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Last Modified: बुधवार, 19 सितम्बर 2018 (14:15 IST)

भारत में क्यों बढ़ रही हैं आरक्षण की आवाजें

भारत में क्यों बढ़ रही हैं आरक्षण की आवाजें | reservation
गुजरात में पटेल समुदाय, राजस्थान में गुर्जर समुदाय, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में जाट समुदाय, आंध्र प्रदेश का कापू समुदाय और देश भर में कई समुदाय आरक्षण पाने के लिए लाइन में खड़ी हैं।
 
 
गुजरात में पाटीदार समुदाय को आरक्षण दिलाने के लिए उपवास पर बैठे हार्दिक पटेल ने 18 दिन बाद अपना अनशन और उपवास तो तोड़ दिया लेकिन आरक्षण की उनकी मांग को मानना तो दूर, सरकार का कोई प्रतिनिधि हाल-चाल लेने भी नहीं पहुंचा। हालांकि इसकी वजह यह भी हो सकती है कि हार्दिक पटेल अकसर सरकार के खिलाफ आंदोलन करते रहे हैं लेकिन यह बात भी उतनी ही सही है कि जनहित जैसे मुद्दों पर यदि कोई मांग होगी, तो वो सरकार से ही की जाएगी, किसी और से नहीं।
 
 
पाटीदार समुदाय को आरक्षण दिलाने को लेकर हार्दिक पटेल पहले भी गुजरात में आंदोलन कर चुके हैं। हार्दिक पटेल का आंदोलन, आरक्षण को लेकर चल रहे उन्हीं आंदोलन की श्रृंखला की एक कड़ी है, जो बीते कई सालों से देश के अलग-अलग हिस्सों में चली आ रही है।
 
 
गुजरात में पटेल समुदाय, राजस्थान में गुर्जर समुदाय, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में जाट समुदाय, आंध्र प्रदेश का कापू समुदाय और देश भर में ऐसे ही न जाने कितने समुदाय और कितनी जातियां आरक्षण पाने के लिए लाइन में खड़ी हैं। इसके अलावा कई जातियां पिछड़े वर्ग से अनुसूचित वर्ग में और कथित तौर पर सवर्ण कही जाने वाली तमाम जातियां, अब आरक्षण के स्वरूप को ही बदलकर आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग कर रही हैं।
 
 
भारत में निजी क्षेत्र के इतने विकास के बावजूद आज भी सबसे ज्यादा रोजगार देने वाला क्षेत्र सरकारी क्षेत्र ही है, जहां करोड़ों लोग या तो सीधे तौर पर नौकरी कर रहे हैं या फिर किसी अन्य तरीके से वहां से रोजगार पाए हुए हैं। इसके अलावा सरकारी नौकरी अभी भी कई मायनों में निजी क्षेत्र की तुलना में बेहतर समझी जाती है, चाहे स्थायित्व की बात हो या फिर रिटायरमेंट के बाद मिलने वाली सुविधाओं का मुद्दा हो। ये अलग बात है कि पिछले करीब एक दशक से रिटायरमेंट के बाद पेंशन सुविधा खत्म कर दी गई है। बावजूद इसके, सरकारी नौकरी के प्रति लोगों का आकर्षण कायम है।
 
 
नई पेंशन योजना के तहत कर्मचारियों के वेतन और डीए की दस फीसदी धनराशि की कटौती की जा रही है और इतनी ही रकम सरकार की तरफ से अंशदान के रूप में कर्मचारी के पेंशन फंड में जमा की जा रही है। सेवानिवृत्ति के वक्त कर्मचारियों को इसमें से 60 फीसदी रकम ही वापस की जाएगी और बाकी की 40 फीसदी धनराशि पर मिलने वाले ब्याज को पेंशन के रूप में दिया जाएगा।
 
 
करोड़ों की बेरोजगार आबादी के लिए सरकारी नौकरियां न सिर्फ ऊंट के मुंह में जीरा जैसी ही हैं, बल्कि उदारीकरण के बाद से आबादी के अनुपात में इनकी संख्या में काफी कमी भी आई है। इसलिए हर कोई नौकरी पाने के लिए आरक्षण जैसे शॉर्ट-कट को पाने की कोशिश में लगा है। ये अलग बात है कि प्रतियोगिता, होड़ और हताशा आरक्षण पाने वाले समुदाय में भी है और अनारक्षित समुदाय में भी। हां, अंतर जरूर कम हो जाता है।
 
