मप्र में शायद ही किसी को याद हो कि विधान सभा के थोक में इतने चुनाव कभी हुए हों? उससे भी ज्यादा अहम यह कि दलबदल कानून के लागू होने के बाद सत्ताधारी दल के विधायकों ने ऐसे थोक में इस्तीफे दिए हों।
यूं तो पिछले 16 वर्षों में जहां कुल 30 सीटों पर उपचुनाव हुए वहीं 3 नवंबर 2020 को एक साथ 28 सीटों पर हुए चुनावों ने न केवल प्रदेश को देश में सुर्खियां दिला दी बल्कि राजनैतिक उथल-पुथल के लिहाज से सत्ता का जो मोहपाश मप्र में दिखा, उसने भी कई अबूझ सवाल तो खड़े कर ही दिए। हां यह भी सही है कि लोग इस पर खुलकर बात नहीं करते हैं। वजह चाहे राजनीतिक या दूसरी लेकिन 21 वीं सदी में हमारे मजबूत लोकतंत्र के सामने सत्ता का ऐसा रास्ता थोड़ा सोचने पर विवश तो करता है।
राजनीतिक पंडितों की नजर सबसे ज्यादा मप्र के उपचुनावों पर है क्योंकि सत्ता की सीढ़ी का नया रास्ता निकालने की तकरीब देश ने मप्र में जो देखी वह एकदम अलग रही।
हालांकि मप्र विरला राज्य नहीं है जहां जनादेश के बाद आंकडों के झोल में सरकार बदल गई हो। कई उदाहरण हैं जिसमें सत्ता में पहुंच कोई और रहा था लेकिन बैठ कोई और गया। निश्चित रूप से लोकतंत्र की खूबी में यही सवाल कचोट उठता है? सच है कि लोकतंत्र की खूबसूरती बहुमत से ही झलकती है। बहुमत जनमत से बनता है और जनमत एक जैसी बनी व्यक्तिगत राय है जो मतदान से किसी प्रत्याशी, दल या नेतृत्व प्रदान करने वालों को मिले सबसे ज्यादा मतों का वह आंकड़ा होता है जिससे हमारे माननीय बनते हैं।
विजेता माननीयों के दल, अनुपात या गठबन्धन से सरकारें बनती हैं। अक्सर सत्ता में पहुंचने के अवसरों के लिए बने ऐसे गठबन्धन ही कई बार लोकतंत्र पर सवाल उठाते नजर आते हैं। मप्र मे भी कुछ ऐसा ही आंकड़ों का खेल हुआ था। दिसंबर 2018 में कांग्रेस के सत्तासीन होते ही अंर्तकलह के दौर के साथ तमाम अटकलों और सौदेबाजियों की चर्चाएं चलती रहीं। कशमकश और तमाम झंझावातों के बीच कुल 15 महीने ही कमलनाथ सरकार चल पाई। 23 मार्च 2020 को चौथी बार आंकड़ों के अंकगणित में बाजी मार शिवराज सिंह सत्ता में लौट आए। कांग्रेस के मजबूत स्तंभ ज्योतिरादित्य सिंधिया और 25 कांग्रेस विधायक इस्तीफा देकर भाजपा में चले गए। इस बीच 3 का निधन हो गया। इस तरह पहली बार 28 विधानसभा सीटें खाली हुईं जिनमें 3 नवंबर को उपचुनाव हुए।
मप्र में 230 सीटें हैं, हाल ही में एक और कांग्रेसी विधायक के इस्तीफे के बाद संख्या 229 रह गई। जिन 28 सीटों पर उपचुनाव के नतीजों का इंतजार है उनमें 27 पर 2018 में कांग्रेस जीती थी। वर्तमान सदन में भाजपा के 107 विधायक हैं जबकि भाजपा को बहुमत के आंकड़े के लिए 115 सीटों की आवश्यक्ता है यानी महज 8 सीटें और चाहिये।
वहीं इस साल मार्च में 25 कांग्रेसी विधायकों के इस्तीफा देने और भाजपा में शामिल होने के बाद सदन में कांग्रेस की संख्या घटकर 87 रह गयी है। जबकि सदन में 4 निर्दलीय, 2 बसपा और 1 सपा विधायक हैं। 25 विधायकों के इस्तीफे और 3 के निधन के कारण 28 सीटों पर उपचुनाव जरूरी हो गए थे। 10 नवंबर यानी कुछ घण्टों बाद नतीजे सामने होंगे।
इन उपचुनावों में प्रदेश में कुल 69.93 प्रतिशत मतदान हुआ जो 2018 विधानसभा चुनाव में इन सीटों पर हुए औसत मतदान की तुलना में 3 प्रतिशत कम है। यदि चुनाव के बाद सामने आए तमाम अनुमानों और तमाम विश्लेषणों पर गौर करें तो भाजपा के लिए राह कठिन नहीं लगती है।
सवाल भाजपा की जीत का नहीं है बल्कि यह कि क्या भाजपा में आए ज्योतिरादित्य सिंधिया की धाक और साख जस की तस रह पाएगी? हालांकि यह केवल चुनावी विश्लेषण और अनुमान ही हैं जिन्हें अंतिम नहीं मानना चाहिए। लेकिन राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि मप्र में इतनी सीटों पर हुए उपचुनावों के असल किरदार ज्योतिरादित्य ही हैं और जिन्हें लेकर भाजपा कार्यकर्ताओं में एक अघोषित असमंजस जरूर था। जाहिर है दूसरे दलों से जीतकर आए फिर इस्तीफा दिलाकर भाजपा की टिकट पर चुनाव में उतरे उन्हीं प्रत्याशियों को लेकर यह प्रयोग ही कहा जाएगा जो बेहद जोखिम भरा था।
इसी का फायदा या नुकसान सिंधिया की भाजपा में अंर्तमन से स्वीकार्यता के लिए निश्चित रूप से अहम होगा। यह तो मानना पड़ेगा कि अपने कुनबे को बचा पाने की नाकामीं से कलह के बाद कांग्रेस के हाथ से सत्ता निकल गई। लेकिन इससे कांग्रेस ने कितना सबक सीखा यह मंगलवार के नतीजों के बाद फिर पूछा जाएगा। फिलाहाल दावों का दौर है जो कई तरह के हो रहे हैं।
इतना जरूर है कि मप्र में ये उपचुनाव जरूर एक नई इबारत लिखेंगे। हो सकता है कि भविष्य में इसे सत्ता की चाबी का मप्र फॉर्मूला भी कहा जाए।
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