भारत में 18 से 19 वर्ष के नये वोटरों में से लगभग 60 फीसदी के नाम अब तक मतदाता सूची में शामिल नहीं हो सके हैं। अब तमाम वोटरों को सूचीबद्ध करने के लिए चुनाव आयोग ने फेसबुक के साथ मिल कर एक अभियान शुरू किया है।
आयोग को उम्मीद है कि 2019 के लोकसभा चुनावों से अधिक से अधिक नए वोटरों के नाम मतदाता सूची में शामिल करने में कामयाबी मिलेगी। चुनाव आयोग की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में 18 से 19 साल तक के 3.36 करोड़ नए वोटरों के नाम अब तक मतदाता सूची में शामिल नहीं हो सके हैं। ऐसे वोटरों ने अब तक खुद को पंजीकृत नहीं किया है। उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र व मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में ऐसे युवाओं की तादाद सबसे ज्यादा है।
अब आयोग ने ऐसे वोटरों के नाम मतदाता सूची में शामिल करने के लिए पहली जुलाई से सोशल मीडिया के साथ मिल कर एक विशेष अभियान शुरू किया है। मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी का कहना है, "पांच-छह साल पहले तक नए वोटरों की कुल तादाद में से महज 10 फीसदी के नाम ही सूची में थे। लेकिन आयोग के प्रयासों से अब यह आंकड़ा 40 फीसदी तक पहुंच गया है।"
ऐसे होगा रजिस्ट्रेशन
नये अभियान के तहत फेसबुक का इस्तेमाल करने वाले तमाम ऐसे नये वोटरों को वोटर पंजीकरण के संदेश भेजे जा रहे हैं, जिन्होंने अब तक मतदाता पहचान पत्र बनाने के लिए पंजीकरण नहीं किया है। यह प्रक्रिया चार जुलाई तक चलेगी। 13 भाषाओं में भेजे जाने वाले इस सदेश में नये वोटरों को अपना नाम पंजीकृत कराने की पूरी प्रक्रिया समझायी जा रही है। वे फेसबुक पेज पर मौजूद एक बटन दबा कर सीधे नेशनल वोटर्स सर्विस पोर्टल तक पहुंच सकते हैं।
चुनाव आयोग के सूत्रों का कहना है कि देश में फेसबुक का इस्तेमाल करने वालों की तादाद 18 करोड़ से ज्यादा होने की वजह से यह एक मुफीद मंच साबित हो रहा है। पश्चिम बंगाल चुनाव विभाग के सूत्रों का कहना है कि बीते पांच वर्षों के दौरान राज्य में वोटरों की तादाद लगभग 17 फीसदी बढ़ कर साढ़े छह करोड़ तक पहुंच गयी है। इससे साफ है कि बंगाल के नए मतदाता अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हैं। नई पीढ़ी के तकनीकी रुझान को ध्यान में रखते हुए अब बचे-खुचे नये वोटर भी फेसबुक के जरिए अपना पंजीकरण कराने के लिए आगे आयेंगे।
आधार-वोटर लिस्ट लिंक
चुनाव आयोग ने दो साल पहले नकली नामों को हटाने के लिए मतदाता सूची को आधार से जोड़ने की कवायद शुरू की थी। इसके तहत सभी राज्यों को भेजे संदेश में आयोग ने मतदाता सूची से आधार को जोड़ने का निर्देश दिया था। लेकिन आयोग ने इस बात का खुलासा नहीं किया था कि यह कवायद अनिवार्य है या ऐच्छिक। नतीजतन इस पर विवाद होता रहा और असमंजस की स्थिति बनी रही।
आखिर सुप्रीम कोर्ट ने जब साफ कर दिया कि एलपीजी और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के अलावा किसी भी योजना के लिए आधार नंबर अनिवार्य नहीं है तो आयोग ने भी कहा कि यह अनिवार्य नहीं है। साथ ही आयोग को सफाई देनी पड़ी कि आधार नंबर से मतदाता सूची को नहीं जोड़ने वालों के नाम सूची से नहीं कटेंगे। आखिर मई 2015 में आयोग ने यह काम रोक दिया।
तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एचएस ब्रह्म ने तब इसे मतदाता सूची को त्रुटिमुक्त करने की एक ठोस पहल करार दिया था। उनकी दलील थी कि इससे फर्जी नामों को हटा कर मतदाता सूची की खामियों को दुरुस्त किया जा सकता है। तीन मार्च, 2015 को शुरू हुई यह प्रक्रिया उसी साल 15 अगस्त तक पूरी होनी थी। आयोग बाद में इसकी मियाद बढ़ा कर दिसंबर तक करने पर विचार कर रहा था। लेकिन उसी बीच सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने की वजह से यह परियोजना बीच में ही रोकनी पड़ी। तब तक महज 34 करोड़ वोटरों ने ही अपने आधार नंबर मुहैया कराए थे।
राजनीतिक हित हावी
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि आधार से मतदाता सूची को जोड़ कर कई खामियों को दुरुस्त किया जा सकता है। लेकिन तमाम राजनीतिक दल ही इस प्रक्रिया में सबसे बड़ी बाधा हैं। आयोग के दावों के बावजूद हर बार चुनावों के मौके पर मतदाता सूची की वैधता पर सवाल उठते रहते हैं। इनमें राजनीतिक दलों के हित छिपे हैं। इसी वजह से वह किसी न किसी बहाने इस काम में रोड़ा अटकाते रहे हैं।
राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर सुनील कुमार मंडल कहते हैं, "अब जिस तरह हर क्षेत्र में आधार कार्ड अनिवार्य हो रहा है उसे देखते हुए मतदाता सूची के साथ इसे लिंक करने की राह भी ज्यादा दूर नहीं हैं।" लेकिन सवाल यह है कि क्या तमाम राजनीतिक दल अपने हितों से ऊपर उठ कर ऐसा होने देंगे? पर्यवेक्षकों का कहना है कि ऐसा नहीं होने तक मतदाता सूची को साफ-सुथरा रखने की चुनाव आयोग की तमाम कवायदों का कोई खास असर नहीं होगा।
रिपोर्ट प्रभाकर, कोलकाता