनावी मुद्दा नहीं बनता, किंतु जिन्हें दलीय प्रणाली पर आधारित अपने संसदीय लोकतंत्र को वास्तविक लोकतंत्र बनाने की चिंता है वैसे लोगों के लिए यह बहुत बड़ा प्रश्न है।
 
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