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Written By Author डॉ. आशीष जैन

पॉलिथीन में लिपटी मृतप्राय व्यवस्था

पॉलिथीन में लिपटी मृतप्राय व्यवस्था - Plastic me lipti mritpray vyavastha
कुछ दिनों पूर्व एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई जिसमें 22 सप्ताह के 2 अपरिपक्व भ्रूणों को जन्म के पश्चात असंवेदनशीलता से पॉलिथीन में लपेटकर परिजनों को सौंपा गया। अत्यंत मार्मिक तथा अतिवेदना से पूर्ण दृश्य! जिसे प्रसारित कर टीवी चैनलों ने बहुत सहानुभूति बटोरी। यह हृदय-विदारक दृश्य जनमानस के मन में चिकित्सकों के विरुद्ध पूर्व से ही व्याप्त पूर्वाग्रह को उकसाने के लिए पर्याप्त था।
 
 
जिस समाज से विश्वास, सहिष्णुता, सौहार्द, समझ दिन-प्रतिदिन सूखते जा रहे हैं, वहाँ कोई कारण नहीं बनता कि मात्र चिकित्सकों के ऊपर ही जनता विश्वास करे। नि:संदेह इन परिस्थितियों के लिए चिकित्सक समाज स्वयं भी जिम्मेदार है। ताली एक हाथ से तो नहीं बजती। घटती संवेदना, बढ़ते लालच, व्यावसायिक असुरक्षा, चिकित्सा महाविद्यालयों के गिरते स्तर ने इस स्थिति को जन्म दिया है।
 
 
यह भी सच है कि केवल चिकित्सकों के चाहने मात्र से भी परिस्थिति नहीं सुधरने वाली। सिर्फ चिकित्सक वर्ग से उम्मीद करना भी अतिशयोक्ति है। हाल ही की घटना को देखें, इन अपरिपक्व भ्रूण के जन्मोपरांत संबंधी कानून ही नहीं है और न ही किसी स्वास्थ्य संगठन द्वारा कोई दिशा-निर्देश दिए गए हैं। इस अवस्था में उपस्थित चिकित्सकों और कर्मचारियों द्वारा अपने विवेक से जो बना, वो किया। वह सही था या नहीं, उस पर विवाद हो सकता है और होना भी चाहिए जिससे कि आने वाले समय में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकी जा सके। सरकार, संगठन, विशेषज्ञ, मीडिया और जनप्रतिनिधि इस पर संवाद करें और सुझाव दें।
 
 
नब्बे के दशक तक भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था पर सरकार और सामाजिक अस्पतालों का ही आधिपत्य था, पर इस क्षेत्र में निरंतर बढ़ती आवश्यकताओं को पूरी करने में यह असफल थी। साथ ही उदारीकरण के पश्चात बढ़ी हुई आय व बढ़ते स्वास्थ्य बीमा के दायरे ने एक नई व्यवस्था को जन्म दिया- छोटे-बड़े नर्सिंग होम। उनकी सफलताओं को देखते हुए अब बड़े उद्योगपति भी इस क्षेत्र मे निवेश कर रहे हैं।
 
 
इसका सीधा-सीधा लाभ यह है कि आम जनता तक सुलभता से उच्चस्तरीय इलाज देश में ही संभव हुआ, जो दो दशक पूर्व मात्र धनाढ्यों एवं रसूखदारों के लिए ही संभव था, जो विदेश में जाकर इलाज करवाने का माद्दा रखते थे। पर इनके विस्तार के साथ सरकार इन पर अंकुश रखने में उतनी ही असफल हुई जितनी कि शासकीय स्वास्थ्य सेवाओं का स्तर सुधारने में।
 
 
आज ये निजी अस्पताल भारत के हर छोटे-बड़े शहरों में अपनी सुविधाएं दे रहे हैं। ये समाज की स्वास्थ्य-व्यवस्था की रीढ़ हैं। जो कार्य सरकार करने में असफल रही, उस रिक्तता को ये पूर्ण कर रहे हैं। निजी अस्पताल अनुचित लाभ कमा रहे हैं, यह कदाचित पूर्णत: गलत तो नहीं, पर मात्र यही मान लेना अनुचित है, क्योंकि ये निजी अस्पताल समाज की स्वास्थ्य आवश्यकताओं की मांग और पूर्ति की खाई को पाटने का अहम कार्य कर रहे हैं।
 
 
विचार कीजिए, यदि आज छोटे-बड़े निजी नर्सिंग होम अथवा अस्पताल न हों तो क्या सरकारी चिकित्सा व्यवस्था इस देश की जनसंख्या के स्वास्थ्य की जवाबदारी लेने में सक्षम हैं? और यदि सरकारी-तंत्र सक्षम होता तो क्यूं ये अस्पताल खड़े होते? इन पर अकारण ही आक्षेप लगाकर जनता स्वयं के पाँव पर कुल्हाड़ी मार रही है और सरकार स्वयं को जनता का हितैषी घोषित कर इन पर मनमानी कर रही है ताकि उसकी नाकामी छुपी रहे। निजी व्यवस्था पर उतना ही अंकुश लगाना चाहिए जिससे कि निवेशकों को भी नुकसान न हो और जनता का भी। और इसमें आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है, न कि अदूरदर्शी लोक-लुभावने स्वयं को रॉबिनहुड दर्शाने वाले तुगलकी नियमों की।
 
 
रोगी और चिकित्सकों का संबंध अत्यंत ही मृदु होता है। इसे न टूटने देना ही समाज के स्वास्थ्य के लिए हितकर है। नेता राजनीति करते रहेंगे, पर यदि इससे इन संबंधों में खटास होती है तो दोनों की ही हानि होगी। अगर विश्वासहीनता का माहौल बढ़ता गया तो चिकित्सक, रोगियों के विषय में कठोर निर्णय लेने से कतराएँगे जिससे कि इलाज और भी महंगा हो जाएगा और इलाज के परिणाम भी कमतर होंगे। नीति-निर्धारकों से अपेक्षित है कि वे इस तंत्र को जनता के लिए सुलभ और उपयोगी बनाते हुए चिकित्सकों के हित का भी ध्यान रखें।
 
 
वर्तमान में तो स्वास्थ्य व्यवस्था को मानो उन मृतप्राय: शिशु की भांति पॉलिथीन में लपेट दिया गया है और बस कुछ ही सांसें बाकी हैं। इसे तुरंत वेंटिलेटर की आवश्यकता है, जो जनता में विश्वास की साँसें फूँक सके।
 
॥इति॥
 
(लेखक मैक्स सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल, साकेत, नई दिल्ली में श्वास रोग विभाग में वरिष्ठ विशेषज्ञ हैं)
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