क्या टीचरों के मुंह पर ताला लगा रही हैं ममता?
पश्चिम बंगाल में सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस सरकार अब एक नए कानून के जरिए विश्वविद्यालयों व कालेजों के शिक्षकों की अभिव्यक्ति की आजादी पर कथित रूप से अंकुश लगाने का प्रयास कर रही है। सरकार ने इस आरोप का खंडन किया है। नए कानून के कुछ प्रावधानों के विरोध में विभिन्न शिक्षक संगठन आंदोलन की राह पर हैं। बीते दिनों इन संगठनों ने विधानसभा अभियान आयोजित किया था। इसके अलावा महानगर में जगह-जगह इसके विरोध में प्रदर्शन हो चुके हैं।
नए नियम : राज्य सरकार ने हाल में पश्चिम बंगाल विश्वविद्यालय व कालेज (प्रशासन व नियमन) विधेयक, 2017 के लिए नए नियमों का जो प्रारूप तैयार किया है उस पर शिक्षा क्षेत्र में विवाद पैदा हो गया है। यह विधेयक बीते साल विधानसभा में पारित किया गया था। अब सरकार एक अधिसूचना के जरिए इसके कुछ प्रावधानों में बदलाव का प्रयास कर रही है। सरकार की ओर से बीते फरवरी में गठित एक सात-सदस्यों वाली समिति ने नए संशोधनों का सुझाव दिया है।
इसमें कहा गया है कि विश्वविद्यालय व कालेज का कोई भी शिक्षण या गैर-शिक्षण कर्मचारी वाइस-चांसलर की लिखित अनुमति के बिना संस्थान से संबंधित मुद्दों पर मीडिया या किसी बाहरी व्यक्ति से बात नहीं कर सकता। इसका उल्लंघन करने की स्थिति में अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी। लिखित अनुमति के बिना कोई भी कर्मचारी अपने नाम से मीडिया में ऐसा कोई बयान नहीं दे सकता जिसमें सरकारी नीतियों व फैसलों की आलोचना की गई हो या फिर उससे राज्य व केंद्र सरकार के रिश्तों पर खराब असर पड़ने का अंदेशा हो।
नए नियमों के तहत सरकार ने कालेज के कर्मचारियों का प्रोबेशन पीरियड मौजूदा एक साल से बढ़ा कर दो साल और विश्वविद्याल के मामले में तीन साल करने का प्रस्ताव रखा है। इसके अलावा इसमें पुलिस रिपोर्ट संतोषजनक नहीं होने की स्थिति में प्रबंधन को कर्मचारियों की सेवाएं खत्म करने का भी अधिकार होगा। सरकार ने कहा है कि अगर किसी शिक्षण या गैर-शिक्षण कर्मचारी पर अनुशासनात्मक कार्रवाई के तहत जुर्माना लगाया जाता है तो उसे सरकार की ओर से गठित तीन-सदस्यीय आयोग के समक्ष ही अपील करनी होगी और उसका फैसला अंतिम होगा।
विरोध : सरकार के नए नियमों का मसौदा सामने आते ही तमाम शिक्षक संगठन सड़कों पर उतर आए हैं। उनका आरोप है कि सरकार नए नियमों की आड़ में लोकतंत्र का गला घोंटने व अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाने का प्रयास कर रही है। हालांकि राज्य के शिक्षा मंत्री व तृणमूल कांग्रेस महासचिव पार्थ चटर्जी का दावा है कि नए मसौदे में ऐसा कुछ नहीं है जिसे अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश करार दिया जाए। लेकिन इससे शिक्षक संगठनों की आशंका कम नहीं हुई है।
जादवपुर विश्वविद्यालय टीचर्स एसोसिएशन (जूटा) की महासचिव प्रोफेसर नीलांजना गुप्ता कहती हैं, "विश्वविद्यालय में हर क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। नए नियमों को लागू करने की स्थिति में हम बजट लैंगिक समानता या पर्यावरण जैसे सार्वजनिक हित के मुद्दों पर भी अपना मुंह नहीं खोल सकते।" वह कहती हैं कि ऐसे मसौदे को सिरे से खारिज कर देना चाहिए।
जूटा व आल बंगाल यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन (एबूटा) ने मसौदे के कथित शिक्षक-विरोधी प्रावधानों के खिलाफ अलग-अलग आंदोलन का एलान किया है। जूटा इसके विरोध में 26 अप्रैल को विश्वविद्यालय परिसर में धरना व प्रदर्शन करेगा।
एबूटा के नेता गौतम माइती कहते हैं, "मसौदे के कुछ प्रावधान लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन के समान हैं। मसलन किसी भी मुद्दे पर टिप्पणी से पहले प्रबंधन की अनुमति लेने जैसे नियमों से संस्थानों के उदार शैक्षणिक माहौल पर बेहद प्रतिकूल असर होगा।" उक्त मसौदे में शिक्षकों की बायोमेट्रिक हाजिरी लगाने और हर साल 30 अप्रैल तक अपनी संपत्ति का ब्यौरा जमा करने का भी प्रावधान है।
फिलहाल उक्त मसौदे को मंजूरी के लिए राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी को भेजा गया है। दूसरी ओर, सरकार के भरोसे के बावजूद शिक्षक संगठनों ने अपना आंदोलन तेज करने का मन बना लिया है। इधर, सरकार भी अपने फैसले पर अड़ी हुई है। ऐसे में यह विवाद लंबा खिंचता नजर आ रहा है।
रिपोर्ट प्रभाकर, कोलकाता