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Written By शैफाली शर्मा

सी-सॉ

दो दुनिया

सी-सॉ -
जीवन के रंगमंच से

ND
बहुत ताकत लगाना पड़ती है मुझे जब मुझे किसी पर गुस्सा करना होता है, या किसी से नफरत बनाए रखना होती है।

जो लोग मुझे मेरी तरह जीने नहीं देते या जो समाज मुझे अपने ढर्रे में ढालने के लिए मजबूर करता है उससे एक व्यक्तिगत लड़ाई लड़नी होती है, वो भी एकतरफा क्योंकि सामने वाले पाले में बहुत सारे लोग होते हैं और मेरे पाले में मैं अकेला। तो जो अकेला होता है वो लड़ता नहीं, बस गुस्सा कर सकता है या नफरत कर सकता है। कभी अभिमान तो कभी स्वाभिमान को बीच में लाकर अपने खून को उबालता रहता है। छोटी-छोटी तकरार को बड़ा बनाकर गम के अंधेरे में डूब जाता है। जीवन से अनगिनत शिकायतें हो जाती हैं। मौत के आगोश में सुकून तलाशने का मन करता है।

जीवन.............जीवन...........जीवन..............ये पहाड़-सा जीवन और मैं अकेली जान, सबसे अलग, सबसे तन्हा....................!!!!

जीवन.............जीवन...........जीवन..............कितना सुंदर जीवन किसी बच्चे की हँसी-सा खिलखिलाता जीवन, सुबह-सुबह, ओस की बूँदों में मुस्कुराता जीवन, यौवन के झूले में झूलता जीवन, नानी की कहानी में परियों-सा जीवन, प्रेम में डूबे पलों-सा जीवन, सपनों के पूरा होने पर खुशियों के आसमान में उड़ता जीवन।
  जो लोग मुझे मेरी तरह जीने नहीं देते या जो समाज मुझे अपने ढर्रे में ढालने के लिए मजबूर करता है उससे एक व्यक्तिगत लड़ाई लड़नी होती है, वो भी एकतरफा क्योंकि सामने वाले पाले में बहुत सारे लोग होते हैं और मेरे पाले में मैं अकेला।      


कितना आसान होता है प्यार करना। कोई ताकत नहीं लगाना पड़ती, दिमाग नहीं दौड़ाना पड़ता, बस किसी से आँखें मिलती हैं और मन आकर्षण पाश में बँध जाता है। दोपहर गुनगुनी हो जाती है, और शाम मदहोश। उम्रभर की खुशियाँ उन चन्द पलों में सिमट आती हैं। जीवन उस पल से आगे न बढ़े और मैं उन प्यार के पलों में डूब जाऊँ, इतनी गहराई में कि कोई समाज, कोई दुनिया मुझे देख न सके, जिसे जैसे जीना हो जिए और मैं अपने जीवन में मदहोश रहूँ...............

लेकिन.......मन दौड़ता है उसके पीछे जिसे जानता नहीं, जो कभी मिला नहीं जो एक तलाश बनकर आँखों में रहता है और सुकून बनकर उम्मीद में, हर तरफ आवारगी शोर मचाती है, जिज्ञासा तलब बन जाती है, हर वो व्यक्ति अपना-सा लगता है जिसमें उस तलाश की थोड़ी भी परछाई दिख जाए, और जब वह छोड़कर चला जाता है, तो पूरी दुनिया अपने साथ ले जाता है, सिवाय एक तलाश के.....कौन है वो.................कौन है वो............


मैं हूँ................सिर्फ मैं हर तरफ, हर जगह, हर जर्रे में, चिड़ियों की चहचहाहट में, खुले आसमान की बाँहों में, उस खिलती कली में, पतझड़ के पत्तों में, उस निराकार की कल्पना में, पत्थर की मूरत में, प्रेम में, आँसू में, वात्सल्य में, पीड़ा में, हर तरफ हर जगह........मैं....सिर्फ मैं.....


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दो दुनिया..........दो क्षितिज................ अपने ही भीतर भौतिक और आध्यात्मिक और बीच में एक सेतु..........................जीवन। सेतु भी कैसा, बच्चों के सी-सॉ जैसा, झूलता हुआ कभी इधर कभी उधर, जब हम भौतिकता की ओर भागते हैं तो सेतु उस ओर झुक जाता है और जब इस तरफ भीड़ बढ़ जाती है, वजन बढ़ जाता है तो घबरा जाते हैं, क्या भोग, संभोग और संभलने का नाम ही जीवन है? काश कोई ऐसा छोर मिल जाए जो देह से निकालकर आत्मा तक पहुँचाए.......और आत्मा से परमात्मा तक........दौड़ पड़ते हैं दूसरी ओर.....आध्यात्म की ओर।

और जब सारे प्रयास के बावजूद अपनी आत्मा में परमात्मा को नहीं ढूँढ पाते तो, घबरा जाते हैं, खुद से ही डर लगने लगता है, ऐसा लगता है कोई पहाड़ सिर पर उठा लिया, हलका हो जाने का मन करता है, तो दौड़ पड़ते है, फिर उस लौकिकता की ओर, उसी भौतिकता की ओर। और जब दोनों ही तरह से मन विचलित हो उठे तो, सब बीच में आकर खड़े हो जाते हैं। जब मन किया भौतिकता में रम गए, जब मन किया आध्यात्म में...............

हम सभी ये दो दुनिया जीते हैं, और कोई चारा भी नहीं, लेकिन जब भी एक दुनिया से दूसरी दुनिया में जाना होता है विचलित हो उठते हैं, एक से परेशान होकर दूसरे में जाते हैं।

काश ये सेतु एक सी-सॉ ना होकर एक फिसल पट्टी-सा होता, एक तरफ से सीढ़ी चढ़े, दूसरी तरफ से फिसलते हुए नीचे........नीचे आने में भी आनंद आया और वापस सीढ़ी चढ़ने का जोश भी बना रहा....................