 
देश के कई राज्यों में आरक्षण को लेकर अलग अलग समुदायों की तरफ से मांग उठती रही है और हमेशा सरकारें या राजनीतिक दल इन मांगों को पूरा करने के नाम पर कुछ न कुछ वादे भी करते रहे हैं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक कोई भी राज्य 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण नहीं दे सकता। कुछ राज्यों, जैसे तमिलनाडु में आरक्षण की पचास प्रतिशत की सीमा को बढ़ाया भी गया है लेकिन ज्यादातर राज्यों में अभी इसी आधार पर आरक्षण का आवंटन किया गया है।
 
 
मौजूदा व्यवस्था के तहत देश में अनुसूचित जाति के लिए 15 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति के लिए 7।5 प्रतिशत और अन्य पिछड़े वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। आरक्षण आंदोलनों का सबसे गंभीर पहलू इनका हिंसक हो जाना है। चाहे वो मराठा आंदोलन हो, जाट आंदोलन हो या फिर गुर्जर आंदोलन।
 
 
आरक्षण को लेकर देश भर में जो विवाद हैं, वे मुख्य रूप से दो स्तरों पर हैं। एक ऐसा तबका है जो खुद को सामाजिक और शैक्षिक तौर पर पिछड़ा मानता है लेकिन उसे किसी तरह का आरक्षण नहीं मिला है। जाट, मराठा, पाटीदार, कापू जातियों के आंदोलन इसी श्रेणी में आते हैं।
 
 
दूसरा वर्ग वो है जो अभी तक पिछड़ा वर्ग में है लेकिन उसे लगता है कि उसकी सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक हैसियत उन वर्गों की तरह है, जिन्हें अनुसूचित जाति या जनजाति में शामिल किया गया है। यानी ये अपने से नीचे वर्ग में आने के लिए आंदोलन कर रहे हैं। इन्हें लगता है कि पिछड़े वर्ग के आरक्षण के तहत उन्हें इसका ज्यादा फायदा नहीं मिल पा रहा है। राजस्थान में गुर्जर, झारखंड में कुर्मी और उत्तर प्रदेश में कई पिछड़ी जातियों की यही मांग है।
 
 
पिछले कुछ समय से देश में वह वर्ग भी मुखर हुआ है, जो अब तक न तो किसी तरह का आरक्षण पा रहा था और न ही मौजूदा व्यवस्था में उसके पाने की उम्मीद है। यानी सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक रूप से जिसे अभी तक समृद्ध समझा जाता रहा है। सच्चाई यह है कि यह वर्ग सामाजिक रूप से भले ही कथित तौर पर उच्च वर्ग में आता हो लेकिन शैक्षिक और आर्थिक पिछड़ापन इस वर्ग में भी कमोवेश वैसा ही है जैसा कि आरक्षण पाने वालों में है। इन वर्गों की ओर से यह आवाज भी उठती रहती है कि जातिगत आरक्षण खत्म किया जाए और आर्थिक रूप से गरीबों को आरक्षण दिया जाए।
 
 
आरक्षण को लेकर पिछले कुछ समय से राजनैतिक सरगर्मी भी देखी जा रही है। भाजपा और कांग्रेस समेत कई विपक्षी नेता भी समय-समय पर आरक्षण को लेकर बयान देते रहे हैं। साथ ही आरक्षण खत्म करने को लेकर मोदी सरकार पर आरोप भी लगते रहे हैं। ये अलग बात है कि ऐसा न करने की खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार कसम खा चुके हैं।
 
 
आरक्षण को लेकर सवाल कई उठते हैं और उठते रहेंगे क्योंकि यह सीधे अलग-अलग सामाजिक वर्गों के सीधे फायदे से जुड़ा है और कुछ वर्गों को इसमें अपना नुकसान दिखता है। राजनीतिक दलों के अलावा प्रबुद्ध वर्ग भी इसे हवा देते रहते हैं। लेकिन जानकारों का कहना है कि अब समय आ चुका है जब इसकी व्यापक समीक्षा की जाए और पारंपरिक तौर पर चली आ रही इस व्यवस्था में संविधान संशोधन के जरिए व्यापक बदलाव किया जाए।
 
रिपोर्ट समीर मिश्रा
 
